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हरिकृष्ण निगम
स्वतंत्रता के बाद देश की राजनीति में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम भारतीय जीवन दृष्टि एवं कर्म मर्यादा पर आधृत एकात्म मानववाद एक नये आर्थिक राजनीतिक दर्शन के रूप में विकल्प के रूप में उभरा था और उसे जो बुद्धिजीवियों में स्वीकृति मिली थी उस पर आज भी चकित होना पड़ता है। उनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की समय-समय पर सैद्धांतिक रूप से तुलना करने पर इतनी समानताएं सामने आती हैं कि उनकी पृष्ठभूमि का आज फिर एक समग्र आकलन अपेक्षित है। यद्यपि दीनदयाल जी की संशयपूर्ण स्थिति में 11 फरवरी 1968 को केरल प्रांत के कोझीकोड में हुए जनसंघ के विराट अधिवेशन में जब अध्यक्ष बनाया गया था उसके बाद मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका शव मिला था उसके बाद उनके सहयोगियों एवं उनके अनुयायियों को ही उनकी विचारधारा की सामयिकता व अनिवार्यता को पुष्ट करना पड़ा था। जब हम लोहिया, जयप्रकाश और दीनदयाल जी के विचारों में साम्य सूत्रों की खोज करते हैं तब बाद के वर्षों में उन्हें कार्यान्वित करने की दिशा में ठोस प्रयास अटल जी व भाऊराव जी के साथ नानाजी देशमुख ने अपने मार्गदर्शन के कालक्रमों में किया था। सन्1967 में ही आम चुनावों के बाद देश की राजनीति ने गैर कांग्रेसवाद की अनेक प्रदेशों में लहर पकड़ी थी वह कब तिरोहित हुई यह एक त्रासदी थी। जयप्रकाश जी और दीनदयाल जी की वर्षों तक अलग-अलग टोली थी पर वे एक ही उद्देश्य के लिए चलते रहे थे। जयप्रकाश जी एक लम्बी, पीड़ायुक्त भूलभुलैया से गुजरते हुए जब अपने जीवन के अंतिम वर्षों में संघ के कर्मठ कर्णधारों के सम्पर्क में आए थे, तब उन्हें लगा था कि वे राजनीतिक धर्म की सम्पूर्ण परिभाषा की देहरी पर पहुंच चुके हैं। एक बार वहां पहुंचकर उनका समूचा संशय, उनकी हताशा, ऊहापोह, सुबह की धुंध की तरह छितरा गया था। यह उनका साहस और देश का सौभाग्य था इस देहरी के परे उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का अभियान शुरू कर पाप से युक्त कांग्रेसी व साम्यवादी राजनीति के लिए एक विकल्प प्रस्तुत किया था। दीनदयाल जी का भी यह विश्वास था कि इतिहास का हर मोड़ अपनी आवश्यकता के अनुरूप महापुरुष पैदा कर लेता है जो परिस्थितियों के संदर्भ में प्रताडि़त मूक समाज को प्रखर आवाज देने के लिए सक्षम होते हैं।
भारतीय जनसंघ के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता बलराज मधोक ने अभी कुछ वर्ष पहले सन 2003 में अपने एक आलेख में दीनदयाल जी का एक संस्मरणात्मक उल्लेख करते हुए एक रोचक टिप्पणी की थी। जयप्रकाश जी ने मधोक जी की दीनदयाल जी, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अध्यक्ष व भारतीय जनसंघ के महासचिव थे 1962 के चीनी आक्रमण के तुरंत बाद उनसे एक मीटिंग कराने का अनुग्रह किया था। यह मीटिंग हुई भी पर असफल रही। यहां तक कि नेहरूवादी, साम्यवादी एवं कथित सेकुलरवादियों के प्रभाव में दीनदयाल जी जयप्रकाश जी को प्रभावित न कर सके। उल्टे जे.पी.ने एक प्रेस वार्ता में रा.स्व.