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महाशिवरात्रि पर विशेष-2
कला, कल्पकता, मनोविज्ञान, विज्ञान और पराविज्ञान का पंचामृत
विश्वनाथ कहां नहीं हैं? क्या उनकी प्रहेलिकाएं हमारे सामने ही बिखरी हैं और हम इतने भोले हैं कि अपने शंकर को नहीं समझ पाए! अपनी प्राचीन विरासत को निकट से जानना स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला अनुभव सिद्ध होगा। मानव जीवन के सभी आयामों को एक सूत्र में गूँथने के इस कौशल के कायल लोगों में आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक से लेकर आधुनिक चिकित्सा शास्त्री तक शामिल हैं। तो क्यों न लगाई जाए इस ज्ञानतत्व में डुबकी?
– प्रशांत बाजपेई
वलिंग और शिव के अलंकारों को लेकर हमारे मनीषियों ने अनेक तथ्य बतलाए हैं। शिवलिंग काम ऊर्जा के आध्यात्मिक ऊर्जा में रूपांतरण का प्रतीक है। त्रिशूल तमोगुण और रजोगुण के संतुलन का प्रतीक है। योगियों ने इसे यौगिक नाडि़यों इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना के प्रतीक के रूप में भी बतलाया है। कुछ वर्षों से शिवलिंग के विज्ञान को लेकर एक पोस्ट सोशल मीडिया में साझा हो रही है, जिसका आधार कुछ अतिविशिष्ट समानताएँ हैं। पहली समानता है नाभिकीय रिएक्टर के गुंबद और शिवलिंग की आकृति बिलकुल एक समान है। दूसरा शिवलिंग और नाभिकीय रिएक्टर दोनों पर ही लगातार पानी प्रवाहित किया जाता है। नाभिकीय रिएक्टर सदा जलस्रोत के पास बनाए जाते हैं जैसे कि देशभर में लाखों शिवलिंग नदियों, कुंडों और सरोवरों के पास स्थित हैं। न्यूक्लियर रिएक्टर को ठंडा रखने के लिये जिस जल का इस्तेमाल किया जाता है, उसे किसी और प्रयोग में नहीं लाया जाता। इसी प्रकार शिवलिंग पर जो जल चढ़ाया जाता है उसको भी प्रसाद के रूप में ग्रहण नहीं किया जाता। शिवलिंग की पूरी परिक्रमा नहीं की जाती और जिलहरी से बहकर आने वाले जल को भी लांघा नहीं जाता। अब ये कोई आश्चर्यजनक संयोग है या कुछ और यह तो कहा नहीं जा सकता। प्राचीन काल के किसी नाभिकीय रिएक्टर के पुरातात्विक अवशेष फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं।
साल 2008 में बीएचयू के भूगर्भ विज्ञान के पूर्व प्राध्यापक जी सी चौधरी तथा एसके अग्रवाल ने अपने अध्ययन में शिव की नगरी वाराणसी के भूजल में नाभिकीय पदार्थ यूरेनियम का उच्च प्रतिशत होने का पता लगाया था। संभवत: इसी के बाद से वाराणसी में प्राचीनकाल में नाभिकीय रिएक्टर होने के अनुमान लगाए जाने लगे। वास्तव में यह कोई ठोस प्रमाण नहीं है। इसी साल देशव्यापी अध्ययन में कर्नाटक के बंगलुरु, मध्यप्रदेश के सिवनी तथा मंडला जिलों के केवलारी व नैनपुर, पंजाब के बठिंडा और गुरुदासपुर, हिमाचल के गढ़वाल और शिवालिक के पहाड़ी इलाकों व दून में भूजल में रेडियोधर्मी तत्व रेडॉन पाया गया था। इस तरह की रेडियोधर्मिता सारी दुनिया के भूजल में पायी जाती है। परंतु प्राचीन भारत के वैज्ञानिक और शोधात्मक प्रवाह के बारे में ऐसा बहुत कुछ है जिस पर हम ठोस प्रमाणों के साथ गर्व की अनुभूति कर सकते हैं। महानतम आधुनिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ''पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।''
प्राचीन काशी की वास्तु रचना के बारे में बतलाते हुए दक्षिण के शिव भक्त और योगी सद्गुरू जग्गी वासुदेव कहते हैं- यह काशी एक असाधारण यंत्र है। ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना। इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया, जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो और जो हमेशा सक्रिय रह सके। और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले। काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है। इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।
सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुणा है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो आप केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे। हम उन चक्रों पर काम नहीं करते। शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां हैं।
पूरे काशी यानी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पंच तत्वों से बना है। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से, उनका विशेष अंक पांच है।
इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोस है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाई। यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामितिकि बनावट दिखाता है। गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्या दिखा रहे हैं। सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।
यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है। असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।
वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया। एक इंसान के शरीर में नाडि़यों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं। तो यह नाडि़यों की संख्या के बराबर है। यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी। इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था। इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो। कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।
यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई। ब्रह्मांड और इस काशी सूक्ष्म सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोड़ने के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई। मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर हम मानव शरीर को भी देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा। दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का। यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है ।
यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलेंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं। 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं। इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए। आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है। सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं। इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना। इन सारे उदाहरणों पर गौर करें तो प्राचीन भारत को कला, कल्पकता, मनोविज्ञान, विज्ञान और पराविज्ञान का पंचामृत कहा जा सकता है।
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