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फिदायीन हमले से लेकर पत्थरबाजोंं से निपटना सेना एवं जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों की रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा है। इस दौरान न केवल उनको अराजक तत्वों से मोर्चा लेना होता है बल्कि कई बार जान की बाजी भी लगानी पड़ती है।लेकिन इस सबके बावजूद उनका देश के लिए डटे रहने का हौसला प्रशासन में जान फूंकने का काम करता है
अश्वनी मिश्र
कश्मीर में पुलिसकर्मी उस दोधारी तलवार पर चलते हैं, जहां एक तरह से उन्हें हर दिन आतंकियों एवं घाटी को अशांत करने वाले अराजक तत्वों से निबटना पड़ता है तो दूसरी तरफ कानून-व्यवस्था, प्रमुख व्यक्तियों की सुरक्षा, यातायात व्यवस्था, अदालती कार्रवाई में हिस्सा लेना एवं खुफिया सूचनाओं को एकत्र करने की अहम जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर होती है। लिहाजा इस दौरान चुनौतियां और खतरे इतने अधिक होते हैं कि जरा सा चूके कि जान गई। डर का आलम यह होता है कि ड्यूटी खत्म होने के बाद पुलिसकर्मी घर लौटते समय अपनी वर्दी बैग में डालकर सादे कपड़ों में जाते हैं, ताकि उनकी पहचान छिपी रहे और वे जिहादियों का निशाना बनने से बच सकें। इतने डर और खतरे के बावजूद घाटी सहित राज्य के लोग न केवल पुलिस की नौकरी में भर्ती होते हैं बल्कि हर दिन देश के लिए कुर्बानियां देते हैं। बीते कुछ समय में राज्य के हालात पर नजर डालें तो पुलिस के जवान आतंकियों के निशाने पर रहे हैं। दर्जनों जवानों की जान गई हैं। लेकिन इस सबके बाद भी उनके परिजन अपने बेटे, पति, भाई को देश सेवा में भेजने को उत्सुक हैं। यकीनन शहीद परिवारों का यह हौसला राज्य के प्रशासन में जान फूंकने का काम तो करता है लेकिन दूसरी तरफ निशाना बन रहे जवान चिंता भी बढ़ाते हैं।
गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस की कुल तादाद 1 लाख 20 हजार है। ये जवान कठुआ से लेकर उरी तक और करगिल से लेकर लद्दाख तक सुरक्षा में तैनात हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले तीन दशकों में आतंकियों से लड़ते हुए 1,600 पुलिसकर्मी शहीद हुए हैं। इतने खतरे के बावजूद वे न केवल मुस्तैदी से अपना कार्य करते हैं बल्कि आतंकरोधी अभियानों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
क्या कहते हैं अधिकारी
घाटी में तैनात जम्मू-कश्मीर के पुलिस अधिकारी मानते हैं कि उनके सामने एक नहीं, कई मोर्चों पर चुनौतियां हैं। राज्य पुलिस आतंक-रोधी आॅपरेशन में भी हिस्सा लेती है तो पत्थरबाजों के साथ भी आमने-सामने लड़ती है। इसमें अधिकतर पुलिसकर्मी स्थानीय या फिर आस-पास के क्षेत्रों से होते हैं। ऐसे में पहचान होने का खतरा पूरा रहता है। कई बार इसी कारण उन्हें जोखिम भी उठाना पड़ता है। नाम न छापने की शर्त पर राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर पुलिस में जो लोग काम करते हैं वे इसी राज्य के निवासी हैं। बहुत से तो अपने जिले और थोड़ी-थोड़ी दूर पर ही तैनात हैं। कई क्षेत्रों में जहां आतंकियों का दबदबा है, वहां के पुलिसकर्मी अपने घर जाने से कतराते रहते हैं या फिर कम ही जाते हैं। क्योंकि उन्हें आशंका रहती है कि अगर घर गए और स्थानीय आतंकियों को इसकी भनक लग गई तो वे क्या करेंगे, यह सब जानते हैं। इसलिए वे बड़ी सावधानी बरतते हैं।’’ जम्मू-कश्मीर पुलिस के आईजी स्तर के एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘‘घाटी में तो पग-पग पर खतरे की स्थिति है। कब क्या हो जाए किसी को कुछ नहीं पता। यानी पुलिस के सामने बहुत सी चुनौतियां हैं और इनसे निबटना हमारे लिए बड़ी बात होती है। यहां न सिर्फ कानून- व्यवस्था ठीक रखने की जिम्मेदारी है, बल्कि आतंकवादियों की शह पर जो लोग काम करते हैं, उनकी प्रत्येक हरकत पर निगरानी रखना और उनके किसी गलत कदम का जवाब भी देना हमारे काम का हिस्सा है। हमारे जवान सोपोर से लेकर शोपियां तक, अनंतनाग से लेकर उरी तक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इस दौरान वे परिवार से लेकर अपनी परवाह नहीं करते। बस आतंक के खात्मे के लिए हरदम तैयार रहते हैं। यकीनन यह सही है कि कुछ वर्षों से आतंकी घाटी के पुलिसकर्मियों को निशाना बनाकर अवाम में खौफ भरने का काम करते हैं। कई बार अवाम उनके डर से हम लोगों से दूरी भी बनाती है। इससे पुलिस को समस्या होती है। क्योंकि घाटी में सब कुछ सूचनातंत्र पर निर्भर है। खबर मिलना बंद यानी गड़बड़ी होने की आशंका ज्यादा।’’ वे आगे बताते हैं कि तमाम खतरे के बावजूद आॅपरेशन आॅल आउट ने उनकी कमर तोड़ रखी है। ऐसे में इस समय उनका अगर कोई सबसे बड़ा दुश्मन है तो वह जेकेपी ही है। निशाने पर तो हम हैं ही।
देश के लिए देते रहेंगे प्राण
जम्मू में सुजवां में सेना के शिविर पर आतंकी हमले में शहीद हुए कुपवाड़ा कस्बे के बटपोरा में हवलदार हबीबुल्लाह कुरैशी के घर में मातम पसरा है। पूरा परिवार कुरैशी के जाने के बाद से दुखी है। उनके पिता अमानुल्लाह कुरैशी मीडियाकर्मियों से बात करते हुए कहते हैं कि बेटे की मौत के एक दिन पहले फोन से उससे बात हुई थी। उसने घर में सबकी खैरियत पूछी थी। हमारे तो घर को वही चलाता था। पर अब वह सहारा उठ गया। मैंने बड़ी गरीबी उठाकर उसे पढ़ाया। वे कहते हैं, ‘‘कश्मीर में हाल के दिनों में तनाव कुछ ज्यादा बढ़ा है। आतंकी पुलिस और सेना को अपना निशाना बना रहे हैं। जिसकी वजह से यहां हर दिन कोई न कोई मारा जा रहा है।’’ हबीबुल्लाह की बेटी नुसरत( बदला हुआ नाम) कहती है, ‘‘हमने कभी नहीं सोचा था कि हमें अब्बा के बारे में इतनी बुरी खबर सुननी पड़ेगी। हमारे अब्बा को आतंकियों ने मार दिया।’’ कुपवाड़ा के रहने वाले मजीद ने बीते वर्ष में पुलिस में नौकरी कर रहे अपने दो साथियों को खोया है। आतंकी हमलों में साथियों की मौत पर दुखी मजीद कहते हैं, ‘‘जिस तरह से बीते कुछ सालों में जम्मू-कश्मीर पुलिस के विशेष दस्ते ने आतंकियों के खिलाफ आॅपरेशन में बढ़-चढ़कर मोर्चा लेना शुरू किया है तभी से पुलिस के जवान आतंकियों के निशाने पर आने शुरू हुए हैं। पाकिस्तान नहीं चाहता कि कश्मीर शांत रहे। वह इस मुद्दे को जिंदा रखने के लिए निर्दोष लोगों की हत्या करा रहा है।’’ कुपवाड़ा से 25 किमी दूर मैदानपोरा है। सुजवां हमले में यहीं के मोहम्मद अशरफ मीर शहीद हो गए अशरफ सेना में जूनियर अफसर थे। उनके पिता गुलाम मोहिउद्दीन मीर बेटे के जाने के बाद से बदहवास हैं। मोहिउद्दीन मीर रुधे गले से कहते हैं, ‘‘एक बाप ही बेटे के जाने का दर्द समझ सकता है। बड़ी कठिनाई में उसे पाला था। वह पूरे परिवार को चलाता था। मैंने अशरफ के लिए बड़ी मुश्किलें उठाई हैं। लेकिन फख्र है कि वह देश के लिए कुर्बान हुआ।’’ अशरफ दो बेटों और एक बेटी के पिता थे। उनके दूसरे भाई भी भारतीय सेना में ही हैं।
घाटी में पुलिसकर्मी होना कितना कठिन
देश के अन्य राज्यों की पुलिस और जम्मू-कश्मीर पुलिस की कार्यशैली एवं परिस्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। इस मामले पर राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि यहां का पुलिसकर्मी बड़ी ही कठिन परिस्थिति में नौकरी करता है। राज्य में आतंकरोधी आॅपरेशन में सूचना से लेकर जमीन पर लड़ने का काम यही जवान करते हैं। इन वजहों से वे आतंकियों का निशाना भी बनते हैं। बीच में राज्य सरकार की नीतियों के चलते यह काम पुलिस ने छोड़ रखा था। लेकिन आॅपरेशन आॅल आउट शुरू होने के पहले अनंतनाग में एक पुलिस गाड़ी को उड़ा दिया गया जिसमें एसएचओ समेत कई पुलिसकर्मी शहीद हो गए। दूसरी घटना, डीएसपी अयूब पंडित को मार दिया गया। इन घटनाओं के बाद से आतंकरोधी अभियानों को बल मिला। आज पुलिसकर्मी आतंकरोधी अभियानों में बढ-चढ़कर काम कर रहे हैं और आॅपरेशन आॅल आउट की सफलता इसका उदाहरण है।’’ अनंतनाग में तैनात रफीक खान (परिवर्तित नाम) को पुलिस में नौकरी करते एक दशक से अधिक समय हो गया है। आतंकी हमले से लेकर पत्थरबाजों से निबटना उनकी रोजमर्रा की जिदंगी का हिस्सा है। वे कहते हैं कि हमें तो यहां अपनी पहचान ही छिपानी पड़ती है। घर जाओ तो कुछ और बाहर रहो तो कुछ और। दूसरी तरफ सबसे बड़ी चुनौती होती है दिन में हम लोग जिनके साथ लड़ते हैं, शाम को हमें उन्हीं की बस्तियों में उनके साथ रहना पड़ता है। ऐसे में किस समय कौन हमला बोल दे, पता नहीं। हंदवाड़ा में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं,‘‘मैं जब भी कहीं परिवार के साथ जाता हूं तो बचता रहता हूं कि मुझे कोई न पहचान पाए। कई बार कोई पूछता भी है कि आप पुलिस में हैं तो मेरा जवाब न ही होता है। इसके पीछे मन में होता है कि पूछने वाला कहीं किसी आतंकी सगठन से तो नहीं। क्योंकि यहां बहुत कुछ संदिग्ध होता है तो बहुत ही फूंक-फूंककर कदम रखना पड़ता है।’’
प्रहार करने की जरूरत
