इंदुशेखर तत्पुरुष
हिन्दी साहित्य के पुरोधा महाकवि पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिन बसंत पंचमी को मनाया जाता है। जैसे बसंत सब ऋतुओं का अग्रदूत है, वैसे ही निराला आधुनिक हिन्दी कविता के अग्रदूत हैं। आधुनिक कविता की आधारभूमि का निर्माण सरस्वती के वरदपुत्र निराला ने ही किया था। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के काव्य साहित्य को कुछ खास प्रवृत्तियों और विशेषताओं के रूप में पहचाना जाता है, जैसे,छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद इत्यादि। निराला छायावाद के प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। किन्तु वे एक ऐसी नैसर्गिक प्रतिभा का स्फोट थे कि उनके काव्य में अपने युग और उसके आगे-पीछे की सभी काव्य प्रवृत्तियां बोलती हैं। अपने समय और समाज के सूक्ष्मदृष्टा कवि निराला की दूरदृष्टि का ही यह कमाल है कि उनकी कविता में आगामी काव्यप्रवृत्तियों की भी अनुगूँजें पहले से सुनाई पड़ती हैं। किन्तु जिस तथ्य की ओर हिन्दी के एजेंडाधारी आलोचकों और अध्यापकों ने मुंहफेरे रखा वह है, निराला की प्रखर हिन्दू चेतना और हिंदू जीवनदर्शन के प्रति उनका स्पष्ट दृष्टिकोण।
वर दे वीणा वादिनी वर दे!वर दे वीणावादिनी वर दे! काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कंठ नव जलद मंद्र रव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे! |
हिन्दी साहित्य के अध्येता जानते हैं कि वामपंथी आलोचकों ने ‘भारत भारती’ के रचयिता और राष्ट्रवादी कवि मैथिलीशरण गुप्त पर हिंदूवादी होने का ठप्पा लगाकर उनकी भरपूर उपेक्षा की। दूसरी ओर इन्हीं साहित्यिक पुरोधाओं ने निराला के हिंदूवादी पक्ष को दबाकर बड़ी चतुराई से उनको प्रगतिशीलधारा के कवि के रूप में स्थापित करने में अपनी सारी ताकत झोंक दी।
भारतीय चेतना के ज्योति स्तंभ
वस्तुत: निराला भारतीय चेतना का ऐसा ज्योतिस्तम्भ है जिसमें जीवन का समग्र अपने सभी आयामों के साथ झलकता है। जहां संघर्ष है, तो समन्वय भी है। व्यक्ति स्वातंत्र्य है, तो समष्टि चेतना भी है। भौतिक समस्याएं हैं, तो आध्यात्मिक समाधान भी हैं। लौकिक चुनौतियां हैं, तो आध्यात्मिक उलझनें भी हैं। परंपरा का रक्षण है, तो प्रगतिकामना भी है। और इन सबके साथ है अपनी हिन्दू अस्मिता पर दृढ़विश्वास। हिन्दू समाज के विघातकों के प्रति आक्रोश तथा हिन्दू पुनरुत्थान की तीव्र भावना। यदि यह भाव न होता तो निराला ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ (मिर्जा राजा जयसिंह के नाम) जैसी ज्वलंत रचना कभी नहीं कर सकते थे और न वे गुरु गोविंदसिंह का उद्घोष ‘जागो फिर एक बार’ अपनी कविता में गुंजा सकते थे। ‘तुलसीदास’ जैसी कालजयी काव्य रचना भी सम्भव नहीं होती, जिसमें मुगलों के दुर्दम्य सांस्कृतिक प्रत्याघात की वेदना चित्रित हुई है।
‘भारत के नभ का प्रभापूर्य
शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे तमस्तूर्य दिङ्मण्डल
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान।’….
