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इमराना को नहीं भूले होंगे आप। मुजफ्फर नगर की 28 वर्षीय इस मुस्लिम युवती के साथ 6 जून 2005 को उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया। मामला स्थानीय शरिया अदालत में ले जाया गया। वहां से फरमान जारी हुआ कि चूंकि उसके ससुर ने उसके साथ बलात्कार किया है, इसीलिए उसके ससुर का बेटा, अर्थात इमराना का पति, इमराना के लिए बेटे समान हो गया है। इसलिए दोनों का निकाह अपने आप ही निरस्त हो गया है। फैसला सुनकर स्तब्ध हुई पांच बच्चों की मां इमराना को समझाइश देते हुए शरिया अदालत ने कुरान की आयत (4:22) दोहराई 'वा ला तनकीहू मा नकाहा आबा-ओ-कुम' अर्थात् जिन महिलाओं से तुम्हारे बाप ने निकाह किया है, उनसे तुम निकाह न करो।' इस तरह बलात्कारी ससुर को छुट्टा छोड़ते हुए इस्लामी न्यायाधीशों ने इमराना और उसके पांच मासूम बच्चों को बिना कुछ कहे कठोरतम सजा सुना दी। जहां एक ओर इस फतवे से सारा सभ्य समाज अवाक् रह गया वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड फतवा देने वालों के साथ जा खड़ा हुआ। जैसे कि उम्मीद की जा सकती थी, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री, मुलायम सिंह यादव ने इसे मुस्लिमों का मजहबी मामला बतलाते हुए फतवे को समर्थन दिया। दूसरे सेकुलर वीरों ने मौन समर्थन देना उचित समझा।
इमराना के मामले को आधार बनाकर दिल्ली के एक अधिवक्ता ने सवार्ेच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें देश में संविधान सम्मत कानून की नाक के नीचे समानांतर न्याय व्यवस्था चला रही और मध्ययुगीन अरब जीवन को आधार बनाकर थोक के भाव से फतवे बांट रही शरिया अदालतों पर रोक लगाने की मांग की। याचिकाकर्ता का कहना था कि इन शरिया अदालतों के चलते देश के लगभग 60 जिलों में दारुल कजा और दारुल इफ्ता काम कर रही है जिनके मनमाने फैसलों से भारत के नागरिकों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। इस याचिका के विरोध में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और दारुल उलूम देवबंद ने दलील प्रस्तुत की कि शरिया अदालतें आपसी झगड़ों को अदालतों के बाहर निपटाकर मुकदमों का बोझ कम करती हैं, और फतवे सलाह मात्र होते हैं। शरिया अदालतों की कानूनन स्थिति का मूल्यांकन करने के बाद सवार्ेच्च न्यायालय ने शरिया अदालतों पर प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि 'इन अदालतों को कोई कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है।' लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से इमराना जैसों की समस्याएं समाप्त हो गईं? न्यायालय संविधान के दायरे में काम करता है, इसलिए उसने परिस्थिति की संवैधानिक व्याख्या मात्र कर दी। अर्थात् बात घूम फिरकर वहीं लौट आई जहां से शुरू हुई थी।
क्या न्यायालय में फतवों को 'सलाह मात्र' कहने वालों ने इस तथाकथित सलाह के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया था? क्या वे ऐसा कोई मूल्यांकन करना चाहते भी थे? जवाब नकारात्मक ही है। यह ऐसी गुत्थी है जिसमें कई पेेंच हैं और कई सवाल हैं। मामला समान नागरिक संहिता से भी जुड़ा है। सवाल उठता है कि जब संविधान की दृष्टि में सारे नागरिक समान हैं, सबको न्याय पाने का अधिकार है तो फिर मजहब के नाम पर किसी इमराना को कैसे लांछित होने दिया जाता है? किसी शाहबानो को वृद्घावस्था में फाकाकशी पर मजबूर करने का पाप कैसे कर दिया जाता है? जब सभी लड़कियां भारत की बेटियां हैं तो किसी अवयस्क मुस्लिम लड़की का निकाह बाल विवाह कानून के दायरे से बाहर कैसे रखा जा सकता है? क्या यह उन लड़कियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं है? संविधान के साथ कैसा मजाक है कि जहां एक ओर किसी गैर मुस्लिम भारतीय पुरुष को तलाक के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, न्यायालय तलाक पाने वाली महिला को गुजारा भत्ता दिलवाता है। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम पुरुष तीन बार तलाक कहकर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है। शाहबानो का मामला तो एक ऐसी मिसाल है जिसमें समान नागरिक संहिता की मांग को धता बताते हुए असमान आपराधिक कानून ही गढ़ डाला गया।
