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त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने वामदलों की राजनीति और अस्तित्व को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। मेघालय और नागालैंड सहित पूर्वोत्तर के 7 में से 6 राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं, वहीं देश के इस सीमावर्ती क्षेत्र में कांग्रेस तेजी से अपनी जमीन खोती जा रही है और मोदी सरकार की एक्ट ईस्ट नीति सफलता के आयाम रच रही
मनोज वर्मा
एक तरफ दक्षिणी त्रिपुरा के बेलोनिया टाऊन में जनता कॉलेज स्क्वायर पर खड़ी कम्युनिस्टों के आदर्श व्लादिमिर लेनिन की मूर्ति को गिरा रही थी तो दूसरी तरफ लगभग उसी समय संसद भवन परिसर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सहित भाजपा नेताओं और सांसदों के गले में पूर्वोत्तर का एक विशेष स्कार्फ अलग ही चमक रहा था। त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने जहां वामदलों की राजनीति और उनके अस्तित्व को लेकर सवाल खडेÞ कर दिए हैं तो उसी के समानांतर लेनिन की मूर्ति क्यों गिरी, इसे लेकर भी सवाल खडेÞ हुए हैं। त्रिपुरा में माकपा ने भाजपा कार्यकर्ताओं पर मूर्ति गिराने का आरोप लगाया। असल में इस मूर्ति का ढहना है हिंसक, असहिष्णु और भारतीय संस्कृति, परंपराओं एवं मान्यताओं को नकारने वाली, कई स्तरों पर उसका विरोध करने वाली वामपंथी राजनीति के पतन की ओर संकेत करता है। लिहाजा पहले पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा में माकपा की पराजय को भारतीय राजनीति की एक बड़ी चमत्कारिक घटना के तौर पर देखा जा रहा है। तो इसकी वजह है कि आखिर डेढ़ प्रतिशत मत पाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने त्रिपुरा में कम्युनिस्टों के राज को ऐसा पलटा कि पूर्वोत्तर में भाजपा की जीत वामपंथ के पतन की ऐतिहासिक गाथा बन गई। वाममोर्चा अब गठबंधन के साथ मात्र केरल में बचा है।
पूर्वोत्तर में जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा मुख्यालय पर उत्साहित कार्यकर्तार्ओं को संबोधित करते हुए कहा कि, सूर्य जब डूबता है तो लाल रंग का होता है और जब उदिता होता है तो केसरिया रंग का होता है। वास्तुशास्त्रियों की मान्यता है कि वास्तुशास्त्र के हिसाब से इमारत की जो रचना होती है उसमें उत्तर-पूर्व कोना सबसे अहम होता है। इसलिए वास्तुशास्त्री उत्तर-पूर्व को केंद्र में रखकर इमारत की बुनियाद रखते हैं क्योंकि अगर वह कोना ठीक हो गया तो पूरी इमारत ठीक रहेगी। खुशी है कि देश का उत्तर-पूर्व विकास के रास्ते पर बढ़
चला है।
वैसे त्रिपुरा में राजनीतिक हिंसा भी उसी तरह मुद्दा रही है जैसे केरल के वामपंथी गठबंधन के शासन में रही थी। लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी ने त्रिपुरा में भाजपा और संघ कार्यकर्ताओं की हिंसा का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘जनता ने मौत का जवाब वोट से दिया। राजनीतिक विरोध के चलते हमारे कार्यकर्ताओं की हत्या हुई। यह क्रूर ताकतों और डर की राजनीति पर लोकतंत्र की जीत है। आज डर पर शांति और अहिंसा हावी हुई है। हम त्रिपुरा को गुड गवर्नेंस देंगे।’’ उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, ‘‘त्रिपुरा में भाजपा की जीत नहीं है बल्कि माकपा की हार है। माकपा को अंहकार, अनैतिकता और पूरी तरह आत्मसमर्पण के कारण यह हार देखने को मिली है।’’ जाहिर है कि किसी भी सरकार के लिए 25 साल एक लंबा वक्त होता है। माणिक सरकार की सबसे बड़ी गलती इस बार यह थी कि वह अपने मतदाताओं के दिमाग को सही तरीके से पढ़ने में नाकाम रही। माणिक सरकार ने यह बात स्वीकार की कि वे नई नौकरियां पैदा करने में नाकामयाब रहे। राज्य की शैक्षिक दर तो ऊंची है, लेकिन शहरी इलाकों में बेरोजगारी का प्रतिशत 17 फीसदी है। राज्य में 7वां वेतन आयोग तक लागू नहीं किया गया। माकपा कैडरों पर भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। बंगाली जनजातीय समाज को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। इस सबके बीच माणिक सरकार की ईमानदारी भी एक सवाल थी तो दूसरा सवाल त्रिपुरा के विकास का था। रोजगार का था। मई 2014 में सरकार बनाने के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एजेंडे में पूर्वोत्तर का विकास प्राथमिकता पर रहा। तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर में संगठन विस्तार का जो फार्मूला तैयार किया, उसने पूर्वोत्तर को लगभग कांग्रेस मुक्त बनाते हुए वामपंथ के किले को भी ढहा दिया।
मोदी सरकार की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति और पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंधों की नीति ने भी भाजपा के लिए पूर्वोत्तर में उदय का रास्ता बनाने का काम किया। जैसा कि असम दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी था कि ‘‘हमारी सरकार की एक्ट ईस्ट नीति पूर्वोत्तर को ध्यान में रखकर बनाई गई। यह नीति भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के आसियान देशों सहित अन्य देशों के लोगों से आपसी सम्पर्क और व्यापारिक संबंध बढ़ाने का माध्यम है। पूर्वोत्तर राज्यों का विकास देश के समग्र विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। भारत की ग्रोथ स्टोरी में और गति आएगी जब देश में हमारे पूर्वोत्तर में रहने वाले लोगों का, समाज का संतुलित विकास भी तेज गति से होगा, यही हमारा विजन और यही हमारी एप्रोच है।’’ संभवत: इसी सोच का परिणाम है कि आज पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से छह में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकार है। असल में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव नतीजे इस अंचल में भाजपा के जबरदस्त उभार को रेखांकित करते हैं। वहीं त्रिपुरा में 1978 में पहली बार राज्य विधानसभा की 60 में से 56 सीटें जीतकर सत्ता संभालने वाले वाम मोर्चा का इस बार के चुनाव में जैसा बुरा हाल हुआ है, वैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था। त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा और आइपीएफटी यानी इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट आॅफ त्रिपुरा के गठबंधन को 43 सीटें हासिल हुईं। त्रिपुरा में भाजपा की ऐतिहासिक सफलता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में उसे लगभग 1.5 फीसदी वोट ही मिले थे वहीं इस बार उसने 51 सीटों पर चुनाव लड़ा और गठबंधन के साथ करीब 50 प्रतिशत वोट हासिल किए। माकपा ने पिछली बार 49 सीटें जीती थीं इस बार वह 16 सीटों पर सिमट गई। त्रिपुरा में कांग्रेस को पिछली बार 36 प्रतिशत से अधिक वोट और 10 सीटें मिली थीं पर इस बार कांग्रेस शून्य हो गई। नागालैंड में भी कांग्रेस उखड़ गई। तो मेघालय में कांग्रेस की सीटें 29 से घटकर 21 पर आ गईं। नागालैंड में 2013 में भाजपा को सिर्फ एक सीट मिली थी इस बार उसकी झोली में 12 सीटें आई। मेघालय में 21 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसल गई। राज्य में 19 सीटें जीती नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के नेतृत्व में सरकार बन गई। एनपीपी को 6 युनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीपी), 4 पीपुल्स डेमोक्रेट्रिक फ्रंट (पीडीएफ), 2—2 विधायक हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (एचएसपीडीपी) और भाजपा का समर्थन मिला। मेघालय में भले भाजपा को 2 सीटें मिलीं पर पार्टी ने गठबंधन के जरिए कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। मेघालय के क्षेत्रीय दलों ने यह कहते हुए कांग्रेस से दूरी बना ली कि जनादेश कांग्रेस के खिलाफ है। वहीं नागालैंड में भाजपा की सहयोगी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेता नीफ्यू रियो ने 32 विधायकों के साथ सरकार बनाने का दावा ठोक दिया। नागालैंड की 60 सदस्यीय विधानसभा में एनडीपीपी को 16 और भाजपा को 12 सीटें मिली हैं। नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) को 27 सीटें मिली हैं। इन तीन राज्यों से पहले भाजपा ने असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में सरकार बनाकर पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने की पटकथा लिख दी थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं, ‘‘पूर्वोत्तर की जीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में एक्ट ईस्ट नीति के साथ साथ विकास को केंद्र में रख कर बनाई गई नीतियों की जीत है।’’ अब देश के 21 राज्यों में भाजपा या भाजपा गठबंधन वाली सरकारें हैं। इसी के साथ देश की लगभग 60 फीसदी जीडीपी भाजपा या उसके गठबंधन वाली सरकार के दायरे में है।
2019 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से भी नॉर्थ ईस्ट के राज्य अहम हैं। इन राज्यों में लोकसभा की 25 सीटें हैं। हालांकि विरोधी यह तर्क देते हैं कि संसद में पूर्वोत्तर राज्यों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है और इसलिए इनके नतीजे राष्ट्रीय राजनीति पर ज्यादा असर नहीं डाल पाएंगे। साल के अंत में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं जहां भाजपा की अपनी सरकारें हैं।
पूर्वोत्तर की जीत आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए जहां नई ताकत बनने वाली है, वहीं कांग्रेस के लिए हताशा लाने वाली है। इस हताशा के बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व पर उठते सवाल कांग्रेस के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा रहे हैं। इन सवालों के बीच भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को साकार करती नजर आ रही है।
शून्य से शिखर तक…
त्रिपुरा में 25 साल के माकपा शासन से हुई बर्बादी का एक जीता-जागता उदाहरण है धलाई जिले में धुर माकपाई प्रभाव वाला मरछरा उपनगर। यहां न सड़कों जैसी सड़कें हैं, न बिजली-पानी। कभी माकपा का गढ़ रहे इस इलाके में ही करीब 800 वोट वाले इलाके शिवपूजन पाड़ा का नाम उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से 1960 के दशक में वहां पोस्ट मास्टर बनने गए शिवपूजन अहीर के नाम पर ही पड़ा है, जिनके 62 वर्षीय पुत्र बिशेश्वर खुद माकपाई कामरेड हैं। लेकिन इन चुनावों में भाजपा की जीत के बाद मरछरा में एक अलग जोश का माहौल है। यूं तो माकपा के लंबे कुशासन से त्रस्त त्रिपुरावासी जाने कबसे बदलाव की आस लगाए बैठे थे, लेकिन जैसे ही माहौल में भाजपा का नारा ‘चलो पलटाई’ गूंजा, उन्होंने मन बना लिया। और नतीजा निकला माकपा के बड़े से बड़े नेता की हार और भाजपा के उम्मीदवारों को भारी समर्थन। यही वजह थी कि जनजातीय नेता कृषि मंत्री अघोरे देबबर्मा हों, या माकपा के राज्यसभा सांसद झरना दास बैद्य, वन मंत्री नरेश चंद्र जमातिया हों या धुर कामरेड अमल चक्रवर्ती, एक के बाद एक माकपा के ही गढ़ों में धराशायी हो गए!
जनजातीय समाज और भाजपा
त्रिपुरा में जनजातीय समाज की अच्छी-खासी संख्या है और भाजपा ने शुरू से ही इस समाज को ध्यान में रखकर काम किया। जनजातीय बंधुओं से अच्छा संपर्क बनाया, उनकी समस्याओं पर गौर किया। भाजपा ने एन.सी. देबबर्मा की अगुआई वाले आइपीएफटी गुट से हाथ मिलाया। इससे भाजपा की जनजातीय समाज में अच्छी पैठ बनी और परिणामत: जनजातीय समाज ने भाजपा और आईपीएफटी को अपना भरपूर समर्थन दिया। भाजपा को 20 जनजातीय सीटों पर विजय मिली।त्रिपुरा की 37 लाख आबादी में करीब 80 प्रतिशत हिन्दू हैं जो अधिकांशत: बांग्लादेश से आए हैं। इनका भी माकपा से मोहभंग हो चुका था। इस समाज ने इस बार भाजपा को खुले दिल से समर्थन दिया।
लेनिन की सभ्य समाज में कोई जगह हो सकती है?
