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रा.स्व.संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा यानी संघ से जुड़ा वर्ष का सबसे बड़ा आयोजन। समाज में संघ कार्य की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है। विविध क्षेत्रों में संघ के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उत्कंठा है। 2018 के अवसर पर रेशिम बाग, नागपुर में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने देश के वर्तमान राजनीतिक – सामाजिक परिदृश्य तथा संघ के बढ़ते व्याप के संदर्भ में पाञ्चजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर तथा आर्गेनाइजर के संपादक श्री प्रफुल्ल केतकर से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं विशेष साक्षात्कार के संपादित अंश-
आज संघ कार्य के लिए जो अनुकूलता दिखती है, इसे आप कैसे देखते हैं?
संघ के स्वयंसेवक सर्वदूर समाज में जाते हैं। अन्यान्य क्षेत्रों में काम भी करते हैं। संघ की शाखा में भी जाते हैं। समाज में, विभिन्न संगठनों में काम करते हैं। कई ऐसे हैं जो ऐसा कुछ नहीं करते, अपनी घर-गृहस्थी के लिए ही काम करते हैं। इन सबके व्यवहार और आचरण से वह सब झलकता है। जो काम उन्होंने किया है, वह घर-गृहस्थी चलाने का काम हो या किसी संगठन को चलाने का काम हो या समाज में किसी समस्या को सुलझाने का हो। उस समय में उनकी दृष्टि, समझदारी, सबको साथ लेकर चलने का स्वभाव रहा है और स्वयं की पारदर्शिता, सरलता, नि:स्वार्थ बुद्धि, इन सबका दिव्य परिणाम होता है, समाज पर संघ का विश्वास बढ़ाता है। संघ के जो प्रसिद्ध लोग हैं आज उनको तो समाज दूर से देखता है। पर उसके घर के आस-पास रहने वाले संघ कार्यकर्ताओं को देखकर समाज को संघ पर विश्वास होता है। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के बोलने और व्यवहार को देखकर लोग एक बात का बड़ी मात्रा में अनुभव करते हैं कि ये वे लोग हैं जो जैसा बोलते हैं वैसा करते हैं। जो बोलते हैं वह करते हैं। छुपाते कुछ नहीं। और विश्वास के लिए यह आवश्यक होता है। संघ के स्वयंसेवक विश्वासपात्र हैं और ये अच्छा करेंगे, मंगल करेंगे, इनके साथ रहने से अपना भी अच्छा होगा, ऐसा समाज को लगने लगा है। इसलिए समाज विश्वास करता है। अब उनके विश्वास पर खरा उतरने के लिए और कुछ नहीं करना केवल स्वयंसेवकों को और अच्छा स्वयंसेवक बनना पड़ेगा। समाज को साथ लेकर चलने से ही समाज की अपेक्षा धीरे-धीरे पूरी होगी।
अगले एक-डेढ़ वर्ष में समाज और राजनीतिकी क्या दिशा होगी? क्या ऐसा लगता है कि हम बड़े बदलावों से गुजर रहे हैं?
बदलाव तो होते रहते हैं। वातावरण बदला है। भारत की स्थिति बदली है। देश पहले से अधिक बलवान एवं अधिक प्रतिष्ठित हो गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि देश के अंदर और बाहर परिस्थिति को संभालने का उसका तरीका थोड़ा बदल जाएगा। अधिक ताकत से संभालेगा। अधिक प्रतिष्ठा है तो उसका अधिक प्रभाव रहेगा। इसलिए बदलाव आता है। समाज के आचरण में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। विशेषकर तरुण पीढ़ी में अनुभव होता है कि स्वतंत्रता के पूर्व की तरुण पीढ़ी में जो उत्साह का वातावरण था कि देश के लिए जीना और देश के लिए मरना, यह एक अंतर्प्रवाह बह रहा था जिसके चलते स्वार्थ गौण हो गये थे। आज फिर से वैसा वातावरण तरुण पीढ़ी में दिख रहा है। वह जो चाहता है प्रामाणिकता से चाहता है, उसको किसी प्रकार का दंभ, नाटक पसंद नहीं। जहां उसको सही बात मिलेगी, सादगी मिलेगी, दंभ नहीं मिलेगा, पारदर्शिता मिलेगी, वहां वह जुड़ जाएगा। स्वतंत्रता के बाद इतने वर्षों का अनुभव लेकर समाज की समझदारी भी बढ़ी है। एक स्वाभाविक प्रक्रिया चल रही है। उसके भी परिणाम अच्छाई की ओर ले जाएंगे। समाज के नाते एक स्वस्थ समाज बनने की दिशा में जाएगा। उथल-पुथल बहुत है। लेकिन यह उथल-पुथल अंत में नवनीत निकालने वाली है। उथल-पुथल में चौदह रत्न निकलते हैं। समुद्र मंथन में हलाहल भी थोड़ा बहुत निकलता ही है। उसे पीने वाले शिव हैं तो फिर उससे डरने की आवश्यकता नहीं है। संघ के स्वयंसेवक ऐसी ही भूमिका अदा करेंगे, ऐसा दिखता है।
बाहर बहुत कयासबाजी हो रही थी कि नागपुर में प्रतिनिधि सभा है तो इस बार कुछ बड़ा होगा। मगर उस सारी चीज को धता बताते हुए और जो बाहर कयास हो रहे थे, उनको चौंकाने वाली उद्घोषणा हुई। संघ इतना सरल है, फिर इतना चौंकाता क्यों है?
