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आज पश्चिम में यदि किसी अपराध को सबसे घृणित माना जाता है तो वह है बच्चों का शारीरिक शोषण, जिसे 'पीडोफीलिआ' के नाम से जाना जाता है। यहाँ तक कि जब इस अपराध का दण्ड भुगतने के लिए अपराधी वहाँ के कारागार में जाते हैं तो अन्य बन्दी भी उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और अवसर मिलने पर उन पर हमला भी कर देते हैं। इन अपराधियों से विशेष घृणा के पीछे सोच यह है कि ये अपराधी अपने शारीरिक बल और बच्चों की निर्बलता का लाभ उठाकर अपराध करते हैं, इसलिए ये सबसे निम्न श्रेणी के लोग होते हैं। इस अपराध की जघन्यता और भी बढ़ जाती है जब बच्चों का इन अपराधियों के साथ निकट का संबंध होता है क्योंकि अब विश्वासघात भी अपराध में सम्मिलित हो जाता है। जब हम अपने बच्चों को विद्यालयों में पढ़ने भेजते हैं तो हम इस विश्वास से बच्चे को भेजते हैं कि जिन लोकतांत्रिक संस्थाओं पर इन बच्चों के मानसिक विकास का दायित्व है, वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके इन बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का विनाश नहीं करेंगे। गत दस वर्षों से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में बैठे विद्वान हमारे बच्चों से क्या खिलवाड़ कर रहे हैं उसका एक उदाहरण सातवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक 'हमारे अतीत' के पृष्ठ 65 व 66 पर देखने को मिलता है। लेख का शीर्षक है
मंदिरों को क्यों नष्ट किया गया?
इस लेख में कुल तीन अनुच्छेद (पैराग्राफ) हैं, जहाँ पहले दो अनुच्छेदों में शब्दों का एक ऐसा कुटिल जाल बुना गया है जिसमें सातवीं कक्षा का बच्चा फँसे बिना नहीं रह सकता। पहली दो पंक्तियाँ हैं-
राजा, मंदिरों का निर्माण अपनी शक्ति, धन सम्पदा और ईश्वर के प्रति निष्ठा के शक्ति, हेतु करते थे। ऐसे में यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती है कि जब उन्होंने एक दूसरे के राज्य पर आक्रमण किया, तो उन्होंने प्राय: ऐसी इमारतों पर निशाना साधा।
यहाँ पाठकों को दो शब्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है-'आश्चर्यजनक'और 'इमारत'। पहले शब्द से बच्चे को मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है कि मंदिरों को नष्ट करने जैसे घृणित कार्य में कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। 'इमारत' के लिए आगे की पंक्तियाँ पढि़ए-
नौवीं शताब्दी के आरम्भ में जब पांड्यन राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण कर राजा सेन प्रथम ( 831-851) को पराजित किया था, उसके विषय में बौद्घ भिक्षु व इतिहासकार धम्मकित्ति ने लिखा है कि सारी बहुमूल्य चीजें वह ले गया। रत्न, महल में रखी स्वर्ण की बनी बुद्घ की मूर्ति और विभिन्न मठों में रखी सोने की प्रतिमाओं, इन सभी को उसने जब्त कर लिया। सिंहली शासक के आत्माभिमान को इससे जो आघात लगा था, उसका बदला लिया जाना स्वाभाविक था। अगले सिंहली शासक सेन द्वितीय ने अपने सेनापति को, पांड्यों की राजधानी मदुरई पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बौद्घ इतिहासकार ने लिखा है कि इस अभियान में बुद्घ की स्वर्ण मूर्ति को ढूंढ निकालने तथा वापस लाने हेतु महत्वपूर्ण प्रयास किया गया।
इसी तरह ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ में जब चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अपनी राजधानी में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था तो उसने पराजित शासकों से जब्त उत्कृष्ट प्रतिमाओं से इसे भर दिया। एक अधूरी सूची में निम्न चीजें सम्मिलित थीं। चालुक्यों से प्राप्त एक सूर्य पीठिका, एक गणेश मूर्ति, तथा दुर्गा की कई मूर्तियां, पूर्वी चालुक्यों से प्राप्त एक नंदी मूर्ति, उड़ीसा के कलिंगों से प्राप्त भैरव (शिव का एक रूप) तथा भैरवी की एक प्रतिमा तथा बंगाल के पालों से प्राप्त काली की मूर्ति।