हाल के आंकड़ों को देखें तो 1 जनवरी से 20 फरवरी तक अलग-अलग जगहों पर हुए आतंकी हमलों में 26 जवानों ने शहादत दी है। आए दिन होते इन हमलों पर घाटी के लोग कहते हैं कि आतंकवाद पर जब तक कड़ी कार्रवाई नहीं की जाएगी तब तक पाक प्रायोजित आतंकी ऐसे ही खूनी खेल खेलते रहेंगे। कुपवाड़ा जिले के विलगाम के रहने वाले परवेज अहमद मीर की मौत सोपोर में एक आईडी धमाके में गत 6 जनवरी को हो गई थी। इस धमाके में 4 जवान भी शहीद हुए परवेज मीर के घर की एक अहम महिला सदस्य नाम न छापने की शर्त पर बड़े ही दुखी मन से कहती हैं कि आतंकी पता नहीं खून-खराबा करके क्या बताना चाहते हैं। घाटी में जो अवाम की सुरक्षा करते हैं उनको ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। यह किसी न किसी के इशारे पर तो हो रहा है। फिर भी कोई कुछ नहीं बोलता। यहां दहशतगर्दों के खिलाफ होने का मतलब है मौत। लेकिन आज यहां का अवाम इनके मंसूबों को जानने लगा है।’’ वे रूंधे गले से कहती हैं,‘‘अभी उनकी शादी को पांच साल ही हुए थे। एक 4 साल का बेटा है। किसी तरह से अपने परिवार को पाल रहे थे। लेकिन अब उनके जाने के बाद संकट ही संकट है। पता नहीं कब तक यह खून-खराबा चलता रहेगा।’’ इतना कहने के बाद वे कुछ भी बोलने से इनकार कर देती हैं। उनकी दबी आवाज कहीं न कहीं इशारा करती है कि वे बताना तो बहुत कुछ चाह रही हैं लेकिन कोई अज्ञात भय है जो ऐसा करने से उन्हें रोक रहा है। ऐसे ही हंदवाड़ा के नजीर अहमद मीर की 2016 में श्रीनगर के दड़ीबाग पुलिस स्टेशन के हमले में मौत हो गई थी। उनके परिजन कहते हैं कि आतंकी पाकिस्तान के इशारों पर घाटी को अशांत कर रहे हैं। ऐसे में उनके इस काम को जो भी रोकने का काम करता है वह उनका दुश्मन है। श्रीनगर में हुए कुछ समय पहले के एक हमले में अपने पिता को खोने वाले हंदवाड़ा के आरिफ कहते हैं कि कुल मिलाकर एक बात समझने वाली है कि जो भी घाटी में देशप्रेम की बात करेगा,अपने को हिन्दुस्तानी कहेगा, वह आतंकियों की गोली का शिकार बनेगा।
बौखलाया पाकिस्तान
पिछले साल उरी हमले के बाद सेना के विशेष दस्ते ने सीमा पार स्थित आतंकी शिविरों को सर्जिकल स्ट्राइक करके नेस्तनाबूद किया था, तब से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। ऐसे में वह भारत को नुकसान पहुंचाने और साजिश रचने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता। जम्मू-कश्मीर पर नजर रखने वाले जानकार मानते हैं कि सुरक्षाबल जिस तरह आतंक की रीढ़ तोड़ने का काम कर रहे हैं, उससे आतंकी संगठन और उनका आका पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। उसी का परिणाम नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम उल्लंघन सहित राज्य में बढ़े हुए आतंकी हमले हैं। आकंड़े बताते हैं कि पाकिस्तान की ओर से नियंत्रण रेखा पर हर दिन औसतन 5-6 बार युद्ध विराम का उल्लंघन किया जाता है। पाकिस्तान सेना छोटे हथियारों से लेकर मोर्टार और यहां तक कि टैंकों से भी गोलाबारी करती है। क्योंकि इसी गोलाबारी की आड़ में वह आतंकवादियों की घुसपैठ कराती है। इस पूरे मामले पर लेफ्निेंट जनरल (सेवानिवृत्त) अजय कुमार सिंह कहते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को तूल देकर नियंत्रण रेखा सहित कश्मीर को गर्म रखना चाहता है। मान लो अगर सब कुछ ठीक हो जाए और कोई हमला वगैरह न हो तो वह कश्मीर को विवादास्पद कैसे बोलेगा। दूसरा कारण, आतंकियों को भारत में भेजने के लिए ‘कवर फायर’ देकर युद्ध विराम का