संघ को प्रतिबंधित करने की मांग भी कर डाली थी। पर 1974 आते-आते जयप्रकाश जी में एक विस्मयजनक परिवर्तन आ चुका था। बिहार का छात्र आंदोलन असफल हो गया था और उनकी छवि भी दांव पर लग चुकी थी। जयप्रकाश जी का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ताकत का अहसास हो चुका था जो संघ से सम्बद्ध था। इंदिरा गांधी की आपातकालीन छवि व अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से उन्हें अपनी सम्पूर्ण क्रांति में बल भरने के लिए फखरुददीन अली अहमद की आपातकाल की घोषणा ने आग में घी का काम किया था।
यह सर्वविदित है कि 1973 के बाद देश में जो राजनीतिक उथल पुथल मची, उनमें अधिकांश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उससे जुड़े संगठनों का बिना लाग लपेट के स्पष्ट संबंध था। 1967 में कुछ राज्यों में गठित और गैर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों में संघ जनसंघ से जुड़े लोगों की सहभागिता भी थी और राजनीतिक बुद्धिमत्ता, पारदर्शिता, वाक्पटुता एवं रणनीतिक चातुर्य की खुलकर सराहना भी होती भी। नेहरू-गांधी व वामपंथी विचारधारा के संघ को अस्पृश्य बनाने का दुष्प्रचार सभी ने होता देखा। अलग-अलग राजनीतिक दलों को भी ठेठ भाषा में अपनी औकात का पता चल गया था। कांग्रेस अपनी कूटनीति से आगे भी सत्ता में रहेगी इस पर पहली बार प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे थे।
लोकनायक जयप्रकाश जी और संघ परिवार से उनके जीवन के अंतिम अध्याय में जो निकटता एक समय नानाजी देशमख एवं रज्जू भैया, अटल, व सुदर्शन जी, जगदीश माथुर व कैलाशपति मिश्र व सैकड़ों सामान्य कर्मठ स्वयंसेवकों के बीच बनी उस पर विपुल साहित्य उपलब्ध है जिससे देश की सामान्य जनता को लगता है अब तक वंचित रखा गया है। यहां कुछ झलकियों को देना सर्वथा समीचीन होगा क्योंकि देश विभाजन के तुरंत बाद कराची में 1927 में जन्मे युवा तथागत राय जैसे भारतीय जनसंघ से अरसे से जुड़े समर्पित नेता आज भी याद करते हैं। उस पीढ़ी के अनेक युवा नेता कमर कसकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद चुके थे। उन युवाओं की कतार में ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, यज्ञ दत्त शर्मा, सुंदर सिंह भंडारी, जगन्नाथ राव जोशी, गोपाल राव ठाकुर, कुशाभाऊ ठाकरे आदि देश की आजादी आने के पहले से ही अग्रगण्य थे।
पूर्व सांसद डा.शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने जयप्रकाश नारायण एवं संघ परिवार शीर्षक 'एक शोधपरक आलेख में नानाजी देशमुख के पटना के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक दिन जब वे पटना के राजेन्द्र नगर स्थित प्रदेश कार्यालय से पैदल निकले, उन्होंने मुझसे कहा कि गाड़ी निकालो एक जगह जाना है। मैंने संकोचवश पूछा, कहां? तो उन्होंने कहा गांधी मैदान चलना है। मैंने फिर पूछा क्या आप जे.पी.का भाषण सुनने जाएंगे? आप तो खुद ही उनसे चर्चा कर चुके हैं, कि उन्हें वहां किस-किस विषय पर बोलना है।
