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जम्मू -कश्मीर और पूर्वोत्तर तक भाजपा की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव का कहना है कि पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकार बनने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकासपरक नीतियों को जाता है। त्रिपुरा में वामपंथ की पराजय हमारी वैचारिक जीत है। त्रिपुरा की विजय उन कार्यकर्ताओं की विजय है, जो हिंसा और हत्या के राजनीतिक वातावरण में भी अपनी विचारधारा पर अडिग रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में जब उन्हें राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी गई तो किसी ने यह सोचा तक नहीं था कि वे सिर्फ चार साल में पार्टी के रणनीतिकार के रूप में उभर कर सामने आएंगे। पूर्वोत्तर में भाजपा
की सफलता के बाद पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश:-
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव परिणामों को आप कैसे देखते हैं?
नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा के नतीजे राजनीतिक दृष्टि से ऐतिहासिक हैं। त्रिपुरा के संबंध में कहूं तो वहां भाजपा की जीत क्रांतिकारी और ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इसलिए है कि भारत के इस क्षेत्र में कभी कांग्रेस का दबदबा होता था और आज पूर्वोत्तर में भाजपा है। पूर्वोत्तर में भाजपा के उदय के साथ ही त्रिपुरा में वामपंथ का सूर्य अस्त हो गया है। भाजपा को आमतौर पर हिन्दी क्षेत्र की पार्टी माना जाता था लेकिन पिछले करीब चार सालों में पूर्वोत्तर में भाजपा को लोगों ने स्वीकार किया है। उसने राजनीति को ही बदल कर रख दिया है। माता त्रिपुर सुंदरी का जो आशीर्वाद मिला है, उसी के चलते हम इस ऐतिहासिक सफलता को देख पा रहे हैं। इसमें प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की काफी मेहनत रही। उन्होंने चार-चार रैलियां कीं। खुद चुनाव की तैयारियों को मॉनीटर किया। भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने संगठन स्तर पर जो रणनीति बनाई, उसी का ही परिणाम है कि पूर्वोत्तर में अभूतपूर्व सफलता मिली है। तीनों राज्यों के नतीजे एक नई राजनीति की ओर इशारा करते हैं। इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ेगा।
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों की जीत का श्रेय आप किसे देंगे?
निश्चित रूप से यह राष्ट्रीय विचारों की जीत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, उनकी नीतियों और उनके पूर्वोत्तर के विकास का लक्ष्य जनता ने स्वीकारा है। भाजपा के एजेंडे में पूर्वोत्तर का विकास हमेशा से प्राथमिकता में रहा। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित जी ने संगठन विस्तार का जो लक्ष्य तैयार किया, उसमें पूर्वोत्तर में भाजपा की मजबूती प्राथमिकता में रही। सरकार और संगठन ने पूर्वोत्तर के विकास के लिए काम किया। लोगों का भरोसा जीता। इसलिए भाजपा ने एक के बाद एक पूर्वोत्तर में राज्यों को जीता। इसलिए यह संगठन की जीत है। यह हमारे कार्यकर्ताओं की जीत है। यह हमारी विचारधारा की जीत है। इसके लिए हमने कड़ी मेहनत की है। हमारे कार्यकर्ताओं ने अपना बलिदान तक दिया। त्रिपुरा की जीत के लिए प्रदेश अध्यक्ष विप्लव देब और राज्य के भाजपा प्रभारी सुनील देवधर ने कड़ी मेहनत की। देवधर ने यहां दो साल से ज्यादा समय तक रहकर संगठन को खड़ा किया। हेमंत बिस्वसरमा ने पर्याप्त समय देकर चुनाव संभाला।
इसे आप वैचारिक जीत के रूप में देख रहे हैं तो क्यों?
हमारे कार्यकर्ताओं ने हिंसा के बीच काम किया। असम में जिम्मेदारी संभालते हुए हेमंत बिस्वसरमा ने जिस तरह चुनाव की जिम्मेदारी संभाली, वह सराहनीय है। जनता ने 'चलो पलटाई' के नारे को स्वीकारा है। इसका नतीजा सामने है। वैचारिक या विचारधारा की बात मैं इसलिए कह रहा हंू, क्योंकि वामदलों से हमारा वैचारिक संघर्ष है और त्रिपुरा में हमने वामदलों को सीधे उनके गढ़ में वैचारिक चुनौती दी और उन्हें हराया। पूर्वोत्तर के लोगों ने एकमत से भाजपा के पक्ष में मतदान कर नफरत की राजनीति को नकार दिया है। केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्या की जिम्मेदार वामंपथी सोच ने त्रिपुरा में भी राजनीतिक हिंसा से भारतीय संस्कृति, परंपराओं को दबाने का काम किया। हमारे कार्यकर्ताओं की हत्या की, पत्रकारों की हत्या की ताकि उनकी वैचारिक हिंसक सोच के आगे कोई टिक न सके। कुल मिलाकर त्रिपुरा में वामदलों की वैचारिक सोच की हार है। त्रिपुरा की चुनावी लड़ाई के दो आयाम थे-पहली लड़ाई वैचारिक थी और दूसरी लड़ाई चुनावी हार-जीत की थी। भाजपा ने दोनों में जीत हासिल की।
…और राजनीतिक समीकरण के रूप में परिणाम को कैसे देखते हैं?
