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भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दृष्टि से देखें, तो हिन्दी या अंग्रेजी का सवाल उठना ही भारत के स्वाभिमान की पराजय जैसा है। विडंबना यह है कि हिन्दी की स्थापना का जो भी विरोध है, उस विरोध के मर्म में अंग्रेजी है, लेकिन वह स्वयं सामने न आकर, देश की क्षेत्रीय भाषाओं को अपना मोहरा बनाती रहती है। भाषा के जरिए भारतीय आत्मा को कुचलने के इस खेल को पं़ दीनदयाल उपाध्याय ने बहुत पहले जान लिया था, और इसका पुरजोर विरोध भी किया था। भारत के अपने स्वाभिमान और अपनी एकात्मता की दृष्टि से पं़ दीनदयाल उपाध्याय के भाषा संबंधी विचार बेहद प्रासंगिक हैं। पहले हिन्दी और अंग्रेजी से द्वंद को देखें। स्वभाषा में ही अभिव्यक्ति करना समाज की स्वाधीनता की एक शर्त ही है। पराई भाषा की दासता समाज की स्वाधीनता को, उसके स्वाभिमान को लूला-लंगड़ा कर देती है। भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की भाषा थी, उसके अधिनायकवाद का चिन्ह थी। फिर राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद भी भारत में स्वभाषा के स्थान पर उसका वर्चस्व बना रहना एक उपहासजनक स्थिति है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय हिन्दी तथा अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं को 'राजभाषा' पद पर प्रतिष्ठित करने के हामी थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दी हमारी स्वाभाविक राजभाषा है। स्वयं उनके शब्दों में – यदि संस्कृत विद्वानों और भद्र जन की सम्पर्क भाषा थी तो सामान्य लोगों की सम्पर्क भाषा हिन्दी थी। मध्यकाल के साधुओं ने इसका खुलकर और बारम्बार प्रयोग किया। उन लोगों द्वारा रचित अनेक हिन्दी कविताएं हमको मिलती हैं। हालांकि उनमें से कइयों की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। हमारे सुदीर्घ स्वातंत्र्य-संघर्षकाल के दौरान हिन्दी अन्तर-सम्पर्क का स्वाभाविक माध्यम थी। भूषण ने छत्रपति शिवाजी पर हिन्दी में काव्य रचना की। गुरु गोविंद सिंह ने अपने अनुयायियों को हिन्दी में उपदेश दिए। 1857 में अंग्रेजों को भगा देने की योजना हिन्दी के माध्यम से बनी। महर्षि दयानंद ने हिन्दी के माध्यम से ही राष्ट्र का तेजस्वितापूर्ण आह्वान किया। गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध शांतिपूर्ण विद्रोह के निमित्त सन्नद्ध करने की दृष्टि से जनता को उत्साहित करने के लिये हिन्दी को ही उचित माध्यम माना। हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष में भाषा ने उतना ही योगदान किया, जितना उसने आयरलैण्ड में किया था। (पोलिटिकल डायरी, पृ.90)।
भारत की राजनीति को 'स्वतंत्रता' की दृष्टि देने वाले, 1947 को मिली स्वतंत्रता में 'स्व' कहां है, क्या है-यह प्रश्न भारत के मानस में प्रवेश कराने वाले पं़ दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि संस्कृत को भारत की 'राष्ट्रभाषा' होना चाहिए, तथा हिन्दी एवं भारतीय प्रादेशिक भाषाओं को 'राजभाषा' घोषित करना चाहिए। अंग्रेजी को जारी रखने को लेकर संविधान निर्माताओं ने संक्रांतिकाल का समय 15 वर्ष तय किया था, पं़ दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं-'26 जनवरी 1965 के बाद अंग्रेजी का जारी रहना राष्ट्रीय लज्जा का विषय है।' दीनदयाल जी का मत था कि विदेशों से व्यवहार करते समय निश्चित रूप से हमें हिन्दी का उपयोग करना चाहिए। हमें तो अपने स्वाभाविक राष्ट्रीय स्वाभिमान के कारण अंग्रेजी को इस क्षेत्र से विदा करना चाहिए।'
हिन्दी के प्रति उनका आग्रह इस सीमा तक था कि जब तक अंग्रेजी जारी रहती है तब तक हम अपने सांस्कृतिक पुनरुद्धार की जीवनदायिनी मुक्त हवा में सांस नहीं ले सकते। आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त न कर सकने का खतरा उठा कर भी हमें विदेशी भाषा के चंगुल से अपने को मुक्त कर लेना चाहिए।' (पोलिटिकल डायरी, पृ. 91)भाषा के नाम पर लड़ने वाले राजनेताओं के बारे में उन्होंने कहा था-'राजनीतिज्ञ भाषा के नाम पर लड़ सकते हैं, पर भाषा सृजन नहीं कर सकते।' (राष्ट्र चिन्तन, पृ. 31) उन्होंने कहा था-'हिन्दी के प्रश्न पर बहुतांश एकमत हैं, शासन की नीति के कारण विवाद खड़ा हो गया है। आज तक शासन ने पारिभाषिक शब्द क्यों नहीं बनाए? क्या राजाजी ने उसको रोका था। टंकणपटल क्यों नहीं सुधारे? उसमें किसी हिन्दी विरोधी ने बाधा डाली थी? बाधा हिन्दी विरोधियों की नहीं, शासन की उपेक्षा, टालमटोल एवं उदासीनता की नीति की ही है।'
दीनदयाल जी के ये शब्द आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी प्रासंगिक हैं। यह वे दीनदयाल जी हैं, जो राजनेता थे, और जनसंघ को अखिल भारतीय स्तर पर और सशक्त रूप से स्थापित करना उनका स्वाभाविक लक्ष्य था। कालीकट के अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा-'…हिन्दी का प्रयोग करना पड़ेगा, जो हिन्दी नहीं जानते हैं, उनको अंग्रेजी के प्रयोग की सुविधा देनी होगी। निश्चित ही यह स्थिति हिन्दी की अनिवार्यता की नहीं होगी। अनिवार्यता न रहने से यह हो सकता है कि अंग्रेजी को विदा होने में कुछ समय अधिक लगे, किन्तु उसके साथ ही प्रशासन व संक्रमण की कठिनाइयां भी कम हो जाएंगी तथा हिन्दी के पारिभाषिक शब्दों को निखरने व रूढ़ होने का अवसर मिल जायेगा, किन्तु यह तभी सम्भव होगा जबकि हिन्दी के प्रयोग की छूट हो तथा अंग्रेजी की अनिवार्यता न रहे।'
ज्ञानेन्द्र बरतरिया
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