जैसी पंक्तियां पढ़कर उस वेदना की गहराई का अहसास होता है।
हिंदू सिद्धांतों पर अटूट विश्वास
मासिक पत्र ‘सुधा’ के जनवरी 1931 अंक के संपादकीय में ‘हिंदू धर्म के प्राथमिक सिद्धांत" नामक लेख में हिंदू धर्म के वैशिष्ट्य को उजागर करते हुए निराला लिखते हैं,
‘हिंदू धर्म इतना व्यापक और उदार है कि संसार के प्राय: सभी आस्तिक अथवा नास्तिक धर्मों का उसमें समावेश हो जाता है। संसार की प्राय: सभी जातियां तत्प्रस्तुत जीवनझ्रसिद्धांतों की परिचर्या करके उसकी सर्वसहा गोद में प्रश्रय पा सकती है।… इन सब कारणों से हिंदू शब्द किसी एक मत विशेष का नहीं, अपितु एक संस्कृति विशेष का ही परिचायक हो उठा है।… हिंदू धर्म की इस महान व्यापकता का मूल कारण है उसका ईश्वर की अनन्तरूपता में विश्वास। यह ईश्वर की किसी आकृति-विशेष अथवा मूर्ति-विशेष को ही हृदय में छुपा कर नहीं बैठता। उसका खुदा सातवें आसमान पर झुर्रियोंदार खाल तथा लंबी दाढ़ी लिए नहीं बैठा, न वह ईसाइयों के खुदा के समान सातवें दिन आराम करने वाला एकदेशी, अज्ञानी तथा चिड़चिड़ा बुड्ढा है। उसका खुदा संसार के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त अनंतमूर्ति निराकार खुदा है। उसके अनंत रूप, अनंत नाम तथा पूजा के अनंत प्रकार हैं। अतएव इस अनंतमूर्ति ईश्वर की किसी भी प्रकार से उपासना करने वाला पुरुष हिंदू कहला सकता है।
उपासना की ऐसी स्वाधीनता अन्य किसी धर्म में नहीं।… ’ (निराला रचनावली, खंड-6, पृष्ठ 346)
इसी तरह ‘कला के विरह में जोशी बन्धु’ नामक निबंध में निराला हिंदू चिंतन का पक्ष रखते हुए, डार्विन के विकासवाद का खंडन करते हैं। विकासवाद के अनुसार मानव की अब तक की यात्रा अविकसित अवस्था से उत्तरोत्तर विकास की ओर है जबकि हिंदू चिंतन ह्रासवाद को मानता है। यहां निराला की हिन्दुत्व के प्रति दृढ़ आस्था और साहस देखते बनते हैं कि सर्वंकष वैज्ञानिक वर्चस्व के युग में जबकि बहुत से हिंदुत्व के विचारक भी डार्विनवाद के प्रभाव में आ गए, निराला अभी भी ह्रासवाद के सिद्धांत पर अटल खड़े हुए बहस में भाग लेते हैं। डॉ. हेमचंद्र जोशी और इलाचंद्र जोशी के विचारों का खंडन करते हुए वे हिन्दू सभ्यता-संस्कृति की अपराजेयता का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-
‘हिंदू जाति अपने समाज की रक्षा के लिए आदिम काल से ही सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचार करती आई है। उसका साहित्य इसका प्रमाण है।… आज तक हिंदू जाति इसलिए नहीं मरी। क्या जोशी बंधु बताएंगे कि संसार की अमुक पराधीन जाति इतने दिनों की दासता के पश्चात भी जीवित रही है? भारतवर्ष का यह जीवन उसकी अपनी शिक्षा, उसकी अपनी कला, अपने साहित्य और अपने भास्कर्य के बल पर ही इतने दिनों से टिका हुआ है।’ (प्रबंध प्रतिभा)
कुरीतियों में सुधार के पक्षधर
तात्कालीन हिन्दू समाज की दुर्दशा और कुरीतियों से आहत निराला अपने निबन्ध-लेखों में धार्मिक पाखण्ड और छद्म आचरण पर प्रहार भी करते हैं, तो एक शिक्षक या अभिभावक की तरह सुधार की कामना से, न कि निन्दाझ्रउपहास के लिए।
विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी की मत भिन्नता पर केंद्रित ‘चरखा’ नामक आलेख में निराला भारतीय जाति प्रथा का गहन और वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करते हैं। ऐसा नहीं कि निराला ने जाति प्रथा की कुरीतियों पर चोट नहीं की। किंतु वे हिंदू विरोधियों की तरह निंदा-उपहास मात्र से संतुष्ट नहीं होते, वह उसके दोषों का अपवर्जन करते हैं और दूसरी ओर उसके मूल ढांचे की रक्षा हेतु भी सन्नद्ध रहते हैं। विरोधियों की खबर लेते हुए वे व्यंग्य करते हैंझ्र ‘यह भी अच्छी रही। हिंदू धर्म के दोषों की तो आप उद्भाव ना करें और जिस विशाल स्तंभ पर यह टिका हुआ है उसका नाम भी ना लें।’
