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छोटे एशियाई देशों की परियोजनाओं में आर्थिक मदद के बहाने चीन उनमें अपनी रणनीतिक उपस्थिति बढ़ाता जा रहा है। कंबोडिया, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और नेपाल के बाद उसकी इस ताजा साजिश का शिकार हुआ है श्रीलंका, जहां हम्बनटोटा बंदरगाह पर चीन ने नजरें गढ़ाई हुई हैं
संतोष वर्मा
भारत क्षेत्रीय सुरक्षा के मद्देनजर हम्बनटोटा बन्दरगाह चीन को दिए जाने पर विरोध व्यक्त करता रहा है। श्रीलंका सरकार भी इस समझौते के विरुद्ध थी परन्तु चीन के ऋण के दुष्चक्र में फंसे होने के कारण उसे इस समझौते पर हस्ताक्षर करने पड़े हैं। यह केवल श्रीलंका के साथ नहीं हो रहा है अपितु चीन के साथ आर्थिक और सामरिक सम्बन्ध रखने वाला प्रत्येक देश अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और सुरक्षा के साथ समझौता कर रहा है। एक तरफ चीन भारत, जापान और कुछ अन्य एशियाई देशों को अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर भयभीत करने की कोशिश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर अन्य छोटे एशियाई देशों के मामले में यह अपनी आर्थिक शक्ति के प्रयोग से उन्हें अपने पक्ष और प्रभाव क्षेत्र में लाने के लिए प्रयासरत है।
छोटे एशियाई देशों में से अधिकांश के पास परियोजनाओं में निवेश के लिए पूंजी और संसाधन नहीं होते हैं और इसलिए वे विदेशी निवेश और धन की तलाश में रहते हैं। ऐसे विदेशी निवेश चीन के साथ ही अन्य कई अन्य देशों से भी होते हैं। हालांकि, अन्य देशों की तुलना में चीन से निवेश और सहयोग के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। आज ज्यादातर एशियाई देशों द्वारा महसूस किया जाने लगा है कि चीन एशिया और अन्य महाद्वीपों के देशों पर हावी होने और उन्हें अपने नियंत्रण के अन्दर लाने के लिए निवेश को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है ताकि यह एशिया का निर्विवाद नेता बना रहे और फिर दुनिया के दूसरे हिस्सों में इस वर्चस्व का विस्तार करे। चीन की हाल की गतिविधि से स्पष्ट संकेत मिलता है कि कमजोर अर्थव्यवस्थाओं वाले अन्य एशियाई देशों पर हावी होने के अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए अपनी आर्थिक शक्ति का उपयोग करने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं है। चीन छोटे एशियाई देशों में भारी निवेश कर रहा है और उनमें से कई को नई परियोजनाएं शुरू करने के लिए रियायती ऋण प्रदान कर रहा है। यह चीन के लिए अपने उत्पादों के लिए बाजार खोलने का एक अवसर पैदा करता है, जहां यह अपने उपकरण-मशीनरी को भी खपा देता देता है।
हालांकि चीन का दावा है कि उसके द्वारा किये जाने वाले निवेश, आर्थिक सहायता और रियायती ऋण में कोई छुपा उद्देश्य नहीं है, लेकिन वास्तविकता इससे पूरी तरह भिन्न है। संसाधनों की दृष्टि से कमजोर एशियाई देशों के लिए बड़े रियायती ऋण के साथ जो निवेश चीन द्वारा किया जा रहा है उसे चुकाने का बूता इन देशों में नहीं है। ऐसी स्थिति में चीन उन्हें शक्ति के प्रयोग द्वारा अपनी अवैध मांगें मानने के लिए बाध्य करता है। (जैसे, चीन द्वारा सहायता प्राप्त विभिन्न परियोजनाओं में ऋण को इक्विटी में परिवर्तित कराया गया और उसके स्वामित्व पर अवैध अधिपत्य स्थापित कर लिया) इस प्रक्रिया के द्वारा चीन बाद के दिनों में एशियाई देशों में अर्थव्यवस्था और प्रशासन में कुछ स्तर पर नियंत्रण स्थापित कर पाने में सक्षम हो सकेगा।
श्रीलंका के प्रति चीन की नीति