नानाजी ने कोई जवाब नहीं दिया और फिर बोले चलो तो। फिर हम लोग गांधी मैदान पहुंचे। उन्होंने गाड़ी में बैठकर ही जयप्रकाश जी का भाषण सुना। भाषण जब समाप्त हुआ तो प्रसन्नतापूर्वक बोले 'लोग बेकार अफवाहें फैलाते हैं कि जेपी बूढ़े हो गए हैं, उनकी स्मरण शक्ति क्षीण हो गई है। वे दक्षिणपंथियों के स्वेच्छा से मोहरे बनकर बहुत कुछ अनावश्यक और असंगत बोल जाते हैं। जेपी का दिमाग और स्मरणशक्ति बिल्कुल ठीक है। सुबह ही जितने बिन्दुओं पर मेरी चर्चा हुई थी सभी पर विस्तार से उन्होंने गांधी मैदान के भाषण पर स्पष्ट रूप से बोला।'
गांधी मैदान के भाषण में एक स्थान पर उन्होंने कहा था 'कुछ लोग इस आंदोलन का इसलिए विरोध करते हैं कि इसमें रा.स्व.संघ के लोग शामिल हैं, जनसंघ के लोग शामिल हैं। मैंने तो सबका आह्वान किया है कि जो दुशासन से लड़ना चाहता है, राष्ट्रभक्त है, मेरे साथ आ सकता है। जो दुराग्रहवश नहीं आना चाहते हैं मैं उनकी चिंता क्यों करूं? मैं जानता हूं कि संघ-जनसंघ का नाम पूरे बिहार में है, पूरे देश में है। उनके समर्पित कार्यकर्त्ता हैं जिन्हें मैं छोड़ नहीं सकता हूं।' वह कदाचित पहला अवसर था जब जेपी ने खुलकर जनसंघ व संघ के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों को स्वीकार किया था और भविष्य में भी उसे घनिष्ठ रखने की घोषणा की थी। पंडित दीनदयाल जी की फकीरी जैसी दिनचर्या व चिंतन की गूंज उनके उस ऐतिहासिक भाषण में थी। देश एवं समाज से संबंधित विषयों पर भी उनकी दृष्टि वैसी ही थी। वे इस देश को अखंड एवं प्राचीन मानते हुए इसे यूनियन ऑफ स्टेट्स, नेशन इन मेकिंग या नवोदित राष्ट्र कहने पर घोर आपत्ति करते थे। देश की गंगा जमुनी संस्कृति वाला या विविध संस्कृति वाला जमघट या सम्प्रदाय कहने वालों को भी ठीक नहीं मानते थे।
एक घटनाक्रम अधूरा ही रह जाएगा यदि हम यह स्मरण न करें कि 4 नवम्बर 1973 को जेपी के नेतृत्व में विशाल जन प्रदर्शन आयोजित हुआ था। उसके कुछ पहले ही नानाजी को बिहार से निष्कासित कर दिया गया था। फिर भी नानाजी नाम बदलकर रेल की द्वितीय श्रेणी 3 टियर में दिल्ली से पटना के लिए चल पड़े। रास्ते में बक्सर के आसपास एक टीटी को थोड़ा संदेह हुआ और उसने पूछा कि आप नानाजी देशमुख हैं? नानाजी ने तपाक से जवाब दिया 'पागल हो? नानाजी देशमुख जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री हैं। उतना बड़ा नेता जो सदा एसी में सफर करता है, उसे कहां ढूंढ रहे हो, जाओ एसी में खोजो।' टीटी धोखा खा गया और आगे बढ़ गया और नानाजी आरा में गाड़ी रुकते ही उतर पड़े। क्योंकि तब तक उन्हें आभास हो गया था कि पटना स्टेशन पर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है। आरा से उन्हें श्री सुधीर कुमार नारायण, एडवोकेट जिनका घर संघ-जनसंघ के बड़े नेताओं का विश्राम स्थल था, अपनी गाड़ी में बैठाकर पटना ले गए। नानाजी उनके घर नहीं गए, सीधे गांधी संग्रहालय पहंुचे, जहां से जीप पर सवार होकर जयप्रकाश जी को निकलना था। गाड़ी से निकलकर वे जेपी की जीप के कोने में बैठ गए। सामने पटना के जिलाधिकारी श्री विजय शंकर दूबे थे। उन्होंने पहचाना 'और अंग्रेजी में हंसकर कहा 'आर यू नानाजी देशमुख? यू नो दैट यू हैव बीन एक्स्टर्न्ड फ्रॉम बिहार? हाउ डिड यू रीच हियर? नानाजी ने भी अंग्रेजी में जवाब दिया येस आई एम नानाजी देशमुख। आईएमनॉट सपोज्ड टु टैल 'यू हाउ आई रीच्ड हियर'। दुबे जी का चेहरा आग बबूला हो गया। परन्तु मुझे उन्होंने तुरंत गिरफ्तार नहीं