वेदांत में अकाट्य आस्था
निराला वेदांत में अकाट्य आस्था रखते हैं। इसके लिए वे किसी से भी भिड़ने के लिए तैयार थे। जवाहर लाल नेहरु से एक भेंटवार्ता में, जो कि रेल यात्रा करते समय हुई, ब्रह्म की चर्चा आने पर पंडित नेहरू ने उपेक्षापूर्वक कहा, ‘ब्रह्म क्या है?’ इस पर निराला ने उत्तर दिया कि ‘ब्रह्म शब्द से नफरत की कोई बात नहीं हो सकती। ब्रह्म का मतलब सिर्फ बड़ा है जिससे बड़ा और नहीं। किसी को ब्रह्म देखने का अर्थ है उसके भौतिक रूप में ही नहीं सूक्ष्मतम आध्यात्मिक दार्शनिक वृहत्तर रूप में भी देखने वाले की दृष्टि प्रसारित है।
पंडित जी मैं अगर आपको ब्रह्म देखूं तो आप मेरी दृष्टि में बड़े होंगे या बहत्तर दफा नेशनल कांग्रेस के साइड करने पर।’ यहां निराला ब्रह्म की व्याख्या से ही संतुष्ट नहीं हो जाते, वे इसी दृष्टि को एकमात्र मार्ग बताकर अपनी दृढ़ भावना भी व्यक्त करते हैं और आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, ‘यही दृष्टि जरूरी है। यही दृष्टि पतित का सार्वभौम सुधार कर सकती है। गुलामी की बेड़ियां काट सकती है। हिंदू-मुस्लिम को मिला सकती है। यह निगाह आज तक की तमाम रूढ़ियों से जुदा है।’
देखने की बात यह है कि निराला देश की तीन प्रमुख तत्कालीन समस्याओं का निदान वेदांत में दृष्टि में देखते हैं। (एक) हिंदू समाज की दलित समस्या, (दो) संपूर्ण जाति की पराधीनता और (तीन) हिंदूझ्रमुस्लिम वैमनस्य।
शिवाजी के साथ खड़े निराला
निराला की प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ उनके ‘परिमल’ नामक संग्रह में संकलित है। यह सन् 1926 में ‘मतवाला’ में पांच किश्तों में छपी थी। हिंदू समाज के प्रति निराला की भावनिष्ठा यहां देखने योग्य है। औरंगजेब ने शिवाजी को वश में करने के लिए महाराज जयसिंह को भेजा था। शिवाजी के मन में एक सुदृढ़ हिंदूराज्य स्थापित करने का स्वप्न था। वे सभी हिंदू राजाओं को एकजुट कर आतताई धर्मांध सत्ता को पदच्युत करना चाहते थे।
अत: वे नहीं चाहते थे कि हिंदू राजा परस्पर लड़कर अपनी शक्ति क्षीण करें। परंतु वस्तुस्थिति इसके विपरीत थी। अधिसंख्यक हिंदू राजा औरंगजेब के दरबार में हाजिरी बजाते थे और उसके सरदार बने बैठे थे। शिवाजी ने जयसिंह को भारत की स्वतंत्रता का बोध कराने तथा उसका सोया हिंदुत्व जगाने हेतु उसे मर्मस्पर्शी पत्र लिखा। विचारणीय बात है कि निराला अपने हिंदुत्व को मुखरित करने के लिए इस ऐतिहासिक पत्र को काव्यझ्रविषय के रूप में चुनते हैं। अपने मनोभावों के अनुरूप विषय पाकर निराला किस तरह तदाकार हो उठते हैं, यह इस कविता में पग-पग पर प्रतिध्वनित होता है। कुछ अंश दृष्टव्य हैं-
‘जय-श्री जयसिंह! / मोगल सिंहासन के- / औरंग के पैरों के / नीचे तुम रखोगे / काढ़ देना चाहते हो दक्षिण के प्राण / मोगलों को तुम जीवनदान / काढ़ हिंदुओं का हृदय……. ’
मुगल साम्राज्य की जयश्री हे जयसिंह! मैंने सुना है कि तुम दक्षिण के प्राण निकालकर औरंगजेब के पैरों के नीचे रखना चाहते हो। हिंदुओं का हृदय निकालकर मुगलों को जीवनदान देना
चाहते हो?
‘किन्तु हाय! वीर राजपूतों की / गौरव प्रलम्बग्रीवा /
अवनत हो रही है आज तुमसे महाराज / मोगल-दल-विगलित-बल / हो रहें हैं राजपूत / बाबर के वंश की / देखो आज राजलक्ष्मी / प्रखर से प्रखरतर प्रखरतम दीखती……’
‘…..क्या कहूं मैं / लूं गर तलवार / तो धार पर बहेगा खून / दोनों ओर हिंदुओं का, अपना ही / उठता नहीं है हाथ / मेरा कभी नरनाथ / देख हिंदुओं को ही / रण में झ्रविपक्ष में…..’