2014 में नई दिल्ली ने कोलंबो का उस समय भी विरोध किया था, जब कोलंबो बंदरगाह में एक चीनी पनडुब्बी ने प्रवेश किया था। भारत ने इसे दक्षिणी हिन्द महासागर में चीन का अवैध हस्तक्षेप माना, परन्तु हम्बनटोटा को लेकर आखिरकार समझौता हो ही गया।
श्रीलंका के बंदरगाह मामलों के मंत्री महिंदर समरसिंगे ने इस समझौते में एक महत्वपूर्ण बदलाव को रेखांकित करते हुए बताया कि अब चीन हम्बनटोटा बंदरगाह के संचालन का प्रबंधन करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि चीन के साथ कोई पक्षपात नहीं किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि जनवरी 2015 में श्रीलंका में एक नये युग का प्रारंभ हुआ था, जब सिंहली, तमिलों के एक इंद्रधनुष सुधारवादी गठबंधन का नेतृत्व करते हुए मैत्रीपाल सिरीसेना ने राष्ट्रपति चुनाव जीता और महिंदा राजपक्षे की चीन के प्रति पक्षपाती नीतियों से अलग श्रीलंका के राष्ट्रीय हितों के प्रति जागरूक नीतियों का दौर प्रारंभ हुआ था।
श्रीलंका की आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब हाल में है। एक अनुमान के अनुसार श्रीलंका का राष्ट्रीय ऋण लगभग 64.9 अरब डालर है, जिसमें से लगभग 8 अरब डालर का ऋण चीन से लिया गया है। यह बताया जा रहा है कि श्रीलंका अब कुल सरकारी राजस्व का 90 प्रतिशत खर्च कर्जों की अदायगी में करता है। जाहिर है, श्रीलंका सरकार अब स्वयं को चीनी ऋण जाल में फंसा महसूस कर रही है और आगे चलकर उसकी संप्रभुता पर उत्पन्न होने वाले खतरे को भी। बताया गया है कि श्रीलंका सरकार ने चीन के साथ संयुक्त रूप से बनाये गए हम्बनटोटा के दक्षिणी बंदरगाह के बारे में किये गए समझौते को संशोधित भी किया है। चीनी सरकार के स्वामित्व वाले चीन कमर्शियल पोर्ट होल्डिंग्स ने 1.5 अरब डालर के निवेश के द्वारा इस बंदरगाह का निर्माण किया था। इससे पहले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिसमें 80 प्रतिशत हिस्सेदारी श्रीलंका सरकार ने चीन को दी थी, परन्तु अब बंदरगाह पर वाणिज्यिक परिचालन के लिए चीनी कंपनी की भूमिका को सीमित करने का निर्णय लिया है और किसी भी तरह की सैन्य गतिविधियों की अनुमति नहीं दी गई है। बंदरगाह में चीनी कंपनी की गतिविधियों को सीमित करने के लिए श्रीलंका सरकार का यह फैसला निश्चित रूप से चीन को नाखुश करेगा। देखना होगा कि आने वाले दिनों में चीन इस निर्णय पर कैसे प्रतिक्रिया करेगा।
बांग्लादेश और चीन
ऐसे समय में जब श्रीलंका चीन से कर्ज जाल के खतरे का सामना कर रहा है, बांग्लादेश की स्थिति इससे बेहतर नहीं है। चीन ने बांग्लादेश को अपने द्वारा समर्थित परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर रियायती ऋण प्रदान किए हैं। पर्याप्त संभावना है कि बांग्लादेश निकट भविष्य में कर्ज चुकाने में सक्षम नहीं होगा। चीन स्पष्ट रूप से जानता है इसलिए अब वह सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से परियोजनाओं के लिए ऋण के तौर-तरीके को बदलने और इसे व्यावसायिक ऋण में परिवर्तित करने की मांग कर रहा है, जो कि उच्च ब्याज दरों में होगा, जबकि बांग्लादेश ने चीन की इस नाजायज मांग का विरोध किया है। परन्तु देखना है कि वह कितनी देर तक ऐसा कर सकता है।
मंगोलिया और चीन
चीन की इस आर्थिक औपनिवेशिक नीति का शिकार उसका उत्तरी पड़ोसी मंगोलिया भी हुआ है। चीन का अब तक इस वर्ष जनवरी और मई के बीच में मंगोलिया के कुल विदेश व्यापार का लगभग 68.5 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा रहा है। चीन के साथ इस तरह के व्यापारिक संबंध मंगोलिया को कर्ज के गहन जाल में फंसा रहे हैं। मंगोलिया में बड़े पैमाने पर कोयले और तांबे के भंडार हैं और चीन की इन पर नजर है। वह इस बात के इंतजार में है जब मंगोलिया चीन के साथ व्यापारिक प्रतिबद्धताओं का सम्मान करने में सक्षम नहीं होगा।