इन दोनों अनुच्छेदों में कहीं किसी इमारत अथवा मंदिर को नष्ट करने का उल्लेख नहीं है। दूसरी विशेष बात यह है कि मूर्तियों को ले जाने और उन्हें मंदिर में स्थापित करने का उल्लेख है, अर्थात, न तो कोई मूर्ति और न ही किसी मंदिर
को नष्ट किया गया है। अब अगले अनुच्छेद को देखते हैं।
गजनी का सुल्तान महमूद राजेंद्र प्रथम का समकालीन था। भारत में अपने अभियानों के दौरान उसने पराजित राजाओं के मंदिरों को अपवित्र किया तथा उनके धन और मूर्तियों को लूट लिया। उस समय सुल्तान महमूद कोई महत्वपूर्ण शासक नहीं था, लेकिन मन्दिरों को नष्ट करके-खास तौर से सोमनाथ का मंदिर, उसने एक महान इस्लामी योद्धा के रूप में श्रेय प्राप्त करने का प्रयास किया। मध्ययुगीन राजनीतिक संस्कृति में ज्यादातर शासक अपने राजनीतिक बल और सैनिक सफलता का प्रदर्शन पराजित शासकों के उपासना स्थलों पर आक्रमण करके और उन्हें लूटकर करते थे।
यहाँ राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के विद्वानों ने शब्दों का ऐसा जाल बुना है कि सातवीं कक्षा का बच्चा यह समझेगा कि हिंदू और मुसलमान शासकों में कोई अन्तर ही नहीं था। इसमें मनोविज्ञान का सहारा लिया गया है। आरंभ में लिखे गए और अंत में लिखे गए शब्दों पर मानव मस्तिष्क अधिक ध्यान देता है जबकि मध्य में लिखे हुए तथ्यों पर ध्यान कम जाता है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में 'प्राइमेसी इफेक्ट' और 'लेटेंसी इफेक्ट' कहते हैं।
इसी गजनी के संबंध में, इसी कक्षा की इसी पुस्तक के पृष्ठ 21 पर लिखा गया है कि उसका निशाना थे संपन्न मंदिर, जिनमें गुजरात का सोमनाथ मंदिर भी शामिल था।
तो राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में बैठे विद्वान अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके बच्चों को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि महमूद गजनी धन लूटने आया था और इस में उसके मजहब का कोई लेना देना नहीं था।
वास्तविकता यह है कि हिंदू/सनातन संस्कृति में किसी मंदिर अथवा मूर्ति को नष्ट करना एक नीच कार्य माना जाता है जबकि अधिकतम मुसलमान शासक इसे एक मजहबी फर्ज समझते थे और इसे एक शानदार कारनामा समझते थे। इसीलिए उस समय के मुसलमान लेखक महमूद जैसे अन्य सभी लुटेरों का महिमा गान करते नहीं थकते थे।
आइये देखें महमूद के समकालीन मुसलमान इतिहासकार इसके विषय में क्या कहते हैं –
ऐसा कहा जाता है कि सोमनाथ का मंदिर भारत के एक महान राजा ने बनवाया था। यहाँ की मूर्ति जो पाँच गज ऊंची है, एक ही पत्थर में से काटकर बनाई गई है। यह दो गज तक भूमि के अंदर है और शेष बाहर है। महमूद ने जैसे ही इस मूर्ति को देखा तो उसने गुस्से से भरकर अपनी कुल्हाड़ी को उठा लिया और इतना जोरदार वार किया कि उसके टुकड़े हो गए। इन टुकड़ों को ले जाकर गजनी की जामा मस्जिद की दहलीज पर फेंक दिया गया है जहां वे आज भी पड़े हैं। यह सच है कि जब महमूद उस मूर्ति को तोड़ने लगा था तो वहां के ब्राह्मणों ने महमूद के आमिरों को दरख्वाश्त की कि यदि वह मूर्ति को नष्ट नहीं करता तो वे महमूद के खजाने कि लिए करोडों सोने के सिक्के देने के लिए रजामंद हैं। आमिरों को ये बात जच गई। उन्होंने महमूद से कहा कि मूर्ति तोड़ने से कुछ नहीं मिलेगा लेकिन इस पेशकश से उन्हें खूब पैसा मिल जाएगा जो काफी काम आ सकता है, इसलिए मूर्ति को न तोड़ा जाए। महमूद ने उत्तर दिया, यह मैं भी जानता हूं लेकिन मेरी हसरत है कि जब कयामत के दिन मुझे बुलाया जाए तो यह कह कर बुलाया जाए कि 'वो महमूद बुत शिकन कहां है जिसने काफिरों की सबसे महान मूर्ति तोड़ी थी?' न कि 'वो महमूद बुत फरोश कहाँ है जिसने काफिरों की सबसे महान मूर्ति काफिरों को सोने के बदले में बेच दी थी?'