सरलता वस्तु में होने से नहीं चलता। सरलता देखने वाले में चाहिए। अन्यान्य कारणों से वह सरल चीज को भी कठिन महसूस करता है। सामान्य गणित, जो आज एक मिनट में ठीक कर देते हैं वह जब हम उस आयु में थे तब हमको बड़ा कठिन लगता था क्योंकि हमारा ध्यान वैसा नहीं था, आज है इसलिए वह हम कर सकते हैं। यह पहली बात है।
दूसरी बात है कि दृष्टि ऐसी हो कि देखने की सरलता में भी लोग अर्थ खोजते हैं।
अगर अनुभव ऐसा सीधा आता होगा कि बार-बार सरलता मानकर गए और कुटिलता दिखी। तो वह पहले किसी भी सरलता की परीक्षा लेकर परखेगा फिर कहेगा कि ये सरल है। ये तीसरे प्रकार के लोग बहुत थोड़े हैं। ऐसे लोग आते हैं, देखते हैं तो उनकी बातें ठीक हो जाती हैं।
संघ तो सरल है। लेकिन बाहर ऐसा कहीं होता नहीं इसलिए कयास लगाते हैं लोग। कुछ बड़ा होगा। बड़ा हमारे यहां कुछ रहता ही नहीं। हां, दायित्व का परिवर्तन कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो हमारे यहां दायित्वों की जो शृंखला है, वह एक व्यवस्था है कार्य चलाने के लिए। सब लोग स्वयंसेवक हैं। समाज में काम करना है तो एक औपचारिकता रखनी ही पड़ती है उसके लिए व्यवस्था बनानी पड़ती है। उसमें दायित्व भिन्न प्रकार के मिलते हैं। लेकिन सरसंघचालक जितने बड़े, उतने सरकार्यवाह बड़े, उतना ही स्वयंसेवक भी बड़ा है। संघ सबका है, सब संघ के ही स्वयंसेवक हैं। एक समय यह चर्चा चलती थी कि हू आफ्टर नेहरू? तो गुरुजी से उस समय भी किसी ने एक बार पूछ लिया-हू आफ्टर यू? तब गुरुजी ने तपाक से कहा-वाइ नॉट यू? यह काम मेरे भरोसे थोड़े चल रहा है। सब लोग हैं। बालासाहब ने कहा कि डॉ. हेडगेवार जैसी मूलगामी प्रतिभा या गुरुजी के व्यक्तित्व जैसा उच्चस्तर मेरे पास नहीं है। जो संघ कार्य हुआ, इन महापुरुषों के कारण हुआ। लेकिन यह देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं का संच है। तो इतने लोग मिलकर संघ चलाते हैं उसमें एक व्यक्ति का इधर से उधर होना, किसी का दायित्व बदलना होता रहता ही है। इसमें ऊंचा-नीचा कुछ नहीं है। तो यह कोई बड़ी बात नहीं, संघ में ये सहज बातें हैं। बाहर से लोगों को लगता है कि यह प्लेस आॅफ पावर है। एग्जिक्यूटिव अथॉरिटी। ऐसा कुछ है ही नहीं यहां। यह सारे स्वयंसेवकों की सहमति से होता है। उसमें उनका प्रस्ताव आता है। उसके आधार पर चुनाव घोषणा आदि होते हैं।
इसका आधार क्या है और प्रक्रिया क्या है?