पाकिस्तान और चीन
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, जो सीपीईसी के नाम से जाना जाता है, बुनियादी ढांचे से सम्बन्धित परियोजनाओं का एक जटिल संकुल है, जो पूरे पाकिस्तान में निर्माणाधीन हैं। मूल रूप से 46 अरब डालर वाली सीपीईसी परियोजनाओं का मूल्य अब 62 अरब डालर पर पहुंच चुका है। सीपीईसी का उद्देश्य पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे का तेजी से आधुनिकीकरण करना और उसके निर्माण को मजबूत बनाना है। आधुनिक परिवहन नेटवर्क, कई ऊर्जा परियोजनाएं और विशेष आर्थिक क्षेत्रों का निर्माण इसके अंतर्गत आता है। आर्थिक गलियारा परियोजना का लगभग पूरा निवेश चीन द्वारा किया जा रहा है, क्योंकि पाकिस्तान में इस परियोजना में खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। इक्विटी में निवेश और रियायती ऋणों के द्वारा चीन आर्थिक गलियारा परियोजना को समर्थन दे रहा है। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को ध्यान में रखते हुए जहां जीडीपी का कर्ज अनुपात 65 प्रतिशत को छू रहा है और कुल विदेशी कर्ज लगभग 70 अरब डालर को छूता है, सीपीईसी परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त ऋण की व्यवस्था करना मुश्किल होगा।
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वह निकट भविष्य में कर्ज और ब्याज को चुकाने में सक्षम नहीं होगा। पाकिस्तान की विभिन्न रणनीतिक परियोजनाओं में चीन का निवेश और भागीदारी इतनी गहरी है कि निकट भविष्य में पाकिस्तान चीन के इस जाल से बाहर निकलने का कोई रास्ता निकालने में सक्षम नहीं हो सकेगा।
चीन सिंध, पंजाब और बलूचिस्तान में छह अरब डालर के कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण करेगा। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि चीन अपने यहां इस तरह के कोयला आधारित बिजली संयंत्रों का उपयोग बंद कर रहा है और 2020 तक इसे पूर्णत: बंद कर देगा। वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण के बढ़ते परिदृश्य में पर्यावरण-डंपिंग और कार्बन पदचिह्न बढ़ने से पाकिस्तान को पश्चिमी देशों या संस्थानों से ऋण लेने में मुश्किल होगी।
परियोजनाओं में आर्थिक लेन-देन
ऊर्जा क्षेत्र में निवेश किए गए पैसे के लिए चीन ने पाकिस्तान से मूल धन पर 27.2 प्रतिशत ब्याज के लिए कहा है। पाकिस्तान ने अपने यहां सभी बिजली बिलों में 1 प्रतिशत का एक अतिरिक्त सीपीईसी सुरक्षा कर लगाया है। यह अत्यंत विचित्र है लेकिन इस सीपीईसी परियोजना को पूरा करने में 10-15 साल लगेंगे और जनता को अभी से कर चुकाने को बाध्य किया गया है। पहले से ही पाकिस्तान में दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे ज्यादा बिजली दर है। और यह महंगी बिजली सीधे उद्योगों को प्रभावित करती है उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान स्टेट बैंक के जुलाई 2016 के आंकड़ों के मुताबिक इसके कारण निर्यात में 20 प्रतिशत की कमी आती है। सीपीईसी विद्युत संयंत्रों से उत्पादित ऊर्जा सभी तरह से महंगी होगी, और क्योंकि पाकिस्तान ने बिजली खरीदने के लिए समझौता किया गया है, इसलिए इसके पास कोई विकल्प नहीं होगा। अंतत: इसके बाह्य / आंतरिक ऋण में वृद्धि ही होगी।
नेपाल और चीन
