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बचपन से मुझे मुकेश का गाया एक नॉन-फिल्मी गीत बेहद पसंद है।
ह्यमोती चुगने गई रे हंसी मानसरोवर तीर…..ह्ण अब भारत सरकार की अनुमति लेकर मानसरोवर तो नहीं जा पाई किन्तु अपने ही शहर में एक सरोवर की कल्पना करने लगी… अत्यंत ….निर्मल…. शांत…. गहरा और आसमान को प्रतिबिम्बित करता सरोवर और मैं उसके किनारे घंटों बैठकर उसे समझने का प्रयास करती-कभी उसमें उठती तरंगें कभी पंछियों का सुस्वर गूंजन और प्रतिध्वनित होती असंख्य आवाजें।
जी! मेरे नगर में डॉ. शंकर पुणतांबेकर नामक एक सुन्दर प्रसन्न पवित्र सरोवर है- मैं उनकी छात्रा तो नहीं किन्तु शिष्या जरूर बनना चाहती थी… अर्थशास्त्र की छात्रा थी किन्तु निराला, पंत, प्रसाद अच्छे लगते थे और व्यंग्य विधा भी मुझे याद है आज भी! गुरुवर का षष्ठ्यब्दी समारोह आयोजित हुआ सुप्रसिद्ध कहानीकार एवं उपन्यासकार डा. कमलेश्वर को खास निमंत्रित किया गया था समूचे भारतभर से अनेक महान लेखक कवि पधारे केवल ह्यगुरुवरह्ण के प्रति श्रद्धा के कारण उस दिन मैंने सरोवर में एक लहर देखी जिसे मैं मन में उतारती गयी।
विज्ञापनों से खचाखच भरी दुनिया, लाचार और भ्रष्ट दुनिया स्पर्धाओं की भीड़ जिसमें लेखक कवि भी अछूते नहीं। दो तीन किताबों के प्रकाशन के बाद स्वयं को (अघोषित) साहित्यकार समझने वाले अनेकों ह्यमहानह्ण व्यक्तियों को देखा और राजकारणी नेताओं के नाम की बैसाखियों पर अपना ह्यतथाकथितह्ण साहित्य बेचन वालों को भी देखा। दो तीन हजार रुपयों की ह्यसम्मानह्ण राशि के लिए लालायित रहने वाले सारे ह्यलेखक कवियों को भी देखा और देखा उस ऋषितुल्य व्यक्त्वि को जिसने पिछले साठ वर्षों से अपना जीवन ह्यव्यंग्य विधाह्ण को समर्पित किया। उपन्यास, एकांकी, नाटक-व्यंग्य अमरकोष…. ओबामा की जीवनी…. उस व्यक्ति को देखा-फलों से लदे हुए…. जमीन से जड़े-गड़े पांव और आसमान को छूती टहनियां पंथी आएं-पंछी आएं साया ही मिलेगा, शीतलता ही मिलेगी और मीठे फल भी… ऑडी, मर्सिडीज खरीद सकते हैं, पर मैने उन्हें कॉलेज या तो पैदल या साइकिल पर जाते देखा… सरोवर अधिकाधिक गहन महसूस होने लगा। उनकी एक कहानी याद आईर् ह्यटेक्स्ट बुक और गाई़़डह्ण। ह्य टेक्स्ट बुकह्ण ने साइकिल स्टैंड पर खड़ी की और फुटपाथ पर मटके देखने लगी-तभी ह्यगाईडह्ण सामने की दुकान से उतरती दिखाई दी गाईड ने पूछा ह्यकैसी हो?ह्ण ह्यठीक हूं तुम यहां कहां?ह्ण टेक्स्ट बुक ने पूछा..