प्रक्रिया तो संविधान के अनुसार है कि शाखा के क्रियाशील स्वयंसेवक प्रतिनिधि चुनते हैं। प्रांतों में जो प्रतिनिधि चुने जाते हैं एक विशिष्ट संख्या में, अखिल भारतीय प्रतिनिधि, प्रांत के संघचालक, विभाग प्रचारक और ऊपर के अधिकारी मिलकर सब मतदाता होते हैं। वे चुनाव करते हैं, लेकिन चुनाव एक प्रक्रिया से ही होता है। सबके मन की बात जानकर प्रस्ताव आता है, उसे समझने के बाद उसका अनुमोदन होता है। मैं सरकार्यवाहक बना तो अचानक ही बना। मेरे से वरिष्ठ बहुत लोग थे। बदलने का बहुत ज्यादा कारण नहीं था। लेकिन शेषाद्रि जी ने कहा कि मैं इस दायित्व पर लगातार चार बार रहा हूं, अब बदल दो। एक व्यक्ति ही ज्यादा वक्त दायित्व निभाए, ऐसा नहीं है। विभिन्न व्यक्ति आने चाहिए। नई-नई बातें आती रहती हंै। कल्पना आती रहती है। तो इसलिए बदलना पड़ता है। संघ में व्यक्तिवाद नहीं है, इस बात को लोग नहीं जानते। व्यक्ति का महत्व है। प्रत्येक व्यक्ति की चिंता हम करते ही हैं, ख्याल रखते हैं, रखना भी चाहिए, लेकिन संगठन व्यक्तिवादी नहीं बनता।
संघ की प्रेरणा से अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे कार्यों का फलक बहुत बड़ा है। क्या यह फलक और विस्तृत होगा?
हो सकता है। संघ की प्रेरणा स्वयंसेवक में रहती है। स्वयंसेवक ही ऐसा करते हैं। संघ योजना नहीं बनाता। कार्य अच्छा चल रहा है तो प्रोत्साहन देते हैं। सहायता की आवश्यकता होती है तो सहायता करते हैं। विद्यार्थी परिषद गठित करने की संघ की कोई योजना नहीं थी। उस समय की परिस्थति में तरुणों ने सोचा और काम शुरू हो गया। एक ही समय में दो संगठन उत्तर में जम्मू-कश्मीर, पंजाब में नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन बनी तो उसी समय इधर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में विद्याथी परिषद। बाद में दोनों ने सोचा, हम दोनों स्वयंसेवकों के बनाए संगठन हैं और एक ही उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं फिर दो क्यों रहें? तब वे दोनों मिल गए। ऐसे विद्यार्थी परिषद शुरू हुई 1949 में। लेकिन उसमें पहला प्रचारक जो संघ ने दिया वह 1960 में। संघ केवल शाखा चलाएगा, बाकी काम स्वयंसेवक कर रहे हैं। स्वयंसेवकों को और कुछ काम करने लायक दिखेगा तो वे उसे शुरू करेंगे, ऐसे विस्तार होता जाएगा।
इतनी संस्थाओं के संवर्द्धन में ये सब काम कैसे करता है?
यह करना नहीं पड़ता, यह होता है। स्वयंसेवक का संस्कार, समवैचारिक व्यवहार, लक्ष्य-स्वयंसेवकत्व ये तीन बातें समान रही हैं। संघ केवल स्वयंसेवक स्वयंसेवक रहे इसकी चिंता करता है बाकी सब अपने आप होता है। और कोई प्रत्यक्ष संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं, लेकिन ये तीन बातें जिनमें हैं तो संघ उनके साथ समायोजित हो जाता है।
इस बार भारतीय भाषाओं को लेकर प्रस्ताव पारित हुआ है। मातृभाषा को लेकर पूर्व में भी एक प्रस्ताव पारित हुआ है। दोनों में क्या मूलभूत अंतर है और क्या साम्य है?
