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गजब की तेजस्वी महिला थीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया। ग्वालियर ही नहीं, उनके संसदीय क्षेत्र गुना के लोग भी उनके ममत्व से बहुत प्रभावित थे। सरल जीवन की धनी राजमाता पर हाल ही में आई फिल्म 'एक थी रानी ऐसी भी' इसी वजह से दर्शकों के दिलों में स्थान बनाने में कामयाब रही है
प्रदीप सरदाना
पिछले कुछ समय से देखने में आया है कि दर्शक बायोपिक फिल्मों को बहुत पसंद कर रहे हैं। दंगल, नीरजा, एम. एस. धोनी और सरबजीत जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। मेरीकॉम, तलवार, द डर्टी पिक्चर, पानसिंह तोमर और भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में भी खूब पसंद की गई थीं। अब आत्मकथ्य-बायोपिक-फिल्मों में एक और फिल्म 'एक थी रानी ऐसी भी' का नाम भी जुड़ने जा रहा है।
यह फिल्म राजमाता विजया राजे सिंधिया की जिंदगी पर बनी है, जिन्हें ग्वालियर राजघराने की महारानी के रूप में ही नहीं, जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेता, श्रेष्ठ सांसद और सहृदय महिला के रूप में भी जाना जाता है। यह फिल्म विजया राजे जी की उस आत्मकथ्य पुस्तक 'लोकपथ से राजपथ' पर आधारित है, जिसे जानी-मानी लेखिका मृदुला सिन्हा ने 22 साल पहले लिखा था। सर्वविदित है आज मृदुला सिन्हा गोवा की राज्यपाल हैं। 1995 में प्रभात प्रकाशन ने जब 'लोकपथ से राजपथ पर' का प्रकाशन किया था, तब राजमाता जीवित थीं। तब से अब तक इस पुस्तक के 8 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया के जीवन पर फिल्म बने, इस पर तभी से विचार होने लगा था जब जनवरी 2001 में उनका निधन हुआ था। कुछ बरस बाद श्रीमती सुषमा स्वराज और मृदुला सिन्हा ने राजमाता पर यह फिल्म बनाने का फैसला लिया। इसके लिए राजमाता विजया राजे स्मृति न्यास का गठन भी किया गया जिसके माध्यम से फिल्म निर्माण आरम्भ हुआ। राजमाता की भूमिका के लिए लोकप्रिय अभिनेत्री और भाजपा सांसद हेमा मालिनी को और राजमाता के पति महाराजा जीवाजीराव सिंधिया की भूमिका के लिए जाने-माने अभिनेता और भाजपा सांसद विनोद खन्ना को लिया गया। मुंबई में 14 अक्तूबर, 2008 को फिल्म का भव्य मुहूर्त भी हुआ। लेकिन स्थितियां कुछ ऐसे बनीं कि फिल्म पूरी होने में 8 साल लग गए। यह फिल्म दिसम्बर 2016 में सेंसर बोर्ड से पास हुई जिसके बाद इसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन गत 18 अप्रैल को नयी दिल्ली के सीरी फोर्ट सभागार में हुआ। फिल्म प्रदर्शन से पहले 'राजपथ से लोकपथ पर' पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण 'रॉयल टू पब्लिक लाइफ' भी जारी किया गया।
इस मौके पर सभागार में पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, हरियाणा के राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी, गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, मध्य प्रदेश की मंत्री यशोधरा राजे, सांसद दुष्यंत सिंह, सांसद माया सिंह के साथ सिंधिया परिवार के कुछ अन्य सदस्य भी मौजूद थे। साथ ही फिल्म के प्रमुख कलाकार जैसे, हेमा मालिनी, अभिनेता सचिन खेडकर सहित अनेक गणमान्यजन उपस्थित थे। फिल्म का निर्देशन गुल बहार सिंह ने किया है। कुछ दिन पहले फिल्म मुंबई में अभिनेता अमिताभ बच्चन और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की उपस्थिति में जारी किया गया था। 21 अप्रैल को यह फिल्म देशभर के सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई।