नेपाल में चीन का निवेश लगातार बढ़ रहा है और राजनीतिक, आर्थिक रूप से कमजोर नेपाल चीन के आर्थिक प्रभुत्व के तहत तेजी से आता जा रहा है। इस वर्ष मई माह में उसने चीन की परियोजना का हिस्सा बनने के लिए सहमती विषयक समझौते पर हस्ताक्षर भी कर दिए। उल्लेखनीय है कि चीन 1980 के दशक से ही नेपाल से निकटता बनाने के लिए लालायित रहा है। नेपाल में राजा ज्ञानेंद्र के समय माओवादी विद्रोह से निपटने के लिए चीन ने अपने द्वारा खड़े किये गए माओवादी सशस्त्र विद्रोह को कुचलने के लिए नेपाल को बड़े पैमाने पर हथियार मुहैय्या कराये थे। यह इस बात का स्पष्ट द्योतक है कि चीन केवल निजी स्वार्थ के लिए कार्य करता है और कम्युनिज्म जैसी विचारधारा से उसकी सम्बद्धता केवल अवसरवादी मानसिकता का एक नमूना है।
वेनेजुएला और चीन
गो चावेज के निधन के बाद सत्ता में आये निकोलस मादुरो के अक्षम नेतृत्व कारण वेनेजुएला की आर्थिक स्थिति पटरी से उतर चुकी है। इसका सीधा लाभ चीन ने उठाया। चीन ने इस कमजोर अर्थव्यवस्था में 52 अरब डालर और निवेश किए। वर्तमान स्थिति में यह स्पष्ट है कि वेनेजुएला यह कर्ज कभी वापस नहीं कर पाएगा। चीन का निवेश अब आंशिक रूप से इक्विटी और ऋण द्वारा चुकाया जाना है। अब इस कर्ज के नीचे दबे वेनेजुएला को चीन के आर्थिक उछाल को बरकरार रखने के लिए रियायती दरों पर लाखों बैरल तेल की आपूर्ति करने के लिए बाध्य कर दिया गया है।
कंबोडिया और चीन
कंबोडिया चीन के निकटतम अंतरराष्ट्रीय और राजनयिक सहयोगियों में से एक है। कम्बोडियाई प्रधानमंत्री हुन सेन ने हाल ही में चीन को कम्बोडिया के ‘सबसे भरोसेमंद दोस्त’ के रूप में वर्णित किया। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कंबोडिया को भी ‘भाई की तरह’बताया था। चीन अब कंबोडिया का सबसे बड़ा सैन्य आपूर्तिकर्ता, विकास सहायता देने वाला और विदेशी निवेश का प्रदाता है, जिसने रियायती ऋण के रूप में 3 अरब दिए। 2016 इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड (आईएमएफ) की रपट में दिखाया गया है कि कंबोडिया का बाह्य बहुपक्षीय सार्वजनिक ऋण 1.6 अरब डॉलर का है, जबकि चीन के साथ द्विपक्षीय कर्ज 3.9 अरब डॉलर का है। इसका भी 80 प्रतिशत हिस्सा चीन के द्वारा दिया गया है।
पाकिस्तान में अपनी योजना की सफलता के बाद जहां चीन का वर्चस्व अब लगभग पूरा हो गया है, वहीं चीन द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर एशियाई राष्ट्रों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयासों में अगला देश उत्तर कोरिया है जहां चीन की योजना के हावी होने की सर्वाधिक सम्भावना है। चीन की कुत्सित योजनाओं का एक महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र म्यांमार में है जहां के प्राकृतिक संसाधनों का चीन द्वारा दोहन करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस हेतु एक प्राकृतिक गैस पाइपलाइन म्यांमार से चीन तक की बिछाई जा रही है और आने वाले वर्षों में, चीन को प्राकृतिक गैस की बिक्री से प्राप्त होने वाली कमाई म्यांमार की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन जाएगी। उल्लेखनीय है कि छोटे एशियाई देशों को चीन की इस दीर्घकालिक योजना के बारे में गंभीर आशंकाएं हैं, लेकिन वे उसके कर्ज के दलदल में बुरी तरह से फंस चुके हैं। बढ़ती लागतों के कारण होने वाला नुक्सान चीन के कुल 28.2 खरब डॉलर के ऋण के एक तिहाई हिस्से के समतुल्य है। जापान के बाद चीन की सरकार दूसरी सबसे बड़ी कर्जग्रस्त सरकार है। ऐसे में चीन के आर्थिक और वित्तीय पतन की संभावनाएं बढ़ गई हैं। इन हालातों में भारत को चीन के द्वारा प्रस्तुत की जा रही चुनौतियों का सामना करने के लिए आर्थिक और सामरिक रूप से प्रभावी रणनीति का निर्माण और उन पर अमल आवश्यक है।
(लेखक चीन व पाकिस्तान मामलों के अध्येता हैं)
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