मुस्लिम पर्सनल लॉ शब्द प्रयोग सबसे पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल वॉरेन हैस्टिंग्स द्वारा किया गया था। अंग्रेज जब एक-एक कर के हिन्दुस्थान की रियासतों को हड़प रहे थे तब स्वाभाविक रूप से नए कानूनी और प्रशासनिक पहलू भी उभर रहे थे। मुस्लिम रियासतों में शरिया द्वारा निर्देशित काजियों के अंतर्गत चलने वाली न्याय व्यवस्था विद्यमान थी जिसमें पारिवारिक मामलों से लेकर आपराधिक मामले तक निपटाए जाते थे। अंग्रेजों ने हत्या, चोरी, बलात्कार जैसे मामलों में भारतीय दंड संहिता लागू की, लेकिन पारिवारिक मामलों, जैसे शादी, वसीयत आदि को नहीं छेड़ा। हिन्दू परिवार व्यवस्था भी पारम्परिक व्यवस्था से चलती रही। धीरे-धीरे ये व्यवस्था स्वीकार्य हो गई। 1939 में मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून बना, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को थोड़ी राहत देते हुए विशेष परिस्थितियों में, जैसे पति का चार वर्षों तक लापता रहना, दो वषोंर् तक आजीविका की व्यवस्था न करना आदि में तलाक लेने की व्यवस्था दी गई। हालांकि मूल समस्याएं यथावत् बनी रहीं। स्वतंत्र भारत में जहां हिन्दू कानून में मूलभूत सुधार किए गए वहीं ब्रिटिशकालीन मुस्लिम पारिवारिक कानून को अपरिवर्तनीय रखा गया। यह कानून मुस्लिम पर्सनल लॉ कहलाया।
स्वतंत्र भारत में कई हिंदू संस्थाओं एवं अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों के विरोध के बावजूद हिंदू कोड- बिल लागू किया गया जिसमें बहुपत्नी प्रथा को प्रतिबंधित करते हुए अनेक पारिवारिक कानूनों में बदलाव किया गया। यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ़ राजेंद्र प्रसाद ने इस बिल को पुनर्विचार के लिए संसद के पास लौटाया भी था। संसद ने दोबारा इस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई। और ये कानून लागू हो गया। परंतु जब मुस्लिम कानूनों में बदलाव की बात आई तो नेहरूजी ने अपने कदम पीछे खींच लिए। आखिरकार नेहरू की ही चली और डॉ़ आंबेडकर, के़ एम़ मुंशी, डॉ़ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं के प्रबल आग्रह को दरकिनार करते हुए मुस्लिम महिलाओं को मध्ययुगीन न्यायव्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया गया। यह कानून आज मुस्लिम महिलाओं को दबाए रखने में मुल्ला फौज का हथियार बन गया है। इन मजहबी रहनुमाओं के दबाव में सेकुलर राजनीति ने बार-बार मुस्लिम महिलाओं के पैरों में बेडियां डाली हैं।
दूसरा आपराधिक तुष्टिकरण का काम 1985 में हुआ जब 73 वर्षीय वृद्घा शाहबानो को उसके आर्थिक रूप से अत्यंत मजबूत पति ने गुजारा भत्ता देने से मना कर दिया। मामला जब सवार्ेच्च न्यायालय में आया तो शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान ने न्यायाधीश के सामने कहा कि उसने इस्लामी कानून के हिसाब से शर्तें पूरी कर दी हैं इसलिए वह शाहबानो को गुजारा भत्ता देने को तैयार नहीं है। सवार्ेच्च न्यायालय ने ऑल इंडिया क्रिमिनल कोड की धारा 125 के पत्नी, बच्चे और अभिभावक गुजारा भत्ता प्रावधान (क्रिमिनल कोड) के तहत अहमद खान को शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का निर्णय सुनाया। इसी प्रावधान (क्रिमिनल कोड) के अंतर्गत 1979 और 1980 में दो अन्य मुस्लिम महिलाओं ने भी गुजारा भत्ता प्राप्त किया था। शाहबानो को मिले न्याय के विरुद्घ मुल्ला फौज ने देश भर में तूफान खड़ा कर दिया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और दूसरी अन्य मुस्लिम संस्थाएं कट्टरपंथियों के साथ आ खड़ी हुईं। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उपद्रवियों के सामने घुटना टेक दिया और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मिले प्रचंड जनादेश का उपयोग करते हुए कानून में परिवर्तन कर दिया और मुस्लिम महिलाओं को एक बार फिर न्याय से वंचित कर दिया गया। यानी पहले जिस सिद्घांत को हमने माना था कि मुसलमानों के लिए पर्सनल लॉ अलग होगा लेकिन क्रिमिनल लॉ सबके लिए एक होगा, उस सिद्घांत को भी तुष्टिकरण की राजनीति के चलते तिलाञ्जलि दे दी गई। यह संविधान की मूल भावना पर गंभीर प्रहार था। इससे सवाल खड़ा हो गया कि क्या भारत में मुस्लिम महिलाओं को दूसरे नागरिकों से अलग माना जाता है? क्या हम अपने नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार देने से इसलिए मना कर देंगे क्योंकि कुछ मुसलमान इस्लाम पर खतरे के नारे बुलंद कर रहे हैं?
इन नीतियों के चलते सार्वजनिक जीवन में कैसी विडंबनापूर्ण परिस्थितियां पैदा हो गई हैं, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसका उदाहरण है। यह बोर्ड 1973 में अस्तित्व में आई एक गैर सरकारी संस्था है जिसका काम भारत सरकार के कानूनों से मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा करना है और मुसलमानों के पारिवारिक मामलों में 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट हर हाल में लागू हो ये सुनिश्चित करना है। यह संस्था एक निजी संस्था है जो कि मुस्लिम कानूनों के मामलों में सरकार को प्रभावित करती है और आम नागरिकों का मार्गदर्शन करती है। उसके कार्यकारी मंडल में विभिन्न मुस्लिम धाराओं के 41 उलेमा शामिल होते हैं। ये लोग शरिया के आधार पर कानूनों की व्याख्या करते हैं। ये अलग बात है कि शरिया कानून की भी कभी न मिलने वाली चार अलग-अलग धाराएं हैं। ये हैं- सुन्नी, हनाफी, शाफई और शिया। मतभेदों के चलते शियाओं और मुस्लिम महिला अधिकारवादियों ने अपने अलग बोर्ड- क्रमश: ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड और ऑल इंडिया मुस्लिम वुमेन्स पर्सनल लॉ बोर्ड बना लिए हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की गतिविधियों पर नजर डालेंगे तो इन्हें हमेशा राष्ट्र की मुख्यधारा, प्रगतिशीलता और नवमूल्यों को पीठ दिखाते ही पाएंगे। इमराना मामले में बोर्ड की भूमिका की चर्चा हम कर चुके हैं। दूसरे मामलों में संस्था की भूमिका इस प्रकार रही है- बोर्ड ने मुस्लिम महिलाओं के तलाक संबंधी कानून में सुधार करने और मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने का विरोध किया। 2009 में इस बोर्ड ने बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार संबंधी कानून का विरोध किया क्योंकि इससे उन्हें मदरसों में सरकारी हस्तक्षेप की गुंजाइश दिखाई दे रही थी। बढ़ती जनसंख्या को भविष्य का हथियार मानने की मुस्लिम कट्टरपंथियों की प्रवृत्ति को सहलाते हुए बोर्ड ने अवयस्क मुस्लिम लड़कियों के विवाह को इस्लाम की नाक का सवाल बनाकर प्रस्तुत किया और बाल विवाह निरोधक कानून का विरोध किया। इन सब बातों को बोर्ड के लोग मुस्लिम समाज के 'हिंदूकरण' की साजिश मानते हैं। आज इनकी सारी ताकत योग और सूर्यनमस्कार का विरोध, सलमान रश्दी का बहिष्कार जैसे मामलों में लगी हुई है। विचार करने का समय आ गया है कि इक्कीसवीं सदी में अप्रासंगिक हो चुकी ये संस्थाएं आज भी इतनी प्रभावशाली क्यों बनी हुई हैं और इन्होंने मुस्लिम समाज का आजतक कितना भला किया है। ये लोग आबादी के बड़े हिस्से को सिर्फ शरिया के डंडे से हांकते रहना चाहते हैं। क्या ये हमारे संविधान का आदर्श है? क्या ये हमारे राष्ट्रनिर्माताओं का स्वप्न है?