दोनों प्रस्ताव भाषा को लेकर हैं, भारतीय भाषाओं को लेकर हैं। लेकिन पहला प्रस्ताव मातृभाषा में शिक्षा से संबंधित है इसलिए शासकीय तंत्र से उसका अधिक संबंध है। यह प्रस्ताव भारत की भाषाओं, बोलियों और नीति तीनों से संबंधित हैं। यह ज्यादा समाज के व्यवहार से संबंधित हैं। नीति का कुछ हिस्सा तो आता है, उसका उल्लेख उसमें है लेकिन हम लोग अपनी भाषाओं का मान रखकर सब भाषाओं को मातृभाषा जैसे ही अपना मानें। अपनी भाषाओं में परस्पर व्यवहार करें। अपनी भाषाओं के ग्रंथों के पठन-पाठन की परंपरा से संबंधित सुझाव इसमें है। यह केवल सरकार के संदर्भ में नहीं है। मीडिया को भी हमने कहा है कि शुद्ध भाषा का उपयोग करो, भाषा का उपयोग शुद्धता से करो।
आज का संघ मैदान और शाखा के साथ ही दुनिया के संदर्भ में भी अपनी भूमिका देखता है। आपने दोनों दौर देखे हैं, कैसा अनुभव करते हैं?
यह तो होता ही है। हम तो साधन सुविधा के मामले में समाज से दस कदम पीछे रहते हुए भी साथ चलते हैं। समाज के प्रवाह में समाज के साथ चलते हैं। लेकिन जान-बूझकर उससे थोड़ा पीछे रहते हैं। साधन-सुविधा उपयोगी है। लेकिन इसका कुछ दुष्परिणाम भी है। इसलिए इसको एक मर्यादा में उपयोग करना चाहिए। ऐसा ही हम करते हैं। कार्य के लिए जो उपयुक्त है वह हम लेते हैं। यह होता रहा है पहले से। पहले संघ की स्थिति ऐसी थी कि हम पैदल घूमते थे, फिर वाहन दिया गया। हमने वह जमाना देखा है जब पूरे नागपुर में संघ के पास केवल एक ही गाड़ी थी जो कि गुरुजी के लिए उपयोग होती थी। बाकी उस गाड़ी में कोई जाता नहीं था। संघ के कार्यकर्ताओं में तीन-चार लोग थे जिनके पास अपनी कार थी, वही पुरानी एंबेसडर या फियेट। तीन-चार गाड़ियां थी। बुलेट मोटरसाइकिल वाले तीन चार स्वयंसेवक थे। वेस्पा स्कूटर उस समय आने लगा था, तो महाराष्टÑ सरकार के कोटे से दो स्कूटर हमको मिले थे, जिसमें एक कार्यकर्ता के पास और एक कार्यालय में रहता था। बाकी सब लोग साइकिल वाले थे। उस समय वाहन इतना प्रचलित भी नहीं था। समाज की स्थिति बदली तो स्वयंसेवकों के पास भी साधन आए। उनका उपयोग होने लगा। यह बिल्कुल स्वाभाविक है। हम इतनी चिंता जरूर करते हैं कि इसकी आदत न हो जाए, और इसके जो दुष्परिणाम हैं, वे न आ जाएं।
तकनीकी साधनों, सुविधाओं एप्स, सोशल मीडिया वगैरह को आप कैसे देखते हैं?
साधन है, उपयोगी है, उपयोग करना चाहिए किंतु मर्यादा में रहकर। संगठन के स्तर पर सुविधा के लिए एक सीमा तक तकनीकी साधनों का उपयोग किया जा सकता है। इन्हें प्रयोग करते हुए इनकी सीमाओं और नकारात्मक दुष्प्रभावोंको समझना जरूरी है। यह आपको आत्मकेंद्रित और अहंकारी बना सकते हैं। सोशल मीडिया का स्वरूप कुछ ऐसा हो गया है कि बस ‘मैं और मेरा’! यानी ‘मैं’ हर बात पर मत व्यक्त करता हूं। ‘मैं’ एक समूह का एक अंग हूं किंतु समूह के लिए रुकने की भी आवश्यकता नहीं है! फट से ‘मैं’ सोशल मीडिया में पोस्ट भेज देता हूं। कभी-कभी उसके कारण कई बार हटाना पड़ता है। ऐसा सबके साथ होता होगा। फेसबुक तो बिल्कुल है ही ‘फेस’ और यह उसका दुष्परिणाम है। यह आत्मकेंद्रितता को बढ़ाने वाला भाग है। संघ का फेसबुक पेज है, मेरा नहीं है। संघ का ट्विटर हैंडल है, मेरा नहीं है.. और न कभी होगा। वह राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वालों के पास होता है, क्योंकि वहां उनकी अधिक उपयोगिता होती है। लेकिन उनको भी उपयोग करते समय सावधानी बरतनी पड़ती है। इसका उपयोग करें पर इसके आदी न बनें। मर्यादा में रहते हुए उसके साथ चलें।
संघ पहले शाखा संगठन और सांगठनिक बिंदुओं पर ज्यादा केंद्रित दिखता था, अब शाखाओं में सामाजिक प्रश्नों को विस्तार से लिया जाता है। क्या संघ अब बदल रहा है?