अगर त्रिपुरा की लड़ाई को चुनावी दृष्टि से देखा जाए तो यहां जनादेश की कसौटी पर भाजपा की स्थिति शून्य थी। विधानसभा चुनाव-2013 में भाजपा को पूरे प्रदेश में मात्र 33,808 यानी 1.5 फीसदी वोट मिले थे। त्रिपुरा में भाजपा का कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका था। अनेक विधानसभाएं तो ऐसी थीं जहां भाजपा के उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए थे। इस लिहाज से इस लड़ाई को कठिन कहना स्वाभाविक था। कुल 60 सीटों वाले त्रिपुरा में 2013 के विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट दलों ने 49.7 फीसदी मतों के साथ 50 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस को 10 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन ठीक पांच साल बाद हुए 2018 के विधानसभा चुनाव के परिणाम एकदम उलट सिद्ध हुए। सत्ताधारी दल 16 सीटों पर सिमट गया और पिछले चुनावों में 8 लाख से ज्यादा वोट हासिल करने वाली कांग्रेस को मात्र 41,325 वोट हासिल हुए और उसके खाते में एक सीट भी नहीं आई। महज पांच वर्षों में भाजपा ने 43.2 फीसदी वोट के साथ शून्य से 35 सीटों का सफर पूरा करते हुए शानदार जीत दर्ज की। यहां भाजपा सिर्फ 51 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जबकि कम्युनिस्ट पार्टी सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इसके बावजूद भाजपा का मत प्रतिशत माकपा से ज्यादा है।
लेकिन कहा जाता है कि त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार तो ईमानदार हैं। उनकी सरकार ने काम किया है। पूर्वोत्तर में विकास की बात तो कांग्रेस भी करती है। कांग्रेस के नेता भी कहते हैं कि पूर्वोत्तर का विकास कांग्रेस के समय हुआ?
त्रिपुरा में लोगों ने ऐसा नहीं माना। एक व्यक्ति ईमानदार हो लेकिन उसकी सरकार में लोगों को रोजगार न मिले, विकास न हो, भ्रष्टाचार से जनता परेशान हो और राजनीतिक सहिष्णुता की भी जगह न हो, ऐसा होता है क्या? लोगों ने बताया कि कहा चाहे जो भी गया हो किन्तु शासन में ऐसी स्थितियां थीं जिन्हें और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था। त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के लोगों ने 2014 के बाद से खुद महसूस किया है कि केंद्र की भाजपा सरकार ने पूर्वोत्तर में ईमानदारी के साथ विकास का काम किया है। कांग्रेस ने पूर्वोत्तर में लंबे समय तक राज किया लेकिन पूर्वोत्तर के लिए कुछ नहीं किया। इसलिए कांग्रेस से लोगों का विश्वास उठ गया। माकपा से लोगों का भरोसा उठ गया। जिन बागवानी व हस्त-शिल्प उत्पादों के लिए पूर्वोत्तर जाना जाता था, वे बाजार के अभाव में दम तोड़ते चले गए। इतना ही नहीं, विभाजन ने शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली, सड़क, रेल जैसी मूलभूत सुविधाओं के विकास में भी बाधा खड़ी की। विकास के मानकों पर जैसे-जैसे यह इलाका पिछड़ा, वैसे-वैसे जातीय संघर्ष, अलगाववाद, आतंकवाद बढ़ता गया। इसलिए पूर्वोत्तर में विकास की बात करने का हक कांग्रेस को नहीं है बल्कि पूर्वोत्तर की हर समस्या की जड़ कांग्रेस है। जबकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा 1966 से संचालित ‘अंतरराज्यीय छात्र जीवन दर्शन’ प्रकल्प का पूर्वोत्तर में बहुत लाभ हुआ है। इसके अन्तर्गत युवाओं को दूसरे राज्यों में ले जाकर परिवारों में ठहराते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित होती है। ऐसे कई काम हमने किए हैं।
पूर्वोत्तर भाजपामय हो गया। अब इस क्षेत्र के लिए भाजपा की आगे की योजनाएं क्या हैं?