त्रिपुरा में चुनाव में माकपा के हारने के बाद राज्य में एक स्थान पर लगी लेनिन की मूर्ति को स्थानीय लोगों ने गिरा दिया। इस मूर्ति को कम्युनिस्ट शासन काल के दौरान राज्य में स्थापित किया गया था। मूर्ति गिराने की इस घटना को उचित यां अनुचित ठहराने के प्रयायों पर चल पड़ी बहस के बीच लेनिन की विरासत पर एक नजर डालना उचित होगा। रूस में 1917 में बोल्शेविक क्रांति के नायक के तौर पर चंद इतिहासकारों द्वारा हमारी पाठ्यपुस्तकों में बतौर एक महान नेता स्थापित किए गए लेनिन की रूस में जारशाही के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई वास्तव में एक व्यक्तिगत प्रतिशोध पर आधारित थी और किसानों—मजदूरों की भलाई से इसका कोई लेना—देना नहीं था।
लेनिन का बचपन का नाम व्लादीमिर उल्यानोव था। जार निकोलस तृतीय ने उनके बड़े भाई को फांसी की सजा दी थी। इसके बाद जार से बदला लेना लेनिन के जीवन का उद्देश्य बन गया। ध्यान दीजिए कि इसमें विचारधारा का कोई लेना—देना नहीं था, यह एक व्यक्तिगत लड़ाई मात्र थी। लेकिन धूर्तता और झूठ बोलने में माहिर लेनिन ने खुद को मजदूरों—किसानों के सबसे बड़े हितचिंतक के रूप में स्थापित किया। लेनिन को जब जारशाही का विरोध करने के लिए शुरुआती दिनों में गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने कहा, ‘‘आंतक ही आत्म—सुरक्षा का एक मात्र उपाय है।’’ यही उक्ति उन्होंने आगे चलकर कई बार दोहराई।
जारशाही द्वारा देश से निर्वासित किए जाने के बाद लेनिन ने अगले 17 साल स्विट्जरलैंड में बिताए। साल 1913 में जार ने अलेक्जेंडर केरेन्सकी के नेतृत्व में निर्वाचित सरकार बनने की सहमति दी। लेकिन विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद आंतरिक अराजकता व युद्ध में भारी नुकसान के चलते स्थिति खराब हो गई।
इधर लेनिन को लगा कि अब सत्ता हथियाने का अच्छा मौका है सो उन्होंने अपने ही देश के विरोधी जर्मनी से हाथ मिला लिया और उसकी सहायता से वापस रूस पहुंच गए। ध्यान रहे कि रूस को इस युद्ध में 10 लाख से ज्यादा जानें गंवानी पड़ी थीं और इन मौतों में जर्मनी की बड़ी भूमिका थी जिसकी सरपरस्ती लेनिन ने स्वीकार कर ली थी। सत्ता के लालच में लेनिन ने एक देशद्रोही की तरह अपने ही देश के सबसे बड़े दुश्मन से हाथ मिला लिया था।
इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि जर्मनी ने लेनिन को एक सीलबंद ट्रेन में बैठा कर रूस की तत्कालीन राजधानी पेट्रोगाड पहुंचा दिया जहां उन्होंने पहले तो कम्युनिस्ट आंदोलन को धोखा दिया और बोल्शेविक नाम से अपना गुट बनाकर कर इस आंदोलन में बाकी सहयोगियों को किनारे कर दिया जिन्हें इतिहास मेन्शेविक के नाम से जानता है। केरेन्सकी का कार्यकाल 27 अक्तूबर, 1917 को समाप्त हो रहा था। इधर बोल्शेविकों ने औपचारिक रूप से लेनिन को अपना नेता चुन लिया था। 25 अक्तूबर को ही तख्तापलट हो गया और लेनिन ने सत्ता हथिया ली। जब लेनिन के सबसे करीबी सहयोगी ट्रॉट्स्की ने उससे पूछा कि हम लोगों से क्या वायदे करें जो पूरे किए जा सकें तो लेनिन का धूर्ततापूर्ण जवाब था,‘‘पहले हमें हर हाल में सत्ता को हथियाना है। बाद में तय कर लेंगे कि हमें करना क्या है।’’