यह परिवर्तन नहीं है, यह अभिव्यक्ति है। जिसको ठेंगड़ी जी ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहते थे।
विजेत्री च न: संहता कार्यशक्तिर् , विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥
यह काम संघ का है, राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ इतना ही काम करता है। लेकिन स्वयंसेवक समूह के रूप में एक है और व्यक्तिगत रूप में संघ का घटक बनकर कार्य करता है। प्रामाणिकता से, बुद्धि से, तन-मन-धन से, इसलिए अपने पवित्र मन से ये सब करता है। पहले भी करता था। लेकिन पहले हम बहुत थोड़े थे। हम जो करते थे उस पर ध्यान नहीं जाता था। पहले भी राष्टÑीय विपदाओं के समय राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने काम किया है। डॉ. साहब के समय रामटेक की यात्रा की अव्यवस्था को सुधारने का काम 1926 में स्वयंसेवकों ने किया, तब से यह चल रहा है। तब ध्यान नहीं जाता था। आज संघ बड़ा हो गया है तो संघ के स्वयंसेवक क्या कर रहे हैं, उस पर ध्यान जाता है। शाखाओं में हम बताते हैं। अब अपनी ताकत ऐसी है कि एक शाखा गांव या शहर में लगती है। उस गांव या शहर के लोग शाखा को अपना मानते हैं। अच्छा मानते हैं। अपेक्षा करते हैं कि संघ उन्हें पूरा करे। अब ताकत है इसलिए कर सकते हैं। क्योंकि संघ की बीजरूप में कल्पना उसी रूप में है।
सज्जन व्यक्ति क्या है, उसका उदाहरण डॉ. हेडगेवार देते थे कि जो घर से आॅफिस के लिए निकलता है सिर झुकाकर और शाम को पांच बजे ठीक से वापस आ जाता है। अपने घर के बाहर किसी के चक्कर में नहीं पड़ता, उसे समाज सज्जन मानता है। पर वास्तव में, सज्जन तो वह होता है जो समाज की चिंता करता है। अपने घर के बाहर क्या होता है, उसका ध्यान रखता है। यह डॉ. हेडगेवार का स्वयं का उदाहरण है। लेकिन इस सब को करने की स्थिति उस समय नहीं थी। आज हम इसको करने की स्थिति में हैं इसलिए कर रहे हैं।
इस बार प्रतिनिधि सभा में एक बहुत बड़ा बदलाव हुआ है। चार के स्थान पर छह सह सरकार्यवाह! यह काफी बड़ा बदलाव है।
यह संघ कार्य विस्तार का परिणाम है। शाखा और संघ की रचना बहुत विस्तृत हो गयी है। संघ कार्य मिलने पर आधारित है। मिलने-जुलने के लिए एक व्यक्ति के पास पहले समय काफी रहता था। संघ बढ़ने लगा तो शारीरिक प्रमुख, बौद्धिक प्रमुख आदि हुए। बढ़ते कार्य के आयाम भी बढ़ते हैं। उसके लिए लोग देने पड़ते हैं और मिलने-जुलने की एक संख्या रखनी पड़ती है। जिसके साठ लाख तक स्वयंसेवक हों और प्रदेशों के प्रत्येक खंड में लगभग पहुंच गया है अब मंडल तक जाने की बात कर रहा हो, ऐसे संगठन को संभालने के लिए ऊपर कितने लोग चाहिए, ये तो तय करना ही पड़ेगा। बाकी संगठन अपना क्रियाकलाप स्वतंत्र रूप से स्वयं चलाते हैं, लेकिन उनसे संपर्क करने के लिए मिलना-जुलना रहता है, इस सब कार्य के लिए ज्यादा लोग चाहिए। इसलिए सहसरकार्यवाहों की संख्या बढ़ी है। सरसंघचालक की संख्या नहीं बढ़ सकती, सरकार्यवाह की संख्या नहीं बढ़ सकती। हां, सह सरकार्यवाहों की संख्या बढ़ सकती है। कल और कोई आवश्यकता पड़ी तो भिन्न प्रकार की रचना करेंगे। पर अभी तो वही चल रही है। तो हमने सहसरकार्यवाहों की संख्या बढ़ाई जिनके गौर करने के अलग अलग बिंदु होंगे।
गौर करने के इन्हीं बिंदुओं में त्रिपुरा भी जुड़ा है। त्रिपुरा को अलग प्रांत के तौर पर चिन्हित करने का कोई विशेष कारण है?
