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हमारी देवभूमि के भक्त कवियों में कई रत्न हैं-कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, रैदास, मीरा आदि। इन संतों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज में सामाजिक समरसता एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष की जो ज्योति जलायी थी, सालों बाद भी उसकी आभा जरा भी कम नहीं हुई है। इन भक्त कवियों में ही एक असाधारण संत हैं रैदास, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से ऐसा जनानंदोलन खड़ा किया जिसके मूल में सामाजिक एकता, समानता, समरसता, सामंजस्य और मानवीय मूल्यों के प्रति गहन आस्था निहित है।
जात पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई
संत रैदास कबीर के समसामयिक व उनके गुरुभाई माने जाते हैं। उन्होंने कबीरदास जी की उक्ति 'जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई' को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया था। कहा जाता है कि संत रैदास का जन्म चर्मकार कुल में काशी के मडुआडीह गांव में 1398 में माघ पूर्णिमा को रविवार के दिन हुआ था। इसी कारण उनका नाम रविदास रखा गया जो कालान्तर में रैदास के रूप में विख्यात हो गया। इनके पिता का नाम 'रग्घु' और माता का नाम 'घुरविनिया' बताया जाता है। संत कबीर की भांति रैदास भी गृहस्थ भक्त कवि थे जो जीविकोपार्जन के लिए पादुकाएं बनाने का कार्य पूरी निष्ठा से किया करते थे। सत्संग व संत सेवा की भावना उनमें बाल्यकाल से ही विकसित होने लगी थी। इनका जीवन आज भी समाज के लिए प्रेरणादायक है।
निर्गुण गुरु की सगुण शिष्या
भक्ति आंदोलन पर थोड़ा गहराई से विमर्श करें तो यह बात साफ होती है कि सगुण और निर्गुण, इन दो धाराओं में बंटे भक्ति आंदोलन में ऊंची जातियों से संबद्ध संत सगुण उपासक थे और छोटी तथा अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के संत निर्गुण उपासक। मगर रामानन्द, रविदास और मीरा की गुरु-शिष्य परम्परा इसका अपवाद है। रामानंद उच्च जाति के सगुणोपासक थे पर उनकी शिष्य परंपरा में नीची जाति के कबीर और रविदास का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ठीक इसी तरह मीराबाई उच्च राजपूत कुल की सगुणोपासक भक्त थीं लेकिन उन्होंने अपना गुरु संत रैदास को स्वीकार किया था।
कुरीतियों के खिलाफ जगायी अलख
संत रैदास का जीवनकाल 15वीं से 16वीं शती के बीच का माना जाता है। वह समय निरंकुश और स्वेच्छाचारी मुगल शासकों का था। संत रैदास ने हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही तरफ के कट्टर और रूढि़वादी तत्वों की खुलकर आलोचना की, पंथ के नाम पर होने वाले युद्धों के खिलाफ समाज में जनजागरण किया, सभी बाह्य आडम्बरों को व्यर्थ बताकर सादगी बरतने, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा और हृदय में पवित्रता रखने की बात कहकर उन्होंने जन समान्य को सहज-साधना की राह दिखायी।
संत रैदास ने ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जिसमें कोई ऊंच-नीच, भेेदभाव व राग-द्वेष न हो। सभी मनुष्य बराबर हों, सामाजिक कुरीतियां न हों। कहा जाता है कि वे स्वयं भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे। जब वे अपने स्वरचित पदों को भाव-विभोर होकर सुनाते थे तो सुनने वाले सुधबुध खो देते थे। उनका मानना था कि ईश्वर भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार जरूरी है। उन्होंने अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ विनम्र व्यवहार करने व शिष्टता का विकास करने पर बल दिया। संत रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत थी। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों की शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान सहज ही हो जाता था। उनको इस बात का बखूबी पता था कि सामाजिक एकता तभी आ सकती है जब सभी के पास अपना घर हो, पहनने के लिये कपड़े हों तथा खाने के लिए पर्याप्त अन्न हो-
ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसे, रविदास रहै प्रसन्न॥
रैदास जी के इसी श्रम के दर्शन को समझकर महात्मा गांधी ने अपने 'रामराज्य' के दर्शन में इसीलिए पारम्परिक हथकरधा तथा कुटीर उद्योगों को महत्व दिया था। -पूनम नेगी
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