सत्ता में आते ही लेनिन ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया। सच तो यह है कि वह किसानों और मजदूरों से नफरत करते थे। इसलिए उन्होंने किसानों को उनकी जमीन वापस करने के लिए भूमि सुधार संबंधी कदम उठाने से इंकार कर दिया और उनसे विश्वासघात करते हुए सारी जमीन 'सामूहिक खेती' के नाम पर सरकार के नाम कर दी। यूक्रेन जैसे उपजाऊ इलाके में, जहां खाद्यान्न प्रचुर मात्रा में पैदा होता था, जब किसान अच्छी फसल नहीं पैदा कर पाए तो उन सबके खेत छीन कर उन्हें अपने गांवों को छोड़ कर जाने के लिए विवश कर दिया गया। लाखों परिवार विस्थापित हुए, बड़ी संख्या में विरोध करने वालों को मौत के घाट उतार दिया गया। नतीजा एक बड़े अकाल के रूप में सामने आया जिसमें लाखों लोगों की भूख से मौत हुई। लेनिन ट्रेड यूनियन के पक्ष में सोच रखने वालों को बुरी तरह से नापसंद करते थे। विक्टर सेबेस्टियन ने लेनिन के जीवन पर लिखी अपनी चर्चित किताब 'लेनिन: द मैन, डिक्टेटर एंड मास्टर आफ टेरर' में उल्लेख किया है कि लेनिन के शब्दकोश में 'असहमति' का मतलब 'देशद्रोह' था। श्रम शिविरों की आड़ में विरोधियों को निर्वासित कर यातना देकर मारने के लिए कुख्यात 'गुलग' भी लेनिन ने ही शुरू किए। विभिन्न अनुमानों के अनुसार 1917 से 1924 के बीच सात वर्ष के लेनिन के कार्यकाल में लगभग 40 लाख लोगों को तत्कालीन सोवियत संघ में राजनीतिक हत्याओं, यातना शिविरों, लेनिन की नीतियों के कारण आए अकाल के हाथों जान गंवानी पड़ी।
लेनिन प्रेस की स्वतंत्रता के सबसे बड़े दुश्मनों में से एक था। सत्ता संभालने के 24 घंटे के भीतर उसने सेंसरशिप लागू कर दी जो सोवियत संघ के विघटन तक जारी रही। किसी सभ्य समाज व लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा करने वाले देश में ऐसी कुख्यात विरासत वाले लेनिन की मूर्तियों का क्या कोई स्थान हो सकता है? अरुण आनंद
विप्लव कुमार देब
त्रिपुरा के उदयपुर के रहने वाले विप्लव देब कॉलेज में पढ़ते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संपर्क में आए। राज्य में कार्य करते हुए वे दिल्ली आए लेकिन परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे। 1999 से लेकर 2009 तक वे दिल्ली में रहकर अनेक राज्यों में परिषद् के लिए कार्य करते रहे। इस दौरान वे भाजपा के जनसंपर्क अभियान के प्रमुख भी रहे। 2014 में वे सतना से सांसद गणेश सिंह के सहायक के तौर पर जुड़े। लेकिन इसी बीच त्रिपुरा में स्थानीय नेता की मांग उठी और 2015 में पार्टी ने उन्हें त्रिपुरा में जमीनी स्तर पर कार्य करने के लिए चुना। सहजता, सरलता और अपनी बेबाक शैली के लिए पहचाने जाने वाले विप्लव त्रिपुरा की जनता के बीच बहुत कम समय में ही लोकप्रिय हो गए। इसे देखते हुए पार्टी ने उन्हें राज्य का प्रदेशाध्यक्ष बनाया। अब वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं।
कॉनराड संगमा
नेशनल पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष कॉनराड संगमा मेघालय राज्य के 12वें मुख्यमंत्री बने हैं। 40 वर्षीय कॉनराड का जन्म 27 जनवरी,1978 को हुआ। उनकी शिक्षा दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में हुई। उसके बाद वे लंदन और पेन्सिलवेनिया में भी पढ़ाई कर चुके हैं। संगमा मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और लोकसभा के पूर्व सभापति स्व. पी.ए.संगमा के बेटे हैं। संगमा ने 1990 में अपने पिता पीए संगमा के प्रचार प्रबंधक के तौर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। 2016 में पिता के निधन के बाद उन्होंने एनपीपी की कमान संभाली। वर्तमान में वे मेघालय की तूरा लोकसभा सीट से सांसद हैं।
नीफ्यु रियो
नीफ्यु रियो नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के वरिष्ठ नेता हैं। कोहिमा में जन्मे 67 वर्षीय रियो तीन बार यानी 11 साल तक नागालैंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 2014 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। छात्र जीवन से ही उन्होंने अपनी पहचान एक छात्र नेता के रूप में स्थापित कर ली थी। तब से वे राजनीतिक सफर पर लगातार बढ़ते रहे। पिछले दिनों उन्होंने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
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