किया। जुलूस आगे बढ़ा और आकर चौराहे के निकट सीआरपी के जवानों ने लाठीचार्ज किया। जेपी पर भी लाठियों से प्रहार किए गए थे। नानाजी ने तुरंत आगे बढ़कर अपनी कलाई पर लाठियों का वार झेला। जेपी को सिर पर मामूली चोट आई थी और नानाजी की कलाई की हड्डी टूट गई थी जिसके कारण उन्हें लगभग एक महीने तक पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में रहना पड़ा था। अगर उस दिन नानाजी ने जेपी को बचाया न होता तो क्या हो जाता इसकी कल्पना भी भयावह है। इस घटना का जेपी के मानस पटल पर गहरा प्रभाव पड़ा था। लाठियों का वार झेलने के लिए न कोई समाजवादी सामने आया, न कोई सर्वोदयी या न कोई कांग्रेसी व साम्यवादी। इस घटना ने जेपी की नजरों में न केवल नानाजी का कद ऊंचा कर दिया बल्कि संघ और जनसंघ का भी। क्रमश: यह संबंध प्रगाढ़तर होता गया और 5 मार्च 1975 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में विशेष प्रतिनिधि के रूप में जयप्रकाशजी को आमंत्रित किया गया। तब अटलजी अध्यक्ष थे और आडवाणी जी महामंत्री। दोनों ने जिस आदर और श्रद्धा के साथ जेपी को मंच पर स्थान दिया व उनके लिए जब अपने उद्गार व्यक्त किए उससे वे भाव विह्वल हो उठे थे। जेपी ने कहा कि कुछ लोग जनसंघ को फासिस्ट कहते हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि 'यदि जनसंघ फासिस्ट है' तो मैं भी फासिस्ट हूं। इस एक वाक्य से सारे देश को ही नहीं अपितु सारे विश्व के मीडिया को जो संकेत मिला था वह सुर्खियां बता रही थीं। उसके बाद का घटनाक्रम आधुनिक इतिहास का दूसरा पृष्ठ था। अगले दिन 26 मार्च को लोकनायक के नेतृत्व में संसद मार्च का आयोजन था जो भाऊराव देवरस जी से कुछ दिन पूर्व हुई जयप्रकाश जी की वार्ता की रणनीति के कारण अभूतपूर्व था। लगभग तीन महीने बाद आपातकाल की घोषणा हुई और राजनीतिक दल के रूप में मात्र जनसंघ नाम लेने के लिए बच गया किंतु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। आपातकाल के दौरान पहले चंडीगड़ और बाद में मुम्बई के जसलोक अस्पताल में जब वे मुम्बई में पैरोल पर इलाज के लिए थे सदैव उन्होंने संघ के लोगों से संबंध बनाए रखे थे यद्यपि कांग्रेसी नेता व इंदिरा गांधी के विश्वस्त रजनी पटेल की कड़ी नजर उन पर सदैव रहती थी।
क्या हम भूल जाएंगे कि सन 1977 के 25 सितम्बर को पटना में पं.दीनदयाल उपाध्याय की जयंती मनाने की योजना बड़े पैमाने पर बनी थी और स्वयं डा. शैलेन्द्र श्रीवास्तव पूर्व सांसद उसके संयोजक बनाए गए थे? यह निर्णय लिया गया था कि उस कार्यक्रम का उद्घाटन जेपी ही करें। उनसे मिलने के लिए 5 सितम्बर से लेकर 15 सितम्बर के बीच कई प्रयास किए गए पर बराबर उनके विश्वस्त सहयोगियों द्वारा उन्हें नीचे ही रोक दिया जाता था। उनमें से किसी की इच्छा नहीं थी कि संघ- जनसंघ के लोगों द्वारा आयोजित इस समारोह में जेपी जाएं। उन दिनों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। मुश्किल से एक बार नीचे उतरते और ए.एन.सिन्हा इंस्टीटयूट के प्रांगण में टहलने जाते थे। 20 सितम्बर को मुझे चिन्ता हुई कि यदि आज भी उनकी स्वीकृति नहीं मिली तो कार्ड कैसे छपेगा? और मैं अपने मित्रों को कैसे मुंह दिखलाऊंगा। 