कोई विशेष कारण नहीं है। सरकार जैसे भौगोलिक क्षेत्र और प्रशासकीय सुविधा की दृष्टि से देखती है, हमारे कार्य के संदर्भ में देखा जाता है कि लोगों का जाना-आना कहां ज्यादा है। लोगों की परस्पर प्रकृति कितनी किससे मिलती है। इसी दृष्टि से हमारे प्रांत बनते हैं। जैसे अरुणाचल है। अरुणाचल का सारा जन व्यापार अरुणाचल में केंद्रित है। तो त्रिपुरा एक अलग प्रांत है ही, प्रकृति से, तो अलग कर ही दिया उसे हमने। चुनाव तो अभी हुए, इसे अलग प्रांत बनाने के बारे में हम दो साल पहले से विचार कर रहे थे। गोवा अलग राज्य है और संघ दृष्टि से वह कोंकण प्रांत में है। विदर्भ अलग राज्य नहीं है पर वह हमारी रचना में अलग प्रांत है। इसी तरह त्रिपुरा हमारी दृष्टि से एक अलग प्रांत बन गया है। हमारे कार्य की वह स्थिति वहां आ गयी। अब वहां एक टीम हो सकती है जो वहां की बातों को संभाल सके।
भारत विश्व का सबसे युवा देश है और सबसे ज्यादा युवा अगर किसी संगठन की तरफ आकर्षित हो रहे हैं तो वह है संघ। इतना बड़ा मानव संसाधन संघ की ओर आकर्षित हो रहा है। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
युवा संघ की ओर आकर्षित हो रहे हैं, तो हम उनको साथ लाएंगे और उनको तैयार करेंगे। उनकी रुचि-क्षमता के अनुसार उनको देशहित में लगाएंगे। संघ को अन्यान्य कामों के लिए नई पीढ़ी की आवश्यकता तो रहती है। वे संघ में आएंगे, संघ से परिचित होंगे, संघ से अनुभव लेंगे। अनुभव लेने के बाद उनको लगेगा कि यह ठीक है। साथ-साथ उनकी सक्रियता का भी ध्यान रखकर उनको तैयार करेंगे। यह होने वाला है।
आज के परिदृश्य में राजनीति दो प्रकार से हिन्दुत्व का चित्रण कर रही है, एक है आक्रामक हिन्दुत्व और दूसरा जो वास्तव में हिन्दुत्व है। राजनीतिक परिदृश्य में इन दोनों में अंतर को कैसे देखते हैं?