यह समस्या मूलभूत नागरिक अधिकारों तक सीमित नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज के राष्ट्र के साथ एकरस होने में भी दीवारें खड़ी करती है। मुसलमानों के लिए अलग कानून अलग पहचान को पुष्ट करता है। अलग पहचान के ईद गिर्द ही तुष्टिकरण और विभाजन की राजनीति पनपती है। क्या ये प्रवृत्तियां और ये फैसले मुस्लिम समाज को आधुनिक विश्व में बेगाना बनाकर खड़ा नहीं कर रहे हैं? इतना ही नहीं राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अत्यंत संवेदनशील मसलों पर भी बोर्ड की गतिविधियां गंभीर सवाल खड़े करती हैं। जब सुरक्षा एजेंसियां जिहादी आतंक की रोकथाम के लिए कार्यवाही करती हैं, तो बोर्ड को उसमें मुस्लिम युवकों को 'फांसने की साजिश' दिखाई देती है। लेकिन इस बात पर कोई विचार नहीं होता कि मुस्लिम युवकों को इस गड्ढे में गिरने से कैसे बचाया जाए। यह सारा तमाशा तथाकथित अल्पसंख्यकों को मिले विशेषाधिकारों के नाम पर किया जा रहा है। क्या हमारे संविधान में सभी के अधिकारों की रक्षा करने का सामर्थ्य नहीं है? यदि है तो संविधान की घोषणा, कि राज्य भारतवर्ष में उसके नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता की स्थापना हेतु प्रयत्न करेगा, को व्यावहारिक धरातल पर कब उतारा जाएगा? जिन रीति नीतियों से समाज और उसके नागरिकों पर तात्कालिक और दूरगामी परिणाम पड़ते हों, उन्हें 'पर्सनल' कैसे कहा जा सकता है? मुस्लिम समाज पर इस मुल्ला सेना का असर और हर बात पर इनका मुंह ताकने की आदत इन जैसों की ताकत बनी हुई है।
मुस्लिम समुदाय में इन बातों के अंधानुकरण की आदत को देखकर ये पंक्तियां याद आती हैं – 'रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।' अल्पसंख्यकवाद की अलगाववादी सोच इस ढर्रे को बढ़ावा ही देने वाली है लेकिन उसे ही रामबाण दवा बताकर प्रस्तुत किया जाता है। मुस्लिम समाज का प्रबुद्घ हिस्सा मन ही मन सुलगता रहता है लेकिन, भीड़ के सामने उसकी आवाज गले में अटक कर रह जाती है। समय बदल रहा है, लेकिन तौर तरीकों में बदलाव का इंतजार खिंचता ही जा रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि अनंत समय किसी समाज के पास नहीं होता। अंत में, मुस्लिम महिलाओं – किशोरियों और मदरसों में झोंके जा रहे बच्चों की दशा पर इतना ही कहा जा सकता है कि- 'मेरा कातिल ही मेरा मुनसिफ (न्यायाधीश) है, क्या मेरे हक में फैसला देगा।'
अजब सवाल, गजब जवाब
एक मुसलमान के एक किरायेदार ने आपत्ति उठाई कि शौचालय में जो नित्य कर्म करने के लिए व्यवस्था है, उस के अनुसार, जब बैठते हैं तो इमानवालों की पीठ किबला (काबा) की ओर हो जाती है़ ये कानून के खिलाफ है़ रहम कर के रास्ता बताएं़ अल्लाह आप पर रहमत करे़
विद्वान् इमाम साहिब जिन का नाम है मौलाना मुफ्ती हफीज कारी कानून के मुताबिक समाधान देते हैं-