उल्लंघन करता है। तीसरा, पाकिस्तान अपने यहां की अवाम को दिखाने के लिए भी इस तरीके की घटनाओं को अंजाम देता है। यह सच है कि इससे दोनों तरफ नुकसान होता है, क्योंकि दोनों देशों के लोगा सीमा तक बसे हैं। लेकिन जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं तो भारतीय फौज आम नागरिकों को लक्षित नहीं करती। वह केवल फौजी ठिकानों और आतंकी शिविरों पर ही हमला करती है, लेकिन पाकिस्तान ऐसा कुछ नहीं सोचता। वे हमारे आम नागरिकों को आसानी के साथ लक्षित करते हैं क्योंकि यह उनका सॉफ्ट टारगेट होते हैं। इससे आम नागरिकों को बड़ी हानि उठानी होती है। वे कहते हैं,‘‘सेना की जो रणनीति है, उस पर कभी भी सवालिया निशान नहीं लगाना चाहिए। मीडिया में जो हर घटना के बाद ‘करारा जवाब’ देने की बात की जाती है वह ठीक नहीं है। क्योंकि यह इस समस्या का हल नहीं है और न ही इससे कोई दीर्घकालिक रास्ता निकलेगा। इसके हल के लिए राजनयिक, आर्थिक एवं सेना तीनों जब साथ में काम करेंगे तब इसके परिणाम सामने आएंगे। जैसे अभी भारत की ओर से राजनयिक स्तर पर बड़ी अच्छी पहल हुई, जिसके तहत अमेरिका ने पाकिस्तान को नोटिस पर लेकर रखा है। संयुक्त राष्ट्र ने उनके यहां कुछ आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया है। ऐसा ही राजनयिक दबाव पाकिस्तान के ऊपर रखना पड़ेगा। यह सत्य है कि आज विश्व में पाकिस्तान के बारे में अधिकतर देश उसके असल रूप को जान रहे हैं। दूसरा, आर्थिक दबाव भी उस पर रखना पड़ेगा। हमारी ओर से उसे जो ‘पसंदीदा राष्ट्र’ का जो दर्जा दिया गया है, उसे खत्म करना होगा।
घाटी में पैर जमाने की कोशिश में जैश
आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद फिर से घाटी में सिर उठाने की कोशिश में हैं। हाल ही में सैन्य शिविरों पर उसके द्वारा किए गए हमले इसी की ओर इशारा करते हैं। कहीं न कहीं दबी जुबान से राज्य के बड़े पुलिस अधिकारी भी इस बात को मानते हैं। वे इस पर कहते हैं कि जब कोई दीया बुझने को होता है तो ज्यादा फड़फड़ाता है। कुछ यही हाल जैश का है। घाटी के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं,‘‘दिसंबर-जनवरी और फरवरी और मार्च का समय ऐसा होता है जब आतंकी हमले करने की कोशिश ज्यादा करते हैं। क्योंकि इस समय ठंड ज्यादा होती है। तो सुरक्षाकर्मी भी सिमटकर रहते हैं। जैसे शिविर के बाहर एक पुलिस दस्ता बाहर तैनात रखा जाता है, जो शिविर को सुरक्षा देने का काम करता है। अधिक ठंड की वजह से सुरक्षाकर्मी कभी-कभार इसमें ढील बरत देते हैं, क्योंकि वातावरण इस तरह का होता है। दूसरी तरफ आतंकियों पर उनके आकाओं का दबाव होता है, अपनी क्षमता का प्रदर्शन दिखाने का, जिसके कारण वह छोटे हमले से लेकर फिदायीन हमले करते हैं।’’ शिविरों पर आए दिन होते हमलों की चूक पर कहते हैं,‘‘अगर आतंकी किसी भी शिविर में घुसने में कामयाब हो गया तो इसे पूरी तरह से चूक ही माना जाता है। कई घटनाक्रमों में यह गौर किया गया है कि कहीं न चूक की वजह से ही आतंकी अपने मंसूबे में कामयाब हुए हैं।’’
कितने सुरक्षित शिविर!