हम एक ही हिन्दुत्व को मानते हैं। और जिसे मानते हैं उसे मैंने मेरठ में राष्टÑोदय समागम के भाषण में स्पष्ट किया है। हिन्दुत्व यानी हम उसमें श्रद्धा रखकर चलते हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, शौच, स्वाध्याय, संतोष और जो ईश्वर को मानते हैं उनके लिए ‘ईश्वर प्रणिधान’। जो ईश्वर को नहीं मानते हैं उनके लिए ‘सत्य प्रणिधान’।
महात्मा गांधी कहते थे, सत्य का नाम हिन्दुत्व है। वही जो हिन्दुत्व के बारे में गांधीजी ने कहा है, जो विवेकानंद जी ने कहा है, जो सुभाष बाबू ने कहा है, जो कविवर रविन्द्रनाथ ने कहा है, जो डॉ. आंबेडकर ने कहा है, हिन्दू समाज के बारे में नहीं, हिन्दुत्व के बारे में। वही हिन्दुत्व है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति कब और कैसे होगी, यह तो व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समय हिन्दू शब्द नहीं था लेकिन जो हिन्दुत्व है, वही है। वह चलता आ रहा है, उसी का नाम हिन्दुत्व पड़ा। वे हिन्दू थे। सब मर्यादाएं तोड़ने वाले कृष्ण उसी हिन्दुत्व के आधार पर जी रहे थे। परशुराम-कितना बड़ा संहार करने वाले और करुणावतार, दोनों में उनकी जो परिस्थति थी और उनको जो अभिव्यक्ति मिली थी, उनको जो समाज में देना था वह उन्होंने दिया। शिवाजी महाराज ने मिर्जा राजा का सम्मान रखा। वे भी हिन्दुत्व का आचरण कर रहे थे।
इसलिए हिन्दुत्व एक ही है। किसी के देखने के नजरिए से हिन्दुत्व का प्रकार अलग नहीं कर सकते। मैं सत्य को मानता हूं और अहिंसा को भी मानता हूं और मुझे ही खत्म करने के लिए कोई आए और मेरे मरने से वह सत्य भी मरने वाला है और अहिंसा भी मरने वाली है, उसका नाम लेने वाला कोई बचेगा नहीं तो उसको बचाने के लिए मुझे लड़ना पड़ेगा। लड़ना या नहीं लड़ना, यह हिन्दुत्व नहीं है। सत्य, अहिंसा के लिए जीना या मरना। सत्य, अहिंसा के लिए लड़ना अथवा सहन करना, यह हिन्दुत्व है। कब सहन करना, कब नहीं करना किसी व्यक्ति का निर्णय हो सकता है। वह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। लेकिन गलत निर्णय करके वह लड़े तो उसके लड़ने को हिन्दुत्व नहीं कह सकते। गलत निर्णय करके वह चुप रहे तो उसके चुप रहने को आप हिन्दुत्व नहीं कह सकते। लेकिन जिन मूल्यों के आधार पर उसने निर्णय लिया वह मूल्य, वह तत्व, हिन्दुत्व है। ये जो बातें चलती हैं कि स्वामी विवेकानंद का हिन्दुत्व और संघ वालों का हिन्दुत्व, कट्टर हिन्दुत्व और सरल हिन्दुत्व। तत्व का नहीं, स्वभाव आदमी का होता है। कट्टर आदमी होता है। सरल आदमी होता है। ये भ्रम पैदा करने के लिए की जाने वाली तोड़-मरोड़ है, क्योंकि हिन्दुत्व की ओर आकर्षण बढ़ रहा है। दुनिया में बढ़ रहा और अपने देश में भी बढ़ रहा है। उसका लाभ हिन्दुत्व के गौरवान्वित होने से अपने आप हो रहा है। वह न हो इसलिए लोग उसमें मतभेद उत्पन्न करना चाहते हैं। हम हिन्दू के नाते किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते। किसी को पराया नहीं मानते। लेकिन उस हिन्दुत्व की रक्षा के लिए हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज का संरक्षण हमको करना ही पड़ेगा। अब संरक्षण करने में समझाना भी पड़ता है। लड़ना पड़ेगा तो लड़ेंगे भी। हमारा लड़ना हिन्दुत्व नहीं है। हमारा समझाना हिन्दुत्व नहीं है। जिन बातों को लेकर हम चल रहे हैं उसके आधार पर अनुमान करके निर्णय करते हैं। वह मूल ही होता है। एक ही है, सर्वत्र एक ही है। और इसलिए मैंने मेरठ में कहा कि हिन्दू अब कट्टर बनेगा। इसका मतलब है हिन्दू अधिक उदार बनेगा। हिन्दू कट्टर बनेगा का मतलब ऐसे है कि महात्मा गांधी कट्टर हिन्दू थे और उन्होंने हरिजन में कहा भी है-मैं कट्टर सनातनी हिन्दू हूं। उन्होंने उसी अर्थ में कहा कि आप मुझे क्या कह रहे हो, मैं तो हिन्दुत्व का पूरा पालन कर रहा हूं। अब हिन्दुत्व में हिन्दुत्व का कैसा पालन करना, वह तो व्यक्तिगत निर्णय है। हिन्दुत्व में फर्क नहीं होता। आप यह कह सकते हैं कि फलां हिन्दुत्व को गलत समझ रहे हैं। आप कहेंगे कि मैं सही हूं, वह गलत है। इनका हिन्दुत्व, उनका हिन्दुत्व, यह सब कहने का कोई मतलब नहीं है। इसका निर्णय समाज करेगा और कर रहा है। समाज को मालूम है, हिन्दुत्व क्या है।
जब भी अनुकूलता की बात आती है तो उसके साथ कुछ चुनौती भी आ जाती है। आज संघ के बढ़ते हुए परिदृश्य में इस चुनौती को आप कैसे देखते हैं? इस संदर्भ में स्वयंसेवकों को संदेश के रूप में आप क्या कहेंगे?