हजरत मोहम्मद साहब (सही बुखारी और सही मुस्लिम) के अनुसार शौच और मूत्र विसर्जन के समय न तो मुंह और न पीठ किबला की ओर होनी चाहिए़ इसलिए इस्लाम के विद्वान् कानून के जानकारों ने इसे मकरुहे तहरिमी (न करने लायक) करार दिया है, ये किसी भवन के अन्दर हो अथवा बाहर (नुरल इजह पृष्ठ 30, शम्मी खंड , पृष्ठ 316 ). इसलिए जब तक व्यवस्था उचित दिशा में नहीं हो जाती, मोम्मिन को चाहिए कि वह थोड़ा सा टेढ़ा होकर बैठे़
ऐसी ही समस्या एक और मोमिन की थी, जिसका प्रश्न था कि उलेमा के कहने के बावजूद भी लोग एक मस्जिद के पेशाबगाह की व्यवस्था, जो कि गलत दिशा में थी, को सही दिशा नहीं दे रहे थे़ इससे सम्बद्घ जो गंभीर प्रश्न था वह था कि क्या उन इमामों की इमामत सही है जो इन शौचालयों का उपयोग करते हैं़
मौलाना अहमद रिजा खान का फतवा जो फतवा ऐ रिजविया (खंड 2, पृष्ठ 154) में अंकित है.
पेशाब करते वक्त, न तो मुंह और न पीठ किबला की ओर होनी चाहिए. जो ऐसा करते हैं वे गलती कर रहे हैं़ मस्जिद के व्यवस्थापकों को अथवा इलाके के बाशिंदों को चाहिए कि दिशा ठीक करें़ और जब तक ऐसा इंतजाम नहीं हो जाता, उनका फर्ज है कि वे थोड़ा टेढ़ा हो कर बैठें़ ऐसी संभावना है कि जिन्हें मालूम है, वे ऐसा ही कर रहे हैं (टेढ़े हो कर बैठ रहे हैं). जहां तक सवाल है इमामत का तो मुसलामानों पर कभी शक नहीं करना चाहिए़ उन की इमामत सिर्फ इस वजह से गलत नहीं हो सकती़
प्रश्न – क्या अपनी बीवी की सौतेली वालिदा (मा) से निकाह कर के दोनों को एक घर में रखा जा सकता है?
फतवा – हां, निकाह किया जा सकता है और दोनों को एक ही घर में रखा जा सकता है.
फतवा ए रहिमिय्या, खंड 2, पृष्ठ 86-87
बगावत का फतवा
रिसर्च स्कॉलर शुमाइला अंजुम को गुजारा भत्ते और तलाक जैसे सुलगते सवालों पर सर्वे महंगा पड़ गया। उनके खिलाफ दरगाह आला हजरत से इस्लाम से बगावत का फतवा जारी हुआ। तौबा की नसीहत के साथ तसलीमा नसरीन नहीं बनने की हिदायत दी गई है।
सर्वे का लब्बोलुआब यह था कि महिलाओं ने गुजारा भत्ते को सही ठहराते हुए मर्द की तरह तलाक का अधिकार दिए जाने के हक में आवाज उठाई। दरगाह आला हजरत के सज्जादानशीन मौलाना मोहम्मद अहसन रजा कादरी और उनकी अगुआई वाले मजहबी संगठन तालीम तहफ्फुज-ए-सुन्नियात 'टीटीएस' को यह बातें नागवार गुजरी। लिहाजा दरगाह आला हजरत में संचालित मदरसा मंजरे इस्लाम से फतवा जारी किया गया, जिसमें शुमाइला को इस्लाम से बगावत का कसूरवार ठहराया गया है।
यदि आपकी मजहबी भावनाएं इतनी आहत होती हैं , तो फिर आप वोट देने न जाएं। आप बुरके से चेहरा ढककर वोट नहीं कर सकते। मतदाता की पहचान असंभव हो जाएगी।
— जनवरी 2010 में न्यायालय ने फैसला सुनाया
फतवा जारी किया गया, जिसमें शुमाइला को इस्लाम से बगावत का कसूरवार ठहराया गया है। सर्वे को जहालत प्रश्न उस बकरी के संबंध में क्या हुक्म है, जो गर्भवती है और जिस से इमरान (काल्पनिक नाम ) ने सम्भोग किया है?
