सभी के कल्याण की कामना सभी के द्वारा की जाती है। यहां मानवता महत्वपूर्ण है, इसीलिए यहां मजहब की नहीं, धर्म की बात की जाती है। धर्म यानी धारण करने योग्य कर्तव्य या आचरण। इसी मार्ग पर चल कर विश्व आगे बढ़ सकता है, क्योंकि इस संस्कृति में संघर्ष की नहीं, साथ मिलकर आगे बढ़ने की भावना है। आज विश्व को आगे बढ़ने के लिए, प्रगतिशील बनने के लिए भारत की सांस्कृतिक सोच से सबक लेने की आवश्यकता है।
पूरी दुनिया में मजहबी कट्टरवाद के विरुद्ध जागरण शुरू हो चुका है। अमेरिका, भारत जैसे देश तो अपने-अपने तरीके से काफी समय से इस कट्टरवाद के विरुद्ध बिगुल फूंके हुए थे। अब अन्य देशों ने भी इस्लामी कट्टरवाद के विरुद्ध कड़े कदम उठाना शुरू कर दिया है।
24 फरवरी को उत्तरी जर्मनी के सेले में राज्य अदालत ने एक प्रमुख मस्जिद के मौलवी अहमद अब्दुल्ला अजीज अब्दुल्ला उर्फ अबु वला को साढ़े दस वर्ष कैद की सजा सुनायी है। अबु वला इस्लामिक स्टेट (आईएस) का सदस्य था और आतंकी गतिविधियों के लिए वित्त भी जुटाता था। उस पर उत्तरी और पश्चिमी जर्मनी में युवाओं को कट्टरपंथी बनाकर उन्हें आईएस नियंत्रित इलाकों में भेजने का भी दोष सिद्ध हुआ है।
आधुनिकता के प्रतीक फ्रांस ने पिछले सप्ताह संसद में एक विधेयक पारित किया है, जिससे मुस्लिम जगत में खलबली मची है। इस कानून के तहत फ्रांस सरकार अब मदरसों में क्या पढ़ाया जाता है, मस्जिदों में विदेशी पैसा कहां से, कैसे, क्यों आता है, इस पर कड़ी नजर रखेगी। सार्वजनिक स्थानों पर कोई औरत हिजाब या नकाब पहन कर नहीं जा सकती। मुसलमान लड़कियों को निकाह से पहले अक्षतयोनि होने का जो चिकित्सकीय प्रमाणपत्र देना होता था, अब नहीं देना पड़ेगा। इस पूरे कानून में इस्लाम शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है।
चीन में भी इस्लामी कट्टरपंथ को लेकर छटपटाहट है और वह अपनी तरह से इसका मुकाबला करने में जुटा है। वहां मुसलमान मोहम्मद, इस्लाम, जिहाद जैसे 29 नाम नहीं रख सकते। चीन सरकार मुस्लिमों का चीनीकरण करने पर तुली है। चीन के शिनजियांग प्रांत में हलाल पर रोक लगा दी गयी है। इसके अलावा शादी-ब्याह और अंतिम संस्कार के मामले में भी अरबी रीति-रिवाजों को सरकार बदल रही है।
पूरा विश्व धीरे-धीरे इस्लामी कट्टरपंथ के विरुद्ध अगर खड़ा हो रहा है तो इस्लामी जगत को ईमानदारी से सोचना पड़ेगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? आज के विश्व में मजहबी कट्टरपंथ की जगह खत्म होती जा रही है। महिलाओं के लिए यंत्रणाप्रद इस्लामी रीति-रिवाज आज के समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकते। प्रतीकों के आधार पर मानव-मानव में भेद प्रगतिशीलता के विरुद्ध है, यह बात इस्लामी जगत को समझनी पड़ेगी। पूरे विश्व को आगे बढ़ने के लिए मानवता के मार्ग का ही अनुसरण करना होगा।
अमेरिकी राजनीति विज्ञानी सैमुअल पी. हंटिंग्टन ने अपने शोधपत्र ‘सभ्यता का संघर्ष’ (क्लैश आॅफ सिविलाइजेशन) में लिखा था कि शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात अगला युद्ध देशों के बीच नहीं, बल्कि सभ्यताओं के बीच लड़ा जायेगा। लोगों की सांस्कृतिक और मजहबी पहचान संघर्ष का मुख्य स्रोत होगा। परंतु प्रश्न यह है कि यदि कोई सभ्य है तो वह संघर्ष क्यों करेगा? दो भिन्न समाजों में संघर्ष का आधार यही हो सकता है कि उनमें से एक समाज यह माने कि उसके द्वारा पालन किये जाने वाले नियम, सिद्धांत, रिवाज श्रेष्ठ हैं और उससे श्रेष्ठ कुछ और हो ही नहीं सकता। इसलिए जो उससे अलग सोच रखता है, उससे वह संघर्ष करेगा।
ऐसे में विश्व को भारतीय संस्कृति से सबक मिल सकते हैं। कोरोना काल में भारत ने विश्व के कल्याण के लिए अगुआ बनकर दिखा दिया। मजहबी कट्टरपंथ के मामले में भी भारत के सिद्धांत विश्व को सही मार्ग दिखाते हैं।
भारत का सांस्कृतिक दर्शन रहा है-‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्र्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥’ अर्थात-‘सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दु:ख का भागी न बनना पड़े।’ एक अन्य श्लोक में कहा गया है-‘ॐ संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्, देवा भागं यथा पूर्वे, सञ्जानाना उपासते।।’ अर्थात-‘‘हम सभी प्रेम से मिलकर चलें, मिलकर बोलें और सभी ज्ञानी बनें। अपने पूर्वजों की भांति हम सभी कर्तव्यों का पालन करें’’।
यहां किसी मजहब की बात नहीं की जाती बल्कि सबकी बात की जाती है, सभी के कल्याण की कामना सभी के द्वारा की जाती है। यहां मानवता महत्वपूर्ण है, इसीलिए यहां मजहब की नहीं, धर्म की बात की जाती है। धर्म यानी धारण करने योग्य कर्तव्य या आचरण। इसी मार्ग पर चल कर विश्व आगे बढ़ सकता है, क्योंकि इस संस्कृति में संघर्ष की नहीं, साथ मिलकर आगे बढ़ने की भावना है। आज विश्व को आगे बढ़ने के लिए, प्रगतिशील बनने के लिए भारत की सांस्कृतिक सोच से सबक लेने की आवश्यकता है। @hiteshshankar
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