जम्मू के सुजवां और उसके ठीक बाद श्रीनगर के करन नगर स्थिति सैन्य शिविर पर हमला होने के बाद सवाल उठता है कि रिहाइशी इलाकों में सेना के शिविर कितने सुरक्षित हैं? लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) अजय कुमार सिंह कहते हैं कि आप किसी भी जगह कितना भी घेरा डाल लीजिए लेकिन सौ फीसदी सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती। मान लीजिए अगर कोई अपनी जान देने के लिए तैयार है तो ऐसी परिस्थिति में उससे निबटना कठिन होता है। यकीनन आतंकी सेना और शिविरों को एक रणनीतिपूर्वक निशाना बना रहे हैं, क्योंकि इससे वह यह दिखाना चाहते हैं कि हमारी पहुंच सेना तक है। वे कहते हैं,‘‘इस विषय में कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना होगा। पहला, जो शिविर हैं उनकी सुरक्षा पुख्ता करनी होगी। इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक का सहारा लेना होगा। इस काम को समय रहते पूरा करना पड़ेगा। दूसरी बात, सुरक्षाबलों को फिदायीन हमले में थोड़ा मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता है। ऐसे में थोड़ा-बहुत नुकसान भी होता है। लेकिन नुकसान कम से कम हो इसके लिए सुरक्षाबलों को हरदम मुस्तैद रहना होगा और किसी भी कीमत पर शिविर के अंदर आतंकियों को आने से रोकना होगा।’’ वे आगे कहते हैं,‘‘कई बार हमले के बाद प्रमुख धारा का मीडिया उसे सनसनी खेज बना देता है कि सुरक्षाबलों पर एक गैर किस्म का दबाव पनप उठता है। इससे उनके काम में बाधा पड़ती है। मुझे लगता है कि मीडिया को इससे बचना चाहिए। क्योंकि सेना में कोई भी कार्य बड़ी सूझबूझ, धैर्य और पेशेवर तरीके से होता है। वह हर घटना का अपने तरीके से जवाब देती है। इसमें किसी को भी कोई शंका नहीं होनी चाहिए। हमारा अगर एक जवान शहीद होता है तो हम अपने हिसाब से उसका प्रतिकार करते हैं। इसलिए देश के लोगों को खासकर मीडिया के लोगों को इस पर कोई संदेह नहीं करना चाहिए।’’ बहरहाल, यह सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस की सक्रियता और अदम्य साहस का प्रतिफल ही है कि घाटी में आतंक की लौ फड़फड़ा रही है। कश्मीर में संयुक्त रूप से चलाए जा रहे आॅपरेशन आॅल आउट की सफलता इसका उदाहरण है। कई बार हमले में वीर जवान हताहत भी होते हैं लेकिन उनका हौसला आतंक को पस्त करता है। लेकिन इसके बीच एक सवाल का उत्तर गर्त में है कि आतंक को पालने-पोसने वाला पाकिस्तान कब तक घाटी को निशाना बनाकर निर्दोषों का रक्तबहाता रहेगा?
नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम का उल्लंघन
सीमा सुरक्षा बल सहित आम नागरिक
वर्ष शहीद घायल मृत्यु घायल
2015 11 26 16 71
2016 13 99 13 83
2017 19 72 12 79
2018 8 29 8 58
आंकड़े जनवरी तक के हंै। रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने लिखित जवाब में लोकसभा में बताया।
2014 583
2015 152
2016 228
2017 860
2018 240
हाल में हुए सैन्य शिविरों पर बड़े हमले
12 फरवरी, 2018 श्रीनगर में लश्कर के 2 आतंकियों ने हथियारों से भरे बैग लेकर सीआरपीएफ शिविर में घुसने की कोशिश की। असफल होने पर की फायरिंग। एक जवान शहीद दो आतंकी मार गिराये गए।
10 फरवरी, 2018 जम्मू स्थित सुजवां में सेना के शिविर को बनाया जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादियों ने निशाना। 7 सैनिक शहीद। जवाबी कार्रवाई में 4 आतंकियों को मार गिराया।
5 फरवरी, 2018 पुलवामा में सेना के शिविर पर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने फायरिंग की और ग्रेनेड से हमला किया।
1 जनवरी, 2018 पुलवामा में सीआरपीएफ शिविर पर हमला। 5 जवान शहीद, 2 पाकिस्तानी आतंकियों को मार गिराया।
1 दिसंबर, 2017 नगरोटा स्थित सैन्य शिविर पर आतंकी हमला। सेना के दो अधिकारी और पांच जवान शहीद। जवाबी कार्रवाई में तीन आतंकियों को किया ढेर।
31 दिसंबर, 2017 पुलवामा में दो आतंकियों ने सीआरपीएफ के प्रशिक्षण शिविर पर हमला किया। एक सुरक्षाकर्मी शहीद,दो घायल।
3 अक्तूबर, 2017 श्रीनगर हवाई अड्डे के पास सीमा सुरक्षा बल के शिविर पर आतंकियों ने हमला किया। 1 जवान शहीद, 3 आतंकी ढेर।
26 अगस्त, 2017 पुलवामा की पुलिस लाइन पर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने फिदायीन हमला बोला। 8 जवान शहीद। सेना ने 3 आतंकियों को मार गिराया।
12 अगस्त, 2017 कुपवाड़ा में सेना के शिविर पर आतंकी हमला। एक जवान घायल।
13 जून, 2017 पुलवामा में सीआरपीएफ के शिविर पर आतंकियों ने ग्रेनेड से हमला किया। 9 जवान घायल।
27 अप्रैल, 2017 कुपवाड़ा के पंजगाम में आतंकियों ने सैन्य शिविर में ‘आर्टिलरी बेस’ को बनाया निशाना। कैप्टन समेत तीन जवान शहीद। दो आतंकी मारे गए।
9 जनवरी, 2017 जम्मू के अखनूर सेक्टर के जीआरईएफ शिविर पर आतंकियों ने धावा बोला। हमले में तीन नागरिकों की मौत।
29 नवंबर, 2016 जम्मू के नगरोटा में 166 आर्मी यूनिट के परिसर में आतंकवादियों ने हमला किया। 2 अधिकारी समेत 7 सैनिक शहीद।
6 जनवरी, 2016 अनंतनाग जिले में सीआरपीएफ के शिविर पर आतंकी हमला।
11 सितंबर,2016 पठानकोट एअरबेस की तरह पुंछ में हमला किया। 6 सुरक्षाकर्मी शहीद, 4 आतंकी मारे गए।
18 सितंबर,2016 उड़ी में सेना के शिविर पर हमला। 18 जवान शहीद। 4 आतंकियों को किया ढेर।
19 मार्च, 2015 आतंकियों ने कठुआ जिले के एक पुलिस थाने पर हमला किया, जिसमें 4 लोगों की जान चली गई एवं 12 लोग घायल हुए।
5 दिसंबर,2014 बारामुला के उड़ी सेक्टर में मोहारा में सेना के 31 फील्ड रेजिमेंट पर हमला। एक अधिकारी समेत 7 जवान शहीद।
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