20 सितम्बर को उनके टहलने के लिए निकलने का समय पता लगाकर मैं महिला चर्खा समिति पहुंच गया। किसी को कुछ नहीं कहा। जैसे ही जेपी सीढि़यों से नीचे उतरकर बरामदे में आए मैं सामने खड़ा हो गया और मैंने उन्हें पं.दीनदयाल जयंती की सूचना दी और अनुरोध किया कि वे इस कार्यक्रम का उद्घाटन करें। मेरी बात सुनकर जेपी बोले रा.स्व.संघ वाले दीनदयाल जी? मैंने कहा जी हां। फिर बोले, उनसे तो मेरा परिचय नहीं था किंतु उनके संगठन को अब जान गया हूं। मैं अवश्य आऊंगा।
25 सितम्बर 1977 को ठीक 4 बजे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में वे पहुंच गए। उन्होंने दीनदयाल जी के चित्र पर माल्यार्पण किया, चित्र के सामने दीप जलाया और लगभग 45 मिनट तक ठहर-ठहर कर बोलते रहे। उस दिन उन्होंने कहा था कि मैं दीनदयाल जी का व्यक्तित्व के बारे में विशेष नहीं जानता किंतु उनके संगठन कौशल का परिचय जो मिला है और उस महान संगठनकर्त्ता को श्रद्धा निवेदित करता हूं, जिसके संकेत पर हजारों हजार लोगों ने राष्ट्र सेवा का व्रत लिया और जिनसे प्रेरणा लेकर आज भी रा.स्व.संघ अपना विस्तार कर रहा है। जेपी के स्वर में कहीं औपचारिकता नहीं थी, कोई अवरोध नहीं था। अकुंठ भाव से उन्होंने अनुभूत सत्य को उजागर किया था। उसी वर्ष दिसम्बर के अंत में वे संघ के शीतकालीन प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह में स्वामी हरिनारायणानंद के संस्कृत विद्यापीठ के प्रांगण में पधारे और उनके साथ उनके अनन्य सहयोगी श्री गंगाशरण सिंह भी थे। संभवत: संघ के मंच पर जेपी का पहला और अंतिम कार्यक्रम वही था। उस दिन उन्होंने संघ की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसके कार्यकर्त्ताओं के गुणों का बखान करते हुए जो कहा वह ध्वनिबद्ध था, अभिलेखित था। उस लम्बे भाषण का लम्बा अंश संकोचवश विस्तार के कारण पूर्व सांसद डा. शैलेन्द्र श्रीवास्तव जी ने सार रूप से स्वयं अपने लेख में कुछ पंक्तियों में इस तरह दिया है- 'संघ एक महत्वपूर्ण सशक्त और उपयोगी संगठन है। उसके पास निर्भीक और विश्वसनीय कार्यकर्त्ताओं का एक बहुत बड़ा समूह है।' गंगा शरण सिंह सहित मंच पर उपस्थित सारे लोग दंग थे कि आज जेपी को क्या हो गया है। संघ इस तरह की प्रशंसा शायद पं.दीनदयाल जी की जयंती के सुयोग के कारण थी।
शायद यह जेपी का पदों की राजनीति से असंपृक्त रहने का ही प्रभाव था कि 60 वर्ष की आयु पूरी होने के बाद नानाजी देशमुख स्वयं जेपी के निवास पर उनका चरणस्पर्श करने के बाद राजनीति से उन्होंने संन्यास लेने की घोषणा कर सके थे और अपने को रचनात्मक कार्यक्रमों और ग्रामोत्थान के प्रकल्प को समर्पित कर दिया था।
(उपर्युक्त तथ्य परक आलेख पूर्व सांसद डा.शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव का श्री बड़ा बाजार कुमारसभा, कोलकाता द्वारा सन् 2003 में प्रकाशित लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर प्रकाशित स्मारिका में जेपी और संघ परिवार शीर्षक 10 पृष्ठों का लेख जिसमें उनके द्वारा दीनदयाल उपाध्याय जी की पटना में आयोजित 1977 के जयंती समारोह की अध्यक्षता का विशद् विवरण अभिलेख है (पृष्ठ सं.43 से 53 तक)।
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