सिर्फ एक कहानी नहीं है फिल्म
'एक थी रानी ऐसी भी' फिल्म राजमाता की निजी जिंदगी के साथ-साथ 1947 के आरंभिक दिनों से1975 के आपातकाल तक के दौर की बानगी प्रस्तुत करती है। फिल्म 1947 में उस कालखण्ड से आरम्भ होती है जब देश स्वतंत्र हो चुका था और भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल सभी रियासतों के विलय के लिए प्रयास कर रहे थे। पटेल चाहते थे कि यदि पहले ग्वालियर जैसी बड़ी रियासत का भारत में विलय हो जाए तो यह अन्य राजाओं और रियासतों के लिए एक मिसाल बनेगी। इसीलिए पटेल महाराजा जीवाजी राव को दिल्ली आकर मिलने का निमंत्रण देते हैं।
जीवाजी राव जहां अपनी पत्नी विजयाराजे का काफी आदर करते हैं, वहीं अपनी प्रजा के सुख-दु:ख का भी पूरा ख्याल रखते हैं। परिस्थितियों को समझते हुए महाराज दिल्ली जाने लगते हैं तो महारानी भी उनके साथ चल पड़ती हैं। हालांकि महाराजा अपना मत रखते हुए कहते हैं कि प्रजा से रायशुमारी करके पूछ लेना चाहिये। पर वे यह भी जानते हैं कि सरकार ऐसी रायशुमारी होने ही नहीं देगी इसलिए वे अपने सीने पर पत्थर रखकर एक दिन अपनी रियासत का देश के साथ विलय कर देते हैं। उधर देश में लोकसभा चुनावों में कांग्रेस लगातार अपना वर्चस्व बढाने में जुटी है। लेकिन ग्वालियर जैसे राज्यों में अब भी राजा-प्रजा का रिश्ता इतना मधुर है कि कांग्रेस वहां जीत नहीं पाती।
इसलिए जब कुछ गलतफहमियां दूर करने के लिए एक दिन विजयाराजे अचानक पंडित नेहरू से मिलने दिल्ली पहुंचती हैं तो प्रधानमंत्री उन्हें ही राजनीति में आने और गुना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दे देते हैं। यहीं से राजमाता की जिंदगी में एक नया मोड़ आता है। वे राजपथ से लोकपथ पर आ जाती हैं। उनके सांसद बनने के करीब 4 साल बाद मुंबई में उनके पति का निधन हो जाता है। जीवाजी राव की आयु तब मात्र 45 बरस की थी। महाराज के जाने से महारानी बुरी तरह टूट जाती हैं, यहां तक कि वे अगला चुनाव भी नहीं लड़ना चाहतीं। लेकिन धीरे धीरे परिस्थितियां उन्हें मजबूत बनाती जाती हैं। बाद में कांग्रेस की नीतियों और अत्याचारों को देखते हुए विजयाराजे कांग्रेस से अलग होकर जनसंघ में शामिल हो जाती हैं। लेकिन जब जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में आपातस्थिति लगाती हैं तो विपक्ष के कई महत्वपूर्ण नेताओं को जेल में बंदी बना लिया जाता है। राजमाता पहले इस गिरफ्तारी से बचना चाहती हैं लेकिन बाद में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देती हैं। उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल में जयपुर की महारानी गायत्री देवी के साथ रखा जाता है।
इसी दौरान विजयाराजे जी का अपने पुत्र माधवराव से अलगाव हो जाता है। इस अलगाव का कारण बनता है माधवराव का उनकी पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल होना। यह फिल्म राजमाता के व्यक्त्वि और विचारों पर रोशनी डालती है। और उस दर्द और पीड़ा को भी दिखाती है जब आजाद भारत की सरकार आमजन ही नहीं, अपने विरुद्ध होने वाले राजाओं पर भी भयानक अत्याचार करने में देर नहीं लगाती थी। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले छात्र संघों पर लाठियां-गोलियां चलवाकर उन्हें कुचलना। यहां तक कि आपातकाल में अविवाहित लोगों की जबरन नसबंदी करवाने की घटनाएं दिखाकर यह फिल्म कई काले अध्याय खोल देती है। दिलचस्प बात है कि फिल्म में कहीं भी कांग्रेस, जनसंघ, भाजपा आदि राजनीतिक दलों के नाम नहीं आते, लेकिन घटनाओं को ऐसे पिरोया गया है कि राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी समझ सकते हैं कि बात कहां की और कब की हो रही है। यूं फिल्म में पंडित नेहरू, सरदार पटेल, जी.बी. पंत जैसे किरदारों को दिखाया गया है, तो इंदिरा गांधी, नानाजी देशमुख और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे कुछ नेताओं का भी जिक्र किया गया है। हां निर्माण में लम्बा समय लगने से फिल्म में कुछ खामियां भी हैं। जैसे महाराजा और महारानी के साथ-साथ चल रहे कहानी के अहम पात्र सरदार आंद्रे के चरित्र को फिल्म के अंत से काफी पहले एकदम गायब कर दिया जाता है। साथ ही फिल्म में आपातकाल तक की घटनाओं को तो ठीक-ठाक जगह दी गई है लेकिन उसके बाद के महारानी की जिंदगी के 25 बरस चंद मिनटों में ही समेट दिए गए हैं।
जाहिर है, फिल्म की समय सीमा होती है और इस 125 मिनट की फिल्म में सब कुछ नहीं दिखाया जा सकता था। लेकिन कुल मिलाकर राजमाता के जीवन पर बनी यह एक अच्छी फिल्म है। उन्होंने विजयाराजे की भूमिका में खूब जमी हैं। हेमामालिनी ने अपने अभिनय ही नहीं अपनी 'बॉडी लैंग्वेज' को भी राजमाता जैसा बनाया है।
विनोद खन्ना ने भी महाराजा की भूमिका में अच्छा काम किया है। सरदार आंद्रे की भूमिका में सचिन खेडकर, रानी गायत्री देवी की भूमिका में कोनिका डांग और सत्या की भूमिका के साथ गार्गी नंदी ने भी न्याय किया है। गुल बहार सिंह ने अच्छा निर्देशन किया है। फिल्म का संगीत कहानी के अनुकूल है। अमृता फडणवीस और आनंदिता ने गीतों को अपने जादुई सुर में गाया है। फिल्म में राजसी भव्यता उभरकर आई है।
एक महिला की संघर्षपूर्ण दास्तान: गुलबहार सिंह
फिल्म के निर्देशक गुलबहार सिंह से बातचीत के प्रमुख अंश
इस फिल्म की शूटिंग कहां की गई, राजमाता के महल में भी शूटिंग की?
फिल्म की शूटिंग जयपुर, सवाई माधोपुर, रामोजीराव सिटी, हैदराबाद और मुंबई में की। राजमाता का महल अब संग्रहालय है इसलिए वहां शूटिंग नहीं कर पाए। मुंबई में उनका समुद्र महल तो टूटकर ऊंची इमारत बन गया है। हां, फिल्म तैयार होने से पहले वसुंधरा जी और यशोधरा जी ने इसे देखकर जो थोड़े-बहुत बदलाव करने को कहा था, वे हमने कर दिए थे। उनकी स्वीकृति के बाद ही फिल्म को रिलीज किया गया है।
फिल्म में कहीं भी कांग्रेस, भाजपा या जनसंघ जैसे राजनीतिक दलों का नाम न लेने के पीछे क्या कारण है?
हम इस फिल्म को ऐसा बनाना चाहते थे कि यह सिर्फ विजयाराजे जी की ही नहीं, किसी भी महिला की कहानी लगे। उनके राजनीति करियर को भी हम अधिक दिखाने से इसलिए बचे। यूं भी हमारा मकसद उनकी व्यक्तिगत कहानी दिखाने का ही ज्यादा था।
इसमें आपातकाल तक की घटनाओं को विस्तार से दिखाया गया है, लेकिन उसके बाद सीधे राजमाता के निधन पर पहुंच गए। ऐसा क्यों?
फिल्म की अवधि को देखते हुए बहुत कुछ छोड़ना पड़ा। वैसे पुत्र से अलगाव के बाद उनकी जिंदगी का जो एक सबसे अहम घटनाक्रम था वह राम जन्मभूमि को लेकर था, लेकिन विवाद से बचने के लिए हमने उसे छोड़ दिया।
सरदार आंद्रे का चरित्र शुरू में काफी प्रमुखता से दिखाया लेकिन बाद में वे अचानक गायब ही हो गए, क्यों?