पूर्वोत्तर के सामरिक महत्व और पिछड़ेपन को देखते हुए 2014 में सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उन्होंने तय किया कि एक केंद्रीय मंत्री हर पंद्रह दिन में पूर्वोत्तर क्षेत्र का दौरा करेगा और यह दौरा महज खाना-पूर्ति वाला नहीं होगा। ‘लुक ईस्ट’ नीति से आगे बढ़ते हुए उन्होंने ‘एक्ट ईस्ट’ नीति पर काम शुरू किया। इसके तहत सरकार यहां के उत्पादों को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के बाजारों तक पहुंचाने के लिए निकासी मार्ग बना रही है। इसका पहला चरण है भारत-म्यांमार-थाइलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग। मणिपुर के मोरेह से म्यांमार के मांडले होते हुए यह राजमार्ग थाईलैंड के सिटवे बंदरगाह तक जाएगा। भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के बीच पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शुरू हो रहा बुद्ध-हिंदू सर्किट इसी इलाके से होकर गुजरेगा जिससे यहां के विकास को बढ़ावा मिलेगा। पूर्वोत्तर राज्यों में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की आर्थिक धुरी बनने की क्षमता विद्यमान है, लेकिन इस क्षमता का भरपूर दोहन तभी होगा जब यहां सड़क, रेल और हवाई संजाल बने। इसी को देखते हुए सरकार ने अगले पांच साल में एक लाख करोड़ रुपये की सड़क परियोजनाएं आवंटित की हैं। पूर्वोत्तर के लिए विशेष त्वरित सड़क विकास योजना शुरू की गई है पिछले तीन वर्षों में 13,500 करोड़ की लागत से 1,266 किमी. राष्ट्रीय राजमार्ग बनाया गया है। सरकार ने समूचे पूर्वोत्तर में रेल संजाल को मजबूत बनाने के लिए 1,385 किलोमीटर लंबाई की 15 नई रेल परियोजनाओं को मंजूरी दी है, जिन पर 47000 करोड़ रुपये की लागत आएगी। पिछले तीन वर्षों में पूर्वोत्तर के पांच राज्यों (मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय) को ब्रॉड गेज रेल संजाल से जोड़ा गया। 2016-17 में 29 नई रेलगाड़ियां चलाई गई हैं। पिछले तीन साल में 900 किलोमीटर मीटर गेज रेल लाइन को ब्रॉड गेज में बदला गया और अब समूचे पूर्वोत्तर में मीटर गेज रेल मार्ग नहीं रह गया है। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए म्यांमार, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल के साथ कारोबारी समझौते किए गए। म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली और बांग्लादेश से सुधरते रिश्तों को पूर्वोत्तर के विकास के लिए लोगों ने शुभ संकेत माना है। बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौते को पूर्वोत्तर के इतिहास में मील का पत्थर बताया गया और कहा कि सरकार क्षेत्र के संपूर्ण विकास के लिए प्रतिबद्ध है
कांग्रेस की हार की वजह क्या रही?
इसकी समीक्षा करना तो कांग्रेस का काम है। लेकिन मैं नहीं, पूरा देश देख रहा है कि कांग्रेस ने लंबे समय देश पर राज किया। पूर्वोत्तर में भी शासन किया लेकिन कांग्रेस नेताओं ने सिर्फ अपना विकास किया। जनता मानती है कि कांग्रेस ने न ईमानदारी से देश और न ही का पूर्वोत्तर का विकास किया। बल्कि उलटा भ्रष्टाचार के नए रिकार्ड बनाए। संगठन की बात करें तो हमारे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जी पूरे समय संगठन के लिए काम करते हैं और कार्यकर्ताओं के बीच रहते हैं जबकि दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अक्सर विदेश दौरों को लेकर चर्चा में रहते हैं।
पूर्वोत्तर में कई राज्य ईसाई बहुल हैं, वहां भाजपा की जीत की क्या वजह है?
सही बात तो यह है कि कांग्रेस और वामदल ही सांप्रदायिक राजनीति करते हैं और इस बात को पूर्वोत्तर की जनता समझ गई इसलिए वनवासी जनजाति हो या कोई और जाति या संप्रदाय। भाजपा को सभी का समर्थन मिला।
कहा जा रहा है कि जितनी बढ़ी जीत का दावा किया जा रहा है यह उतनी बढ़ी नहीं है?
यह सवाल वे लोग उठा रहे हैं जो चुनाव हारे हैं। हम सभी सीटों पर नहीं लड़े, ऐसे में हमारा मत-प्रतिशत और गठबंधन के साथ समग्र प्रदर्शन बताता है कि हमें मतदाताओं ने भारी समर्थन दिया है।
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