शिवाजी का धर्मसंकट यह है कि दोनों ओर हिंदुओं की सेना ही मारीझ्रकाटी जाएगी। जबकि, शिवाजी अपनी खड़ग का प्रयोग धर्म एवं धर्म बंधुओं की रक्षार्थ ही करना चाहते हैं। वे कहते भी हैं
‘वीरवर समर में / धर्मघातकों से ही खेलती है रण क्रीड़ा / मेरी तलवार निकल म्यान से……’
वे जयसिंह को उन महान् पूर्वजों की याद दिलाते हैं जिन्होंने हिंदू जाति और धर्म के लिए प्राण न्योछावर कर दिए। उसके देशभक्ति के सुप्त भाव को कुरेद कर जाग्रत करने के लिए निराला यहां मर्मस्पर्शी प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं
‘…… सोचो जरा क्या तुम्हें उचित है कभी / लोहा लो अपने ही भाइयों से! / अपने ही खून की अंजली दो पूर्वजों को / धर्म-जाति के ही लिए / दिए हों जिन्होंने प्राण / कैसा यह ज्ञान है!……’ सुना नहीं तुमने क्या वीरों का इतिहास / पास ही तो देखो क्या कहता चित्तौड़गढ़? / मढ़ गए ऐसे तुम तुर्कों में? / करते अभिमान भी किन पर? / विदेशियों विधर्मी पर? /
काफिर तो कहते न होंगे कभी तुम्हें वे? / विजित भी न होगे तुम औ, गुलाम भी नहीं?……..’
‘होता तू जानदार / हिन्दुओं पर हरगिज तू / कर न सकता प्रहार…. ’
समूची कविता ही ऐसे भावों में भरी पड़ी है कि क्या उद्धृत किया जाए,क्या छोड़ा जाए? निराला कम से कम 16 बार हिंदू शब्द का प्रयोग करते हैं। वे देखते हैं कि जिस तरह वर्तमान में अंग्रेज हिंदुस्तानियों के बल पर ही हिंदुस्तान पर राज कायम किए हुए हैं और जिसका परिणाम हिंदुस्तान और हिंदू धर्म की बबार्दी है। अपनी यह वेदना वे शिवाजी के माध्यम से जयसिंह के प्रति व्यक्त करते हैं-
‘सांकलें हमारी हैं / जकड़ रहा है वह जिनसे हिंदुओं के पैर / हिंदुओं के काटता है शीश / हिंदुओं की तलवार से / याद रहे बर्बाद जाता है हिंदू धर्म, हिंदुस्तान/ और भी कुछ दिनों तक / जारी रहा यदि ऐसा अत्याचार, महाराज / निश्चय है हिंदुओं की कीर्ति उठ जाएगी / चिह्न भी न हिंदू सभ्यता का रह जाएगा….’
वस्तुत: शिवाजी का लक्ष्य औरंगजेब को परास्त कर स्वयं सत्ता पर अधिष्ठित हो जाना नहीं है। उनका लक्ष्य है हिंदू धर्म, हिंदू सभ्यता और हिंदुस्तान की रक्षा। वे भारत की बुझी हुई ज्योति को पुन: उसके भाल पर चमकता देखना चाहते हैं और इसके लिए हिंदुओं का संगठित होना अपरिहार्य मानते हैं। जगजाहिर है कि हिंदुत्व का मूल स्वर कभी आक्रामक नहीं रहा। शिवाजी का हिंदुत्व धार्मिक विभाजनकारी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर आधारित नहीं था। इतिहास साक्षी है कि उनके सेनापति और तोपची मुसलमान थे। सेना में सेनापति और तोपची से ज्यादा विश्वसनीय शायद ही कोई और पद होता हो। उनके अनेक सैनिक भी मुसलमान थे। किंतु धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए शिवाजी किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर हैं, क्योंकि उनके सामने एक वृहत्तर लक्ष्य है। निराला हमें शिवाजी के साथ खड़े मिलते हैं जब वे लिखते हैं,-
‘एक ओर हिंदू एक ओर मुसलमान हों / व्यक्ति का खिंचाव यदि जातिगत हो जाए / देखो परिणाम फिर / स्थिर न रहेंगे पैर यवनों के / पस्त हौसला होगा / ध्वस्त होगा साम्राज्य…..’
हिंदू धर्म इतना व्यापक और उदार है कि संसार के प्राय: सभी आस्तिक अथवा नास्तिक धर्मों का उसमें समावेश हो जाता है। संसार की प्राय: सभी जातियां तत्प्रस्तुत जीवनझ्रसिद्धांतों की परिचर्या करके उसकी सर्वसहा गोद में प्रश्रय पा सकती है।… इन सब कारणों से हिंदू शब्द किसी एक मत विशेष का नहीं, अपितु एक संस्कृति विशेष का ही परिचायक हो उठा है।… हिंदू धर्म की इस महान व्यापकता का मूल कारण है उसका ईश्वर की अनन्तरूपता में विश्वास।
इस प्रकार तभी जाकर उस महान् लक्ष्य की प्राप्ति होगी जो शिवाजी का काम्य है, कविता में निराला का काम्य है और हर भारतीय का काम्य है। जिसका स्वप्न निराला इस कालजयी कविता में देखते हैं।
‘आएगी भाल पर / भारत की गई ज्योति / हिंदुस्तान मुक्त होगा घोर अपमान से / दासता के पाश कट जाएंगे।’
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