अनुकूलता में असावधानी बढ़ती है। मनुष्य पर इसका स्वाभाविक परिणाम होता है। इस स्वाभाविकता से ऊपर उठकर अनुकूलता में भी सावधान रहना है। हम जो हैं वह बने रहें। आठवीं कक्षा में अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में एक कहानी थी-अयाज नाम का एक दीवान था जो बहुत कर्तृत्व संपन्न विश्वासपात्र था। राजा का उस पर भरोसा था। जैसे आज होता है वैसे उस वक्त भी दरबार में जलने वाले लोग थे। षड्यंत्र भी करते थे। किसी ने राजा के कान में भर दिया कि ये रात को उठकर बाहर नगर के जंगल में जाता है। वहां क्या करता है, पता नहीं, पर रोज जाता है। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था, पर रोज-रोज बात सामने आ रही थी। राजा ने सोचा-जरा मैं भी देख लूं, यह क्या है। वेष बदलकर राजा उसके घर के पास रुका रहा। दीवान रात को बारह बजे निकला तो राजा ने उसका पीछा किया। वह जंगल में गया चोर दरवाजे से। एक खंडहरनुमा घर था जंगल में। सुनसान, अकेला। उसमें वह अंदर गया। उस घर की दीवारें वगैरह गिरी हुई थीं। छत नहीं थी। दीवान एक कमरे में गया और दो मिनट के बाद बाहर आया। तब राजा ने उसे पकड़ा और पूछा-बताओ, तुम यहां क्या करते हो। मुझे इतना विश्वास है तुम पर। यहां तुम क्या करने आते हो? मैंने झूठा विश्वास नहीं किया, अपनी आंखों से देखा है। उसने कहा-महाराज, मैं जो करता हूं आप भी चलकर देखिए उस कमरे में। दीवान के हाथ में मशाल थी। राजा बोला, ठीक है। उस खंडहरनुमा कमरे में एक छोटा-सा संदूक था। उसने उसको खोला, और राजा की तरफ देखकर बोला-महाराज आप भी देखिए। संदूक में फटा पुराना एक कोट था। उसने ढक्कन बंद किया और कहा-महाराज, मैं यहां रोज आता हूं और इसको देखता हूं। फिर वापस चला जाता हूं। राजा ने कहा-यह क्या? यह तो तुम्हारा फटा-पुराना कोट है। उसमें हीरे- मोती कुछ भी नहीं हैं। दीवान बोला-महाराज, मैं जब इस नगरी में पहली बार आया था तो मेरे पास संपत्ति के नाम पर यह ही था। आपका कुछ गुण-ग्राह्य स्वभाव और कुछ मेरा अपना कुछ, उसके आधार पर मैं यहां पहुंचा हूं। अब ऐसे कोट मैं देखता भी नहीं। इतने सुंदर वस्त्र मैं पहनता हूं। मेरा मान बढ़ा है। ऐसे में मुझे विस्मरण न हो कि एक दिन मैं ऐसा था। वहां से यहां तक मैं अपने गुणों के भरोसे आया हूं। उन गुणों का मुझे विस्मरण न हो इसलिए उस स्थिति का स्मरण करा देने वाले इस कोट को मैं रोज देखने आता हूं। अनुकूलता में इसका ध्यान रखना पड़ता है। अनुकूलता अपेक्षा बढ़ाती है। अपना स्तर, अपना कर्तृत्व, समझदारी अपना सब कुछ बढ़ाना पड़ता है। अपने मन को भी उतना विशाल करना पड़ता है। अनुकूलता के चलते अपने स्तर को बढ़ाना पड़ता है और अनुकूलता के चलते ही अपने स्तर को कायम भी रखना पड़ता है। याद करना पड़ता है कि किन गुणों के कारण यहां तक आए हैं। उन सब गुणों को कायम रखकर चलना पड़ता है। बस, यही संदेश है।
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