फतवा –
ईमानवाले का फर्ज है कि वह तौबा कर ले. जानवर को मार कर जला दो और उस का मांस नहीं खाना है़
यदि आप को संशय है कि यहां जानवर कौन है तो उत्तर में बकरी को जानवर कहा गया है़
प्रश्न यदि किसी पशु के साथ इमरान ने सम्भोग किया है तो उस के मांस और दूध के संबंध में क्या हुक्म है?
फतवा –
यदि वीर्यपात पशु के अन्दर नहीं हुआ है तो उसका मांस और दूध बिना शक के हलाल है़ लेकिन यदि वीर्यपात हुआ है तो उसे मार कर जला दो़ हालांकि उसका मांस हराम नहीं है़और गुमराही वाला बताया।
रोजे के संबंध में जब जानवर के साथ किये सम्भोग पर प्रश्न किया गया तो उसके संबंध में जो फतवा है वह इस प्रकार है-
यदि वीर्यपात हुआ है तो स्नान भी करना पड़ेगा और प्रायश्चित भी करना पड़ेगा़ लेकिन यदि वीर्यपात बिना गुप्तांग का इस्तेमाल किये और सिर्फ हाथों के इस्तेमाल से या जानवर को चूमने से हुआ है तो रोजा भंग नहीं होगा लेकिन स्नान करना पड़ेगा़
द वर्ल्ड ऑफ फतवाज़
– अरुण शौरी पृष्ठ संख्या 76 और 114
फतवे कैसे-कैसे
मुस्लिम विरोधी किताब लिखने के कारण सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन पर फतवा जारी हुआ।
इमराना के बलात्कारी ससुर को दण्डित करने के स्थान पर इमराना से कहा गया कि वह अपने पति को बेटा मान ले।
बैंक से ब्याज लेना या जीवन बीमा कराना इस्लामी कानून या शरियत के विरुद्घ है. जीवन बीमा करवाना अल्लाह को चुनौती देना करार दिया गया।
फेसबुक और फुटबॉल के खिलाफ फतवा।
15 मार्च 2015 को मालदा जिले में फतवा जारी होने के बाद महिलाओं की राष्ट्रीय प्रतियोगिता का मैच रद्द कर दिया गया।
फरवरी 2013 में कश्मीरी लड़कियों के म्यूजिक बंद के खिलाफ फतवा दिया गया।
गणेश पूजा पर सलमान खान के खिलाफ फतवा।
मुसलमानो द्वारा किसी गैर मुस्लिम का पहले अभिवादन न करने का फतवा।
गांधीजी और लोकमान्य तिलक की
जय न बोली जाए ऐसा फतवा भी जारी हो चुका है।
एक फतवे में मुसलमानों से कहा गया कि वे ऐसे कपड़े न पहनें जिसमे उनमें और गैर मुसलमानों में फर्क न किया जा सके।
दाढ़ी का मजाक उड़ाना हराम घोषित किया गया। मजाक उड़ाने वाला मजहब से खारिज और उसका और उसकी बीवियों का निकाह अमान्य।
गैर मुस्लिमों के धार्मिक आयोजनों में सहयोग करने के खिलाफ फतवा।
नवम्बर 2009 में जमायत उलेमा ए हिन्द ने वन्देमातरम गाने के खिलाफ फतवा जारी किया।
जनवरी 2015 में इंडोनेशिया में मोबाइल सेल्फी के खिलाफ फतवा जारी हुआ।
सऊदी अरब के शाही दरबार के एक सलाहकार और न्याय मंत्रालय के परामर्शदाता शेख अल हुसैन आवैखान ने यह कहकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया कि मदोंर् के साथ काम करने वाली महिलाओं को चाहिए कि वे अपने पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिला दें, ताकि वे पुरुष महरम (उनके बेटे के समान) हो जाएं। इससे दूध पिलाने वाली महिला के साथ पुरुष सहकर्मी का निकाह तो नहीं ही हो सकता, इससे दुराचार की आशंका भी पूरी तरह से खत्म हो जाती है।
