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इस हिंदू बहुल देश में गोरक्षा की बात बड़ी कुटिलता से छुपाए रखकर ‘गोरक्षकों’ की सही गलत खबरें उड़ाना हैरानी पैदा करता है क्यों नहीं राज्य गोवध बंदी कानून लागू करते? जो लोग कुत्ते-बिल्लियों के प्रति प्रेम और आवारा कुत्तों के प्रति सद्भाव को भी सिद्धांत का प्रश्न बनाते हैं, वे गाय पर चुप्पी कैसे साध लेते हैं?
शंकर शरण
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश ेमें सालाना कम से कम 32,000 हत्या होती हैं। इनमें अधिकांश लोग निर्दोष होते हैं, लेकिन इस पर किसी नेता, बुद्धिजीवी को क्षुब्ध होते नहीं देखा जाता। इसलिए गोरक्षकों पर गुस्सा सच्ची चिंता नहीं, बल्कि प्रायोजित लगता है। फिर क्या कारण है कि कथित गोरक्षकों द्वारा की गई या बताई गई छिट-पुट हिंसा पर हर वर्ग के लोग आक्रोशित हैं? संविधान की धारा 48 में कहा गया है कि गोवध रोकने के संबंध में राज्य कानून बना सकते हैं। लेकिन आज तक गोरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पाई। गोरक्षकों के क्षोभ का मूल कारण यही है। इस अर्थ में उनका दुख और क्रोध वाजिब है, क्योंकि वे एक संवैधानिक अनुशंसा को ही लागू होते देखना चाहते हैं। गो-ब्राह्मण की रक्षा सदैव हमारे धर्म का अभिन्न अंग रही है! यह पूरी दुनिया में अभूतपूर्व है कि किसी देश के 80 प्रतिशत नागरिकों के धर्म की चिंता न की जाए, बल्कि उसकी उपेक्षा ही राजकीय-बौद्धिक नीति बन जाए! जरा आंख खोल कर दुनिया के देशों का व्यवहार देखें। किस देश की न्याय-प्रणाली वहां की बहुसंख्य जनता की धर्म-परंपरा की उपेक्षा करती है? भारत के सिवा कहीं नहीं। यही सारी समस्या की जड़ है।
इस तथ्य का सम्मान करना चाहिए कि यहां हिन्दुओं ने गोरक्षा के लिए जितने बलिदान दिए, उसका कोई अन्य उदाहरण नहीं है। जो इसे मूर्खता या अंधविश्वास समझते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर गांधीजी की बातों तक, गाय के प्रति श्रद्धा में इतना कुछ लिखा-कहा मिलता है कि पूरे ग्रंथालय बन जाएं। जिन्हें रुचि हो, वे श्री रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ की पुस्तक ‘सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक: गोमाता’ (दिल्ली, वॉयस आॅफ इंडिया, भारत भारती, 2015) से प्रामाणिक जानकारी हासिल कर सकते हैं। इसमें वैदिक साहित्य से लेकर आज तक गोरक्षा पर तमाम ऐतिहासिक विमर्श का विवरण है और उन कुतर्कोें और भ्रांतियों का उत्तर भी है जो मार्क्सवादियों, भ्रमित आधुनिकतावादियों और सेकुलरों ने फैलाए हैं।
यदि गाय के महत्व, आदर और भारतीय हिन्दू परंपरा से इसके संबंध पर ठोस तथ्यों एवं विद्वत तर्कों से कुछ होना होता, तो 70 या 50 वर्ष पहले ही सबकुछ तय हो चुका होता। यहां बात शुद्ध और क्रूर राजनीति की है, जिसे दलीलों से नहीं जीता जा सकता। यह राजनीति हिन्दू धर्म, समाज, ज्ञान और परंपराओं को नीचा मानने और बताने की है। अन्य सभी कारण दोयम हैं। वरना जो लोग कुत्ते-बिल्लियों के प्रति प्रेम और आवारा कुत्तों के प्रति सद्भाव को भी सिद्धांत का प्रश्न बनाते हैं, वे गाय पर चुप्पी कैसे साध लेते हैं? गोवध पर चुप्पी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है। उस विचारधारा से जो सेकुलरिज्म के नाम पर हर हाल में इस्लामपरस्ती को आवश्यक मानती है। इसीलिए यह मसला उलझन भरा लगता है। भारत में गोरक्षा का प्रश्न पहली बार सदियों पहले तब उठा जब यहां इस्लामी हमले शुरू हुए। उसके पहले यह कोई विषय ही नहीं था। वेद-पुराण, शिव-शक्ति, देव-पितर, बड़-पीपल, गंगा-यमुना की तरह गो-ब्राह्मण भारत में सब की श्रद्धा के पात्र थे। इसे भुलाकर बात करना घोर अज्ञान या हिन्दू धर्म को जान-बूझ कर उपेक्षित करना है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि इस्लाम इस दृढ़ उद्देश्य से भारत आया था कि वह हिन्दू धर्म-संस्कृति का समूल विनाश करेगा। वह कई देशों की धर्म-संस्कृतियों का नाश करने में सफल भी हुआ था। यहां भी उसी निश्चय को पूरा करने के अंग के रूप में गोहत्या और गोमांस का भरपूर उपयोग
