हमारे ऋषि-मनीषी इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से भलीभांति विज्ञ थे कि मानव समाज को स्वस्थ रखने के लिए उनके अंत:करण में सुसंस्कारिता का बीजारोपण जरूरी है; इसीलिए उन्होंने नवरात्र काल में मां शक्ति की साधना का विधान बनाया क्योंकि शक्ति के बिना न स्वहित संभव है और न लोकमंगल
पूनम नेगी
परम सत्ता को मातृशक्ति के रूप में पूजने की परम्परा हमारी सनातन संस्कृति की ऐसी मौलिक विशेषता है, जिसकी मिसाल विश्व के अन्य धर्मों में खोज पाना दुर्लभ है। भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ के दशम मंडल में एक पूरा सूक्त ही शक्ति उपासना पर केंद्रित है। इस देवी सूक्त में मां आदिशक्ति को मूलप्रकृति के रूप में व्याख्यायित किया गया है। वे ममत्व की पराकाष्ठा हैं और तेज, दीप्ति, दुति व कांति से समन्वित उनकी जीवन प्रदायिनी ऊर्जा ही सृष्टि के हर जड़-चेतन में संचरित होती है। ऋग्वेद के इस देवी सूक्त में मां आदिशक्ति स्वयं कहती हैं, ‘अहं राष्ट्रे संगमती बसना अहं रूद्राय धनुरातीमि…’ अर्थात मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं। मैं ही रुद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती व आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए महासंग्राम करती हूं। वैदिक ऋषि कहते हैं कि मां आदिशक्ति वस्तुत: स्त्री शक्ति की अपरिमितता की द्योतक हैं। उनके बिना समस्त देवशक्तियां अपूर्ण हैं। ज्ञात हो कि ऋग्वेद के देवी सूक्त के अतिरिक्त ऊषा सूक्त और सामवेद के रात्रि सूक्त में भी मां आदिशक्ति साधना की महिमा का बखान मिलता है। पौराणिक युग तो शक्ति उपासना का चरम काल माना जाता है। श्रीमद् देवीभागवत महापुराण, शिवपुराण की रुद्र संहिता, ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण व स्कन्द पुराण आदि ग्रंथों में मां आदिशक्ति के आविर्भाव के रोचक वृत्तांत सविस्तार वर्णित हैं।
मार्कण्डेय ऋषि लिखित श्रीमद् देवीभागवत में शक्ति की व्यापकता का उल्लेख तीन रूपों में किया गया है-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती। महाकाली आसुरी शक्तियों की संहारक हैं, वे अपने खड्ग से अज्ञान तथा अहंकार का नाश करती हैं। महासरस्वती सद्ज्ञान और विवेक की देवी व विद्या, साहित्य, संगीत की अधिष्ठात्री हैं वहीं महालक्ष्मी समस्त सांसारिक ऐश्वर्यों की प्रदाता हैं। मार्कण्डेय पुराण में देवी माहात्म्य की विशद् विवेचना ‘दुर्गा सप्तशती’ के नाम से की गई है; जिसमें सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी मार्कण्डेय ऋषि को देवी के नौ स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री) की महिमा बताते हुए कहते हैं कि यह अनन्त विश्व ब्रह्मांड मां आदिशक्ति की लीला का ही विस्तार है जो विविध अवसरों पर, विविध प्रयोजनों के लिए अलग-अलग नाम, रूप एवं शक्ति धारण करके प्रकट होती हैं। प्रकृति की जितनी भी शक्तियां हैं, वे सब इन्हीं मातृशक्ति की ही विविध अभिव्यक्तियां हैं। शक्ति से विहीन होकर ‘शिव’ शव के समान हो जाते हैं। शक्ति के सानिध्य से ही शिव का शिवत्व जागृत होता है अर्थात् महाकाल की संजीवनी महाकाली ही हैं। शक्ति तत्व की व्याख्या करते हुए ‘दुर्गा सप्तशती’ कहती है कि संसार के समस्त प्राणियों में चेतना, बुद्धि, स्मृति, धृति, शक्ति, श्रद्धा, कांति, तुष्टि, दया और लक्ष्मी आदि रूपों में यही आदिशक्ति स्थित रहती है। वही प्रत्येक प्राणी के भीतर मातृ शक्ति के रूप में प्रकाशित है जो सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर यह क्रमश: महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में अभिव्यक्त होती है।
भारत के पुरा इतिहास के विभिन्न घटनाक्रम बताते हैं कि त्रेतायुग में हुए राम-रावण युद्ध से पूर्व भगवान श्रीराम और द्वापर युग में हुए महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने भी लक्ष्य की पूर्णता के लिए मां शक्ति की आराधना कर उनका आशीर्वाद मांगा था। कम्ब रामायण में उल्लेख मिलता है कि युद्ध से पूर्व रावण ने भी मां शक्ति की आराधना की थी किन्तु मां भगवती ने उसे ‘विजयश्री’ का नहीं अपितु ‘कल्याणमस्तु’ का आशीर्वाद दिया था क्योंकि सर्वज्ञ मां जानती थीं कि रावण की कामना व अहंकार के पराभव में ही उसका कल्याण निहित था। कालांतर में भारम में मां शक्ति के आराधकों का ‘शाक्त’ नाम से एक प्रमुख सम्प्रदाय ही विकसित हुआ। शक्ति ग्रन्थों में देवी के स्वरूप, महिमा एवं उपासना विधि का विस्तार से वर्णन मिलता है। बौद्ध पंथ में भी मातृ शक्ति की पूजा विविध रूप में प्रचलित रही है। बौद्ध तंत्रों में तो शक्ति को शीर्ष स्थान प्राप्त रहा है।