यह आया है फतवा सरीयत और समझ
टीटीएस के अजमल नूरी के मांगने पर मुफ्ती अफरोज आलम ने फतवा जारी किया है। कहा है कि शरई कानून में संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं है। यह जानते हुए भी बदलाव की माग करना और दूसरी महिलाओं को इसके लिए उकसाना बगावत का प्रतीक है। ऐसा करने वाले पर तौबा लाजिम है। वरना तमाम मुसलमान उससे अपने ताल्लुकात खत्म कर लें।
दरगाह पर बैठक
फतवे को लेकर दरगाह आला हजरत पर सज्जादानशीन की सदारत वाली बैठक में हुए टीटीएस के राष्ट्रीय महासचिव मुफ्ती मोहम्मद सलीम नूरी ने कहा कि इस्लामी कानून को लेकर शरीयत भ्रम फैलाने की इजाजत नहीं देती। जैसे दस्तूर-ए-हिंद के खिलाफ नहीं जाया जा सकता है, वैसे ही शरीयत के खिलाफ बोलने की इजाजत नहीं है। इस्लाम में रहते हुए कोई ऐसा करता है तो यह खुली बगावत है। बेहतर होगा शुमैला, तसलीमा बनने की जुर्रत नहीं करें।
सज्जादानशीन की बात
मौलाना मोहम्मद अहसन रजा कादरी ने कहा कि मुसलमान के लिए कानून-ए-शरीयत को मानना लाजिमी है। जहां तक हुकूक का सवाल है तो इस्लाम ने मर्द के साथ औरत को भी तमाम अधिकार दिए हैं। इस्लाम में रहते हुए उससे नाइत्तेफाकी ठीक नहीं है।
टीटीएस का सर्वे
जिन सवालों को लेकर शुमैला अंजुम मुस्लिम महिलाओं के बीच गई थीं, उन पर दरगाह आला हजरत के सज्जादानशीन की अगुआई वाली टीटीएस की टीम ने भी सर्वे किया। बहेड़ी की स्नातक फरहा खान ने कहा कि जो लोग मर्द-औरत को बराबर अधिकार की बात करते हैं, क्या वे किसी मर्द से बच्चा पैदा करने की अपेक्षा करेंगे। इसी तरह रिजवाना नूरी ने कहा कि जब तलाक के बाद औरत मर्द के लिए अजनबी हो गई तो और कोई रिश्ता नहीं रहा तो गुजारा भत्ता किस बात का? कहकशा नूरी का कहना है कि जब कुदरत ने ही मर्द व औरत में समानता नहीं रखी तो हम ऐसा कहने वाले कौन होते हैं? एक औरत के लिए मां होने से बड़ा कोई और अधिकार नहीं हो सकता।
यह है शुमैला का सर्वे
विवि की रिसर्च स्कॉलर ने 'स्टेटस ऑफ मुस्लिम विमेन एंड प्रोटेक्टिव लज इन सोशियो लीगल सिस्टम' विषय पर सर्वे किया है। बरेली की कामकाजी महिला, नौकरीपेशा और अविवाहित कुल पचास महिलाओं से बात की। उनके मुताबिक पचास फीसद ने मेहर की राशि गुजारे के लिए पर्याप्त नहीं बताई। तीस फीसद ने पुरुषों की तरह तलाक का अधिकार मांगा। परिवार नियोजन के सवाल पर साठ फीसद ने कहा कि उन्हें भी निर्णय लेने का अधिकार मिलना चाहिए।
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