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भारत के जिस स्वरूप और जिन भौगोलिक सीमाओं को हम वर्तमान में देख पा रहे हैं, वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बहुत बाद तक चले संघर्ष और एकीकरण के अनथक चले अभियान का परिणाम है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी बहुत से ऐसे क्षेत्र बाकी थे, जिन पर स्वाभाविक और नैसर्गिक तौर पर भारतीय गणराज्य का शासन होना ही चाहिए था। आज 1,32,000 से अधिक सेवा प्रकल्प चला रहे संघ द्वारा उस समय भारत गणराज्य गठन के जो प्रयास किये गए, उनमें से बहुत से प्रयासों पर से पर्दा उठना अभी बाकी है। गोवा विलय इनमें से एक है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विषय में हम जब भी चर्चा करते हंै तो वर्तमान भारतीय भूगोल के कुछ भूभागांे पर स्पष्ट और घोषित रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अमिट छाप पाते हैं। संघ और इस राष्ट्र के लाखों राष्ट्रवादियों के ह्दय में विभाजित भारत के जो घाव यदा-कदा हरे होते रहते थे (और रहते हैं) यह उसीं का ही परिणाम था कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी इन राष्ट्रवादियों द्वारा कुछ तत्कालीन आौपनिवेशिक क्षेत्रों, जो कि फ्रांस या पुर्तगाल के कब्जे में थे, के लिए संघर्ष चलता रहा और इन क्षेत्रों में विदेशी शासन का खत्मा होते ही ये भारतीय गणराज्य का भाग बनते गए और इन पर भारतीय सुशासन स्थापित होता गया। संघ के इस अभियान का ही एक ज्वलंत उदाहरण है दादरा नगर हवेली।
1954 में भारत को स्वतंत्र हुए 7 वर्ष हो चुके थे। अंग्रेजों के जाने के साथ ही फ्रांस ने एक समझौते के अंतर्गत पुदुचेरी आदि क्षेत्र भारत सरकार को दे दिए किन्तु अंग्रेजों के पूर्व आए पुर्तगालियों ने भारत के अनेक क्षेत्रों पर अपना शासन बनाए रखा। पुर्तगालियों ने अपने कब्जे वाले क्षेत्रांे में डा़ॅ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह को कुचलने का निर्णय लिया और इस हेतु सैनिकों की बड़ी तैनाती के साथ-साथ शस्त्रों की जमावट आदि की गई। गोवा, दमन-दीव और दादरा नगर हवेली के स्वतंत्र होने की आशा क्षीण होने लगी थी। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारी मातृभूमि का कुछ हिस्सा गुलाम था इसका दु:ख सबको था। ऐसे समय में कुछ राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने 'आजाद गोमान्तक दल' की स्थापना कर इस दिशा में प्रयत्न किया। इस अभियान के अंश रूप में महाराष्ट्र-गुजरात की सीमा से सटे दादरा नगर हवेली का एक हिस्सा लक्ष्य रूप में निश्चित किया गया। बाबा साहब पुरन्दरे, संगीतकार सुधीर फड़के, खेलकूद प्रसारक राजाभाऊ वाकणकर, नाना काजरेकर, श्रीकृष्ण भिड़े, नासिक स्थित भोंसले सेना स्कूल के मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, ग्राहक पंचायत के बिन्दु माधव जोशी, पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्रीधर गुप्ते आदि उस समय नवयुवक ही थे। मन में पुर्तगालियों की परतंत्रता की पीड़ा लिए यह दल उस समय रा़ स्व़ संघ के महाराष्ट्र प्रमुख बाबाराव भिड़े व विनायक राव आप्टे से मिला और उन्हें सशस्त्र क्रांति की योजना बताई। इसके पश्चात संघ के नेतृत्व में एक व्यवस्थित, गुप्त, सशस्त्र संघर्ष की योजना बनाई गई। दादर नागर हवेली को मुक्त कराने के इस अभियान को पूर्ण और सफल करने के लिए धन की आवश्यकता स्वाभाविक तौर पर थी, जिसके लिए सुधीर फड़के ने बीड़ा उठाया। फड़के ने स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर से संपर्क कर पूरा विषय बताते हुए एक कार्यक्रम आयोजित करने का निवेदन किया, जिसे लता जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया।
