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संसद का शीत सत्र समाप्त हो गया। यह सत्र याद किया जाएगा तो इसलिए क्योंकि विधायी तौर पर जो करना तय था उसे छोड़कर राजनीतिक तौर पर विपक्ष द्वारा जो किया जाना था वह सब इस दौरान किया गया। तथ्य यह है कि इस हंगामे में सत्र का 64 प्रतिशत समय गैर-विधायी कायार्ें की भेंट चढ़ गया।
खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। अच्छा इसलिए कि संसद के इस घटनाक्रम ने पहली बार इन सवालों पर विचार करने के लिए बड़े नेताओं, विशेषज्ञों और विचारकों को ही नहीं आम जनता तक को बाध्य कर दिया है कि आखिर इस देश में लोकतंत्र का अर्थ क्या है? इस सत्र के हश्र ने सुभीते की लामबंदी और वंशवादी राजनीति के दुष्चक्र को आम लोगों के सामने उघाड़कर स्पष्ट कर दिया।
देश की सबसे बड़ी पंचायत में सांसदों को चीखते-चिल्लाते, हंगामा मचाते देखना दु:खद है। इससे भी दु:खद उन मुद्दों का विश्लेषण है जिन्हें आगे करते हुए सदन की कार्यवाही में अड़चन डाली गई। हेराल्ड मामला न्यायालय में है। सम्मन आरोपियों के लिए न्यायालय द्वारा जारी हुआ। इसे कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न कैसे बना सकता है? असहिष्णुता को मुद्दे की तरह गर्माने वाले सदन में इस बहस से कतराते या सदन को बाधित करते कैसे दिख सकते हैं! और असम में राहुल गांधी को मंदिर में प्रवेश न करने देने की बात… वह तो कोरी अफवाह ही थी।
कोई शक नहीं कि सदन पहली बार ठप नहीं हुए हैं। अतीत में भी ऐसी घटनाएं घटी हैं। लेकिन उस इतिहास में और इस वर्तमान में जमीन-आसमान का फर्क है। यह नहीं भूलना चाहिए कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दौर में जब-जब सदन का कामकाज बाधित हुआ उसका आधार अकथनीय भ्रष्टाचार के संगीन मामले रहे। तब 2जी जैसे घोटालों को सदन में नकारने वालों के होंठ अब नीलामियों के बाद आंकड़ों को रकम में बदलते देख सिल गए हैं। सो, यह कहना गलत नहीं कि तब जनता को संसद का यह गतिरोध भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन का भाग लगता था।
घपले-घोटालों की दिन पर दिन लंबी होती सूची को ढोने वालों की इच्छानुसार तब सदन चलता, या नहीं चलता-देश को पता था कि इनमें से उसका हित किस बात में है। यह तर्क किसी को चुभता हो तो पिछले आम चुनाव के नतीजे देख लेने चाहिए। लोकसभा चुनाव परिणामों ने साबित किया कि जनता अपने हित को बखूबी पहचानती थी।
और राज्यसभा? संसद का जो उच्च सदन जनता की भावनाओं को, उसकी ऊर्जा को मार्गदर्शन देने का अभिप्राय रखता हो, जिस सदन से कानूनों को अंतिम रूप देने से पहले उनके बारीक विश्लेषण और विशेषज्ञता पूर्ण राय की कल्पना रही हो क्या अब अपनी भूमिका से न्याय कर पा रहा है? बीजू जनता दल से लोकसभा सांसद बैजयंत जे पांडा ने जब अपने एक लेख में राज्यसभा की शक्तियां सीमित करने की पैरवी की तो बात विशेषाधिकार हनन तक जा पहुंची।
उच्च सदन के निर्दलीय सदस्य राजीव चन्द्रशेखर कहते हैं कि मानसून सत्र से शीत सत्र तक दिल्ली में सिर्फ मौसम बदला है और कांग्रेस सुधारों में अड़चन पैदा करने, विधायी कायार्ें को पंगु बनाने की भूमिका से बाहर नहीं निकल पाई है।
तर्क अपनी जगह, किन्तु यह स्थिति अपने आप में विचित्र है। एक सजग, सतर्क लोकतंत्र में संसद के दोनों सदनों से निश्चित अपेक्षाएं रहती हैं, रहनी भी चाहिए। किसी सदन के शक्ति-प्रदर्शन का 'मैदान' या राजनीतिक कड़वाहट का मंच बनने की उम्मीद नहीं की जाती। औपनिवेशिक शासन से निकलने और 'वेस्टमिंस्टर मॉडल' को अपनाने के बावजूद भारतीय संसद की अपनी छवि है। हमने यदि अपने उच्च सदन की शक्तियों को ब्रिटेन की तर्ज पर इतना शिथिल नहीं किया कि उसकी भूमिका विधेयकों को अंतिम पारित करने में निर्णायक न रहे तो इसके अपने कारण हैं। भारतीय लोकतंत्र में दोनों सदनों की साझी सोच के साथ आगे बढ़ने के भाव का बने रहना जरूरी है। चिंता की बात यह है कि इस शीत सत्र में उच्च सदन की कार्यशैली पर सवाल उठे।
बहरहाल, अपने संक्षिप्त कामकाज और भारी हो-हल्ले के साथ यह शीत सत्र विदा तो हो गया लेकिन जाते-जाते पूरे देश में सवालों के अलाव सुलगा गया। क्या महत्वपूर्ण विधायी कायार्ें का रास्ता, इस देश के विकास का पहिया, किसी राजनीतिक दल के हित के चलते रोका जा सकता है?
भ्रष्टाचार-मुक्त भारत और हंगामा-मुक्त संसद किसे नहीं चाहिए? इतने सारे, इतने तीखे सवालों के साथ इस सत्र के समापन ने देश की आंखें खोल दी हैं। लटके हुए काम भले ही अगली बार हो जाएं , इस बार भी यह एक बड़ा काम तो हुआ ही है।
इसलिए, जो हुआ, अच्छा हुआ।
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