किया गया।
भारत में इस्लामी सेनाएं अक्सर युद्ध में गायों को सामने रखकर लड़ती थीं, ताकि भारतीय सैनिकों को रोका जा सके। मंदिरों को तोड़कर वहां गाय का रक्त बहाया जाता था, ताकि हिन्दू फिर से वहां अधिकार न करें। आक्रमण वाले इलाके में कुएं, तालाब और नदी-नालों को गाय के रक्त से भ्रष्ट किया जाता था, ताकि हिन्दू प्यासे रह कर आत्मसमर्पण कर दें। असहाय हिन्दुओं के मुंह में जबरन गोमांस ठूंस कर उन्हें मुसलमान बनने के लिए विवश करना यहां इस्लामी शासन में सामान्य घटना थी। आततायी ब्राह्मणों और संन्यासियों की हत्या कर उनके मुंह में गोमांस ठूंसना कभी नहीं भूलते थे। कश्मीर में तीन दशक पहले तक यह सब हुआ है। क्षमा कौल के उपन्यास ‘दर्दपुर’ में इसका जीवन्त विवरण मिलता है। स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखा गया इतिहास गोवध के अंतहीन वर्णनों और इसके राजनीतिक उपयोग की चालों से भरा पड़ा है।
आज वह संपूर्ण इतिहास छिपाया जाता है। इसलिए नहीं कि किसी सामुदायिक सद्भाव की चिंता है, बल्कि इसके पीछे वही क्रूर राजनीति है जो हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रति वितृष्णा रखती है। अनेक नेहरूवादी, गांधीवादी, समाजवादी समझते हैं कि वे सच्चाई छिपा कर, झूठी-मीठी बातों से इस्लामी मतवाद को नरम कर सकेंगे। वास्तव में, इसका फल बिल्कुल उलटा मिलता रहा है। मामले को सही रूप में देखने के लिए यह भी नोट करें कि अंग्रेजों ने भी बड़े पैमाने पर गोहत्या की थी। लेकिन यह केवल भोजन के लिए था। अपनी यूरोपीय समझ से वे गोरक्षा को बकवास मान कर गाय को सहज आहार समझते थे। पर हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए उन्होंने कभी इसका प्रदर्शन नहीं किया। न किसी अन्य कारण से गोरक्त बहाया, न हिन्दू स्थानों को अपवित्र किया। इस बुनियादी अंतर को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है, क्योंकि इस्लामी आक्रांता गायों को भोजन के लिए कम और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए अधिक मारते थे। वह प्रवृत्ति खत्म नहीं हुई है। वर्तमान समस्या की जड़ यह है।
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने लिखा था कि मुस्लिम नेता हिन्दुओं पर दबदबा बनाने के लिए गोहत्या और इसका प्रदर्शन करते हैं। वे आज के बारे में ही कह रहे थे। यह प्रमाण है कि यह विषय किस तरह हिन्दू-विरोधी राजनीति से जुड़ा है। उनके शब्दों में ‘‘मजहबी उद्देश्य से गो-बलि के लिए मुस्लिम कानूनों में कोई जोर नहीं दिया गया है। जब मुसलमान मक्का-मदीना के हज पर जाता है, तो गो-बलि नहीं करता है। परन्तु भारत में वे दूसरे किसी पशु की बलि देकर संतुष्ट नहीं होते हैं।’’ (डॉ. भीमराव आंबेडकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, पृ. 267)। यह प्रवृत्ति आज भी है। गोरक्षकों पर गुस्सा करने वाले इस पर क्यों नहीं बोलते? यहां जो लोग केवल बौद्धिक, आर्थिक तर्कों से गोहत्या के पक्ष-विपक्ष में लिखते-बोलते हैं, वे नासमझ हैं। यह हिन्दू धर्म-संस्कृति का विषय है। इस मूल बिन्दु से बचना