ये अंश महमूद के जीवन पर आधारित पुस्तक तारीखे अल्फी में से लिए गए हैं।
यदि महमूद धन लूटने ही आया था तो सोमनाथ की मूर्ति के टुकड़ें हजार किलोमीटर दूर गजनी तक ले जाने का कष्ट क्यों किया था? यदि धन ही उसका उद्देश्य था तो मूर्ति छोड़कर सोना लेने का अवसर अपने हाथों से क्यों जाने दिया?
महमूद के आक्रमणों का विवरण हमें उसकी जीवनी तारीखे यामिनी में भी मिलता है, जिसे अल उत्बी ने लिखा है। महमूद के दूसरे हमले के संबंध में अल उत्बी लिखता है-
आमिर (महमूद) ने लम्घान पर चढ़ाई की जोकि एक संपन्न और सुदृढ़ नगर है। उसने इसे जीत लिया और इसके आसपास रहने वाले काफिरों के घरों को जला दिया। उसने मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ दिया और वहां इस्लाम की स्थापना कर दी। उसने अन्य नगरों पर भी आक्रमण कर के उन पर अधिकार कर लिया, वहाँ के नीच मूर्ति पूजा करने वालों का विनाश कर दिया जिससे मुसलमानों को संतोष मिला।
इन वृतांतों को पढ़कर दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं- एक, महमूद हमारे देश में जिहाद करने आया था और दूसरा, उसका उद्देश्य धन लूटना नहीं था बल्कि हमारे इस देश की सनातन संस्कृति को नष्ट करना था। स्थान के अभाव के कारण यहाँ महमूद द्वारा ध्वस्त किये गए सभी मंदिरों और मूर्तियों का उल्लेख नहीं किया जा सकता लेकिन इस क्रूरता का अनुमान, उसी के साथ आए, उसके एक साथी, अल बरूनी के शब्दों से लगाया जा सकता है। वह अपनी पुस्तक 'किताब-उल-हिन्द' में लिखता है-
कोई भी मुसलमान काबुल की सीमा और सिन्धु नदी को पार करके यहाँ नहीं आ सका जब तक कि तुर्कों ने शामानी शासकों के तुर्की शहजादे नासिर 'उद' अल्लाह सुबुक्तिगिन ने गजनी पर कब्जा नहीं कर लिया। इस शहजादे ने अपने लिए जिहाद का रास्ता चुना, इसलिए वह अपने आप को गाजी कहता है।
अपने वारिसों के सुकून के लिए और हिन्दुस्तान की सरहद को कमजोर करने के लिए उसने सड़कें बनाईं। इन्हीं सड़कों पर बाद में चलकर उस के बेटे यामिन 'उद' अल्लाह महमूद ने हिन्दुस्तान पर अगले तीस वर्षों तक हमले किये। अल्लाह दोनों बाप और बेटे पर रहम करे! महमूद ने हिन्दुस्तान की असाइश और शानो शौकत को मुक्कमल तौर पर नेस्तो नाबूत कर दिया और उसने ऐसे कमाल के कारनामे किए कि वहां के हिन्दू, रेत के अणुओं की तरह बिखर गए हैं, जैसे लोगों की जबान पर भूले बिसरे अफसाने होते हैं। यही कारण है कि हिन्दू ज्ञान विज्ञान उन सारी जगहों से गायब हो गया है, जहां हमारी हुकूमत है और कश्मीर, बनारस और ऐसी उन जगहों पर पनाह ले रहा है, जहाँ हमारा हाथ नहीं पहुंचा है।
यह है गजनी का असली रूप जिसे छिपाने के लिए झूठ और मनोविज्ञान का सहारा लिया जा रहा है। राजा राजेंद्र चोल जैसे कला और धर्म प्रेमी को- जिसने भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया था, जिनमें से कई आज भी खड़े हैं और संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक विश्व धरोहर के रूप में सुरक्षित हैं- एक दुर्दांत हत्यारे, बलात्कारी और जिहादी के समकक्ष खड़ा किया जा रहा है।
क्या यह अपराध नहीं है? क्या इसमें भी वही सब मानसिक रूप से नहीं किया जा रहा जो एक पीडोफाईल अपने शिकार बच्चों के साथ शारीरिक रूप से करता है?
क्या हमारे बच्चों का और हमारा यह अधिकार नहीं है कि हमें अपने इतिहास की सही जानकारी हो? क्या यह जो अपराध हमारे बच्चों पर किया जा रहा है वह निंदनीय नहीं है? -नीरज अत्री
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