यह संगीत कार्यक्रम पुणे के हीरालाल मैदान में हुआ, जिससे बहुत धन एकत्रित हुआ किन्तु वह भी कम पड़ा। जिसके बाद स्थानीय स्तर पर नागरिकांे और संगठन समितियों आदि का इस हेतु उपयोग किया गया। धन, साधन, संसाधन इकट्ठा करने के बाद इस योजना को कार्य रूप देने के लिए 31 जुलाई, 1954 को मूसलाधार वर्षा में लगभग दो सौ युवकों का जत्था दादर नगर हवेली की राजधानी सिलवासा की ओर रवाना हुआ। यह सशस्त्र जत्था कहां क्यों, किसलिए जा रहा था किसी को पता नहीं था। इस विषय में इस जत्थे ने बाबाराव भिड़े आप्टे के मुखारबिंद से केवल एक वाक्य सुना था कि वाकणकर जी के साथ जाइए। आश्चर्यजनक रूप से इस वाक्य को आदेश मानकर सैकड़ांे नवयुवक अनुशासित सैनिक की भांति दादर नगर हवेली कि ओर कूच कर गए। विष्णु भोपले धनाजी, बुरुंगुले पिलाजी, जाधव मनोहर निरगुड़े, शान्ताराम वैद्य प्रभाकर, सिनारी बालकोबा साने, नाना सोमण गोविन्द मालेश, वसंत प्रसाद, वासुदेव भिड़े एवं उनके साथी साहसी तरुणों ने अपने नेता के पीछे चलकर प्राणों को तो बलि पर चढ़ाया किन्तु इस पुर्तगाल शासित क्षेत्र पर भारतीय ध्वजा फहरा दी। किसी ने भी अपने स्वजनों को यह नहीं बताया कि वे जा कहां रहे हैं तथा कब आएंगे। घर जाएंगे तो अनुमति नहीं मिलेगी, इस डर से कुछ लोग सीधे स्टेशन चले गए। सशस्त्र आन्दोलन कैसे करना है, इसकी जानकारी किसी को भी नहीं थी, फिर भी वे अपने अभियान में सफल रहे। राजाभाऊ वाकणकर, सुधीर फड़के, बाबा साहब पुरन्दरे, विश्वनाथ नरवणे, नाना काजरेकर आदि इस आन्दोलन के सेनानी थे, उन्होंने उस क्षेत्र में रहकर संग्राम स्थल की सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी। विश्वनाथ नरवणे गुजराती अच्छी बोलते थे। उन्होंने स्थानीय जनता से गुप्तरूप में मिलकर बहुत जानकारी प्राप्त की थी। राजाभाऊ वाकणकर ने कुछ पिस्तौलें एवं अन्य शस्त्र जमा कर लिए थे। इस प्रकार युद्धथल की छोटी-छोटी जानकारी, शस्त्र सामग्री एवं पैसा इकट्ठा होने के बाद श्री बाबाराव भिड़े ने पुणे से तैयार हो रहे जत्थे के सैनिकों को प्रतिज्ञा दिलाई। स्पष्ट शब्दों में सूचनाएं दीं और मेरा रंग दे बसंती चोला गीत गाते-गाते संघ के संस्कारों से संस्कारित देशभक्तों की टोली अदम्य साहस के साथ निकल पड़ी।
ये साहसी 31 जुलाई की रात को सिलवासा पहुंचकर अंधेरे और मूसलाधार वर्षा में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ने लगे और पुर्तगाली मुख्यालय के परिसर में आते ही योजनानुसार पटाखे फोड़ने लगे। पुर्तगाली सैनिकों को वह आवाज बन्दूकों की लगी, अचानक भयभीत कर देने वाले वातावरण से सहम गए। इसके बाद जो हुआ वह पुर्तगालियों के पतन की कहानी बना। आजाद गोमान्तक दल जिन्दाबाद…भारत माता की जय-के जयघोष के साथ युवकों के कई दल वहां प्रवेश कर गए। इस दौरान विष्णु भोपले ने एक पुर्तगाली सैनिक का हाथ काट डाला। यह देखकर बाकी सैनिक डर गए और ने शरण की याचना की। इन वीरों ने पुलिस चौकी एवं अन्य स्थानों से पुर्तगाली सैनिकों की चुनौती को समाप्त किया और 2अगस्त की सुबह रा.स्व. संघ के नेतृत्व में दादर नगर हवेली गए राष्ट्रभक्त युवकों के दल ने वहंा से पुर्तगाली शासन के झंडे को उतारकर भारत का तिरंगा फहरा दिया।
इस दल ने दादरा नगर हवेली के भारतीय गणराज्य में विलय के बाद भी सावधानी रखते हुए इस क्षेत्र से वापस कूच नहीं किया बल्कि सभी 15अगस्त तक वहीं रहकर स्वतंत्रता दिवस की परेड और तिरंगा ध्वजारोहण कराकर ही वापस लौटे। इस प्रकार दादरा नगर हवेली के भारत गणराज्य में विलय का अध्याय पूर्ण हुआ। इस वर्षगांठ पर गोमांतक सेना के सभी जवानों का राष्ट्र गौरवपूर्ण स्मरण करता है। ऐसे वीर पुन: पुन: इस धरती पर जन्मेे और भारत भूमि की मान प्रतिष्ठा में वृद्धि करें, यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-प्रवीण गुगनानी
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