अज्ञानता है। जिस तरह यीशु का ईश्वर-पुत्र होना, मुहम्मद का पैगंबर होना आदि किसी तर्क-वितर्क का प्रश्न नहीं, उसी तरह हिन्दुओं के लिए गोरक्षा कोई बौद्धिक प्रश्न नहीं है। यद्यपि हिन्दू ज्ञान-भंडार में गाय की उपयोगिता पर अंतहीन सामग्री है, किन्तु उसे सामने रखना बेकार है, क्योंकि यहां मामला दूसरा है। इसलिए केवल गोरक्षकों पर गुस्सा दिखा कर जो खुद को मानवतावादी मानते हैं, वे वास्तव में हंसी के पात्र हैं। मुस्लिम नेता ठीक ही समझते हैं कि हिन्दू उनसे डरते हैं, इसलिए सच्चाई छिपाकर दूसरी बातें करते हैं। ऐसी मानसिकता में वास्तविक सामुदायिक सद्भाव बनना असंभव रहता है। 1947 में मुसलमानों के लिए अलग देश बना कर दे देने के बाद भी गोवध बंद न करना एक गंभीर विभीषिका है। (इस विभीषिका में महान हिन्दू ज्ञान-ग्रंथों को औपचारिक शिक्षा से बाहर कर देना, अंग्रेजी भाषा को सत्ता का विशेषाधिकार देना और संगठित कन्वर्जन पर कड़ी रोक न लगाना भी जोड़ लें। तब हिन्दू समाज की दुर्दशा व पीड़ा का अनुमान होगा।)
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने साधुओं ने गोवध बंद करने के लिए अनशन किया था और फजीहत झेली थी। इंदिरा गांधी ने भी गोरक्षा आंदोलन कर रहे साधुओं पर गोली चलवाई थी। उसमें जिन लोगों ने जान दी, वे गुंडे या मूर्ख, अंधविश्वासी नहीं थे। वे उस महान हिन्दू परंपरा के योद्धा थे जिन्होंने विगत हजार वर्षों में धर्म और गो-ब्राह्मण की रक्षा में लाखों की संख्या में बलिदान दिया है। यह सब उन्हें भी समझना चाहिए जो गोरक्षा या अयोध्या, काशी, मथुरा जैसे विषयों को केवल दलीय प्रचार और चुनाव मुद्दा बना कर भूल जाते हैं या उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। हिन्दू धर्म-संस्कृति की रक्षा, उपयोगिता केवल भारत नहीं, वरन् पूरी मानवीय सभ्यता के प्रश्न हैं। इन्हें राजनीतिक मुद्दे बनाकर छोटा करना या दलबंदी का हिसाब करना भारी भूल रही है। दरअसल, अभी जो हो रहा है, वह उसी का कुपरिणाम है। हमारे बुद्धिजीवी लगभग पूरी तरह दलबंदी ग्रस्त मानसिकता के शिकार हैं। इसीलिए उनका प्रगल्भ हिस्सा मानवीय दु:ख-दर्द, हिंसा, हत्या, सामूहिक हत्या व विस्थापन को भी दलीय हिसाब से देखता है।
इसीलिए वे पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में इस्लामी आक्रांताओं का व्यंग्य नहीं सुनना चाहते, जो हर हिन्दू को दिन-रात त्रस्त रखते हैं। वे कहते हैं, ‘‘गोरू राखबि कैम्पे, टाका राखबि बैंके, बोउ राखबि कोथाय?’’ (गायों को सीआरपीएफ कैम्पों में रखकर बचाओगे, रुपये बैंक में रखकर बचाओगे, अपनी स्त्रियों को कहां रखोगे?) चूंकि यह हिन्दुओं पर हृदय विदारक उत्पीड़न का मामला है, इसलिए तमाम नेता, बुद्धिजीवी इसे नहीं देखते। गोरक्षकों पर गुस्सा दिखाने और गोवध पर चुप्पी रखने में भी वही विडंबना है। यदि मामला हिन्दुओं के दुख या तबाही का हो, बुद्धिजीवी चुप्पी साध लेते हैं। प्रगतिवादी, वामपंथी, सेकुलर लेखक, बौद्धिक जमात ने हिन्दू धर्म, हिन्दुत्ववादी राजनीति की निंदा की और तमाम इस्लामी इतिहास, कुरीतियों, अलगाववाद और आतंकवाद समेत मुस्लिम राजनीति का हरसंभव बचाव किया या चुप रहे। वह रुख अभी भी नहीं बदला है। हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि भारत में पिछले सौ साल से इस्लाम से संबंधित सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर गोल-मोल बात या शॉर्ट-कट उपाय खोजने के भोलेपन ने हिन्दुओं और मुसलमानों का भारी अहित किया है। वस्तुत: जब हिन्दू नेता, बुद्धिजीवी आदि इस्लामी राजनीति से जुड़ी समस्याओं व उसके सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास को पूरी सच्चाई के साथ देखेंगे और सहज रूप से उस पर विमर्श आरंभ करेंगे, तभी मुसलमानों के साथ सार्थक संवाद शुरू होगा। इसी से मुसलमानों को जीता जा सकता है। तब गोवध रोकने का उपाय भी सरलता से निकल आएगा। ल्ल
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