हमारे वैदिक मनीषियों ने विभिन्न शुभ संदर्भों से जुड़े नवरात्र के दिव्य साधनाकाल को शक्ति अर्जन का अत्यन्त फलदायी अवसर माना है। ऋतु परिवर्तन की इस संधि वेला में की गई छोटी सी संकल्पित साधना से भी चमत्कारी परिणाम अर्जित किए जा सकते हैं। ऋषि चिंतन कहता है कि इस अवधि में वातावरण में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते रहते हैं। इसलिए यदि इस सुअवसर का उचित लाभ उठाया जा सके तो यह साधनाकाल साधक के आध्यात्मिक विकास में तो सहायक होता ही है; उसके व्यक्तित्व को भी निखारता है। दरअसल आज के समय की सभी समस्याओं के दो मूल कारण हैं- बाहर की दुनिया में फैली विषाक्तता और भीतर की दुनिया में पसरती असुरता। इससे मानव का चिंतन, चरित्र और व्यवहार बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है। इन दुष्प्रवृतियों पर अंकुश के लिए सबसे जरूरी है लोकमानस का परिष्कार और यह परिष्कार सिर्फ शक्ति की साधना से ही हो सकता है। साधना विचार संयम की, क्रोध पर नियंत्रण की और चित्त की एकाग्रता की। यह साधना सीख गये तो अपने जीवन की सभी समस्याओं का हल हम खुद ही निकाल लेंगे।
वैदिक मनीषियों ने विभिन्न शुभ संदर्भों से जुड़े नवरात्र के दिव्य साधनाकाल को शक्ति अर्जन का अत्यन्त फलदायी अवसर माना है। ऋतु परिवर्तन की इस संधि वेला में की गई छोटी सी संकल्पित साधना से भी चमत्कारी परिणाम अर्जित किए जा सकते हैं। इस अवधि में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते रहते हैं। यह साधनाकाल साधक के आध्यात्मिक विकास में तो सहायक होता ही है; उसका व्यक्तित्व भी निखारता है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ अपने मूल रूप में वापस आकर फिर से अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी नहीं बल्कि चक्रीय है तथा प्रकृति के द्वारा प्रतिपल हर वस्तु का नवीनीकरण होता रहता है यानी परिवर्तन इस प्रकृति का सुनिश्चित नियम है। उसी तरह नवरात्र का देव पर्व मनुष्य को अपने मन को वापस अपने मूल स्रोत की ओर ले जाने का सुअवसर देता है। गायत्री महाविद्या के सिद्ध साधक पंडित श्रीरामशर्मा आचार्य लिखते हैं कि विविध नाम रूपों में जानी जाने वाली देवी जब एक ब्राह्मी शक्ति में सिमट जाती हैं तो सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री मां गायत्री कहलाती हैं। ‘गय’ कहते हैं प्राण को और त्रय अर्थात् त्राण अथवा मुक्ति। यानी जो सांसारिक माया से प्राणतत्व को मुक्त करे, वह ‘‘गायत्री’’। इसीलिए भारतीय दर्शन में वेदों को ज्ञान का आगार कहा जाता है और गायत्री को वेदमाता। नवरात्र साधना मूलत: मां भगवती के इसी कृपा प्रसाद से व्यक्तित्व संवर्धन एवं आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करने का विराट संकल्प है। मां भगवती की इस साधना से काम, क्रोध, मोह एवं लोभ पर नियंत्रण व मन,अंत:करण, चित्त, बुद्धि व अहंकार के शोधन से कुसंस्कारों का शमन होता है तथा हमारे तन-मन को रोग, शोक, भय, बंधन, पाप एवं दु:ख से मुक्ति मिलती है। इस साधना से हमारे अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश, विज्ञानमयकोश एवं आनंदमयकोश उपचारित होकर ऊर्जावान बनते हैं। यह साधना वस्तुत: आत्मचेतन की गहरी परतों को खोलकर प्रसुप्त शक्तियों को ऊजार्वान एवं जाग्रत बनाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य कामना पूर्ति न होकर अंत:करण की निर्मलता की प्राप्ति है। इससे हमारी चेतना पर छाई धुंध छंट जाती है एवं आंतरिक अवसाद नष्ट हो जाते हैं। वे कहते हैं कि यूं तो करुणामयी मां का आशीर्वाद अपने भक्तों पर सदैव ही बरसता रहता है पर नवरात्र वेला में उनका यह प्रेम छलक पड़ता है। इसीलिए सनातन धर्म में आध्यात्मिक साधनाओं के लिए नवरात्र काल से बढ़कर और कोई अन्य सुअवसर दूसरा नहीं माना गया है। वैदिक काल में ज्ञान और विज्ञान इस कारण उत्कृष्ट कोटि का था क्योंकि उसका मूल आधार वेद और उपासना का समूचा विधि-विधान गायत्री की धुरी पर केन्द्र्रित था। सर्वसाधारण भी अपने दैनिक सन्ध्या वंदन में भी गायत्री मंत्र की उपासना करता था। योगी, तपस्वी इसी के सहारे अपना महालक्ष्य प्राप्त करते थे। देवताओं और अवतारों के लिए भी शक्ति का स्रोत यही महाशक्ति थी।
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