बस, फिल्म की लम्बाई न बढ़े, इसलिए ऐसा करना पड़ा। आजकल पहले वाली बात नहीं है कि तीन घंटे की फिल्म बनाएं। आज ज्यादातर फिल्में दो घंटे के आसपास की होती हैं इसलिए व्यावसायिक दृष्टि से बंधे होने के कारण बहुत कुछ देखना पड़ता है।
राजमाता के जीवन का सही प्रस्तुतिकरण:मृदुला सिन्हा
'राजपथ से लोकपथ पर' की लेखिका मृदुला सिन्हा से बातचीत के प्रमुख अंश
आपकी पुस्तक 'राजपथ से लोकपथ पर' फिल्म बनाने का विचार कैसे आया?
पुस्तक का जब 22 साल पहले लोकार्पण हुआ था तो उसमें रा. स्व. संघ के श्री सुदर्शन जी, अटल जी और आडवाणी जी भी उपस्थित थे। तब सुदर्शन जी ने कहा था कि राजमाता की यह आत्मकथा पढ़कर ऐसा लगा जैसे उपन्यास पढ़ रहे हैं। यानी जिन्होंने भी इसे पढ़ा, उन्होंने सुझाव दिया कि इस पर फिल्म बनानी चाहिए। फिर मैंने और सुषमा स्वराज जी ने निर्णय लिया कि इस पर फिल्म
बनायी जाए।
फिल्म 2008 में बननी शुरू हुई, पर पूरी होने में इतना समय क्यों लगा?
फिल्म की काफी शूटिंग तो 2009 में हो चुकी थी पर उसके बाद कुछ कारणों से टलती गई, जो काम बचा था उसे पूरा करने में काफी समय लग गया और फिल्म पिछले वर्ष अगस्त-सितंबर में ही पूरी हुई।
यह फिल्म राजनीति पृष्ठभूमि पर है, इस कारण सेंसर बोर्ड ने क्या किसी दृश्य या संवाद पर आपत्ति की?
फिल्म के एक दृश्य पर जिसमें जब राजमाता जेल में जाती हंै तो वहां तीन महिलाएं आपस में लड़ाई कर रही होती हैं और गालियां दे रही होती हैं, तो सेंसर बोर्ड ने वे गालियां हटवाई हैं। बाकी कुछ काटा या बदला नहीं गया।
आप राजमाता और उनके पुत्र माधवराव के बीच संबंधों को कैसे देखती हैं?
उनमें राजनीतिक मतभेद थे, पर दिल से तो मां ही थीं, तो बेटे से अलग नहीं हो सकती थीं। परिवार में मतभेद और झगड़े होना तो आम बात है, पर इससे रिश्ते नहीं खत्म हो जाते। इस फिल्म के अंत में भी यही दिखाया है कि विजयाजी के निधन पर उनका पुत्र 36 घंटों तक उनके शव के पास बैठा रहता है और जब विजयाजी अस्पताल में होती हैं तो अपने बेटे और बहू को आशीर्वाद देती हैं।
महारानी पर पहले भी एक पुस्तक 'द लास्ट महारानी ऑफ ग्वालियर' आई थी, जिसे उन्होंने मनोहर मूलगांवकर के सहयोग से लिखा था। उसमें और आपकी पुस्तक में क्या फर्क है?
उनकी जो आत्मकथा मूलगांवकर जी ने लिखी थी, हमारी इस पुस्तक का आधार तो वही है, लेकिन वह अंग्रेजी में है। फिर उसका मराठी में अनुवाद किया गया और उसके बाद हिंदी में। तो हिंदी वाला अनुवाद उतना अच्छा नहीं था, साथ ही राजमाता उसमें कुछ और विषय जोड़ना चाहती थीं. तो फिर मैंने लिखा। मुझे वे सब कुछ बताती भी थीं और मेरा लिखा हुआ सुनती भी थीं। उसी में बहुत से बदलाव करके और 8 नए अध्याय जोड़कर मैंने यह पुस्तक लिखी।
पुस्तक लिखने के दौरान आप राजमाता से मिलने कहां-कहां गयीं?
मुझे लगभग 2 वर्ष लगे इसको लिखने में। इसके लिए मैं उनके पास दिल्ली, पूना, ग्वालियर, भोपाल, नागपुर, चित्रकूट जैसी जगहों पर गई।
ल्ल आप इस फिल्म से कितनी संतुष्ट हैं?
फिल्म से मैं बहुत संतुष्ट हं। राजमाता के जीवन का सही प्रस्तुतिकरण हुआ है। एक बात और है दुर्योगवश ही सही यह फिल्म विनोद खन्ना की आखिरी रिलीज फिल्म साबित हुई।
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