ह्यऐसे ही, फ्रिज देखने, खरीदनेह्ण गाईड ने कहा और कार की ओर बढ़ गयी।
वर्ष 1992 में महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी पुस्कार, 1995 में व्यंग्यलेखन का अखिल भारतीय ह्यचकल्लस पुरस्कारह्ण, इसी वर्ष यानी 1995 का मध्य प्रदेश सरकार का ह्यअक्षर आदित्य पुरस्कारह्ण, 1998 का हैदराबाद आचार्य आनंद ऋषि साहित्य पुरस्कार, अभी हाल ही में अ.भा. हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार जाने कितने पुरस्कार…. मगर ह्यप्रदर्शनह्ण नहीं-न दीवारों पर न आचरण में। कमरे की एक मेज पर कलम लिए यह नब्बे वर्ष का जवान लेखक ह्यझुकाह्ण ही रहता है। आज की भाषा में मेन्टेन्ड स्वास्थ्य… चेहरे की हर लकीर से स्नेह टपकता हुआ और मुझ जैसे छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और गुरुवर के सहपाठी मा. अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में उतनी ही आत्मीयता से बात करने वाले डा. शंकर यानी एक कण्ठ विषपायी-दुनिया भर की जहरीली बातों को पचाए भौतिक सुखों से परे सुबह दो फुलके, शाम में दलिया और गिनती की दो चाय की प्याली, संस्कार भारती के जिला अध्यक्ष समूचे वातावरण को संस्कारित करने की तीव्र चाह रखने वाले शब्दशिल्पी को प्रणाम।
एक बार हमने पूछा जन्म कुंभराज का, शिक्षा ग्वालियर, आगरा, विदिशा, पूना जैसे ऐतिहासिक स्थलों के बाद इस छोटे से ह्यजलगांवह्ण में कैसे? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अपना ह्यव्यंग्य अमरकोशह्ण थमाया जिसमें करीब नौ हजार शब्दों की व्याख्या की है प्रचलित शब्दों के माध्यम से आज का विरोधाभास और विसंगति की ओर गुरुवर ध्यानाकर्षित करते हैं।
जलगांव-एक आदर्श शहर यहां बर्फ की तरह नित्य ह्यसमरह्ण गिरती है। किसी भी महीने के पृष्ठ खोलिए यहां कैसी न कैसी ह्यसमरह्ण गिरती मिल जाएगी। जैसे:- मार्च से जून-हॉट समर, जुलाई से अक्तूबर-प्युअरसमर नवम्बर से फरवरी तक कोल्ड समर। यहां महानगर और देहात दोनों का ही संगम देखा जा सकता है। जैसे खर्च में महानगर की शान लिए तो सेवा, सुविधा में देहात की सादगी। तीज त्यौहार पर, उनके जन्मदिवस के अवसर पर गुरुपूर्णिमा का औचित्य साधकर उनके अनेकों प्रशंसक जिसमें मैं भी शामिल, चरण स्पर्श हेतु जाते हैं। उनका लेखन, उनके विचार (जो जलगांव आकाशवाणी से भी प्रसारित होते हैं) सत्य और यथार्थ का ही दर्शन कराते हैं।
ह्यहिन्दी साहित्य का इतिहास विभाजित हुआ है कालानुसार और कहीं नौ रसों पर आधारित आज का समय किस रस पर आधारित है गुरुवर! किसी धुन में मेरे मन में प्रश्न उठा।ह्ण
तुम सच कहती हो, आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब आधार माना। और यह काल विभाजन कुछ हद तक उचित भी लगता है। वीर रस पर आधारित… लेखन यानी वीरगाथा काल। भक्तिकाल में तुलसी, मीरा, सूर कबीर जैसे संत एवं भक्त कवियों की रचनाएं यानी भक्तिकाल, श्रंृगार रस की प्रमुख रचनाएं-यानी बिहारी, विद्यापति इनकी रचनाएं। आज तो उषा! सारा ही वीभत्स और भयानक है, विकृति की दल-दल में फंसा समाज… तो गोया आपने इसीलिए व्यंग्यविधा चुनी और गुरुवर क्या आपको वह अनास्थावादी और निषेधात्मक नहीं लगती? मेरा प्रश्न…..
चुनाव व्यवसाय से सम्बंधित होता है, लेखन प्रवृत्ति पर…. शिक्षा, संस्कारों और सामाजिक परिस्थितियों में जब विकृति विकट रूप धारण करती है तब प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक की कलम चलने लगती है और सभी साहित्य विधाओं में व्यंग्यविधा अधिक प्रभावी होती है। गुरुवर का विस्तारपूर्वक उत्तर।
ह्यविनोद और व्यंग्य लेखन में क्या अंतर?ह्ण मेरा प्रश्न …..हास्य विनोद गिलास के आधेपन का मखौल उड़ाता है… तो व्यंग्य गिलास के आधेपन पर चोट करता है। हास्य विनोद बहिर्मुखी है तो व्यंग्य अंतर्मुखी। हास्य दर्द भुलाने का नशा लगता है तो व्यंग्य नशा जगाने का दर्द जगाता है।ह्ण
गुरुदेव ने मानो गीता का कोई श्लोक पढ़ा और मैं सुन्न। हास्य विनोद आपको गफिले बनाता है तो व्यंग्य आपको जागरूक करता है। मराठी में चि.ले. जोशी, पु.ले. देशपांडे जी ने विनोदी साहित्य का विपुल लेखन किया तो हिंदी में काका हाथरसी जी ने हास्य कविताएं लिखीं-गद्य में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, लतीफ घोंघी, प्रेम जनमेजय, रवीन्द्रनाथ त्यागी… अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य लेखन में भी रसानुभूति होती है। जिसमें यथार्थ साहित्य भावानुभूति से अधिक विचारानुभूति होती है अर्थात्… मेरी उत्सुकता।
जैसे कि कितने ऊंचे-ऊंचे साबुन बन रहे हैं कि गंदगी करने को जी चाहता है….
वह प्राध्यापक है फिर भी विद्वान है…. या आज के नमक में आयोडीन की नहीं तो राष्ट्रीयता की आवश्यकता होती है……
गुरुवर का व्यंग्य अमरकोष पढ़ने को मन ललचाया और पढ़ा भी, कुछ शब्दों की व्याख्या यहां देना चाहती हूं-
अध्यापक=पढ़ाने वाला, चन्दन का वह पेड़ जो आम देता है और बबूल जीता है।
आयकर=आमदनी के अपराध का दंड
गर्व=उच्चता का भाव, जैसे मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूं और मेरे देश में ऐसे महान लोग हैं जो मुझे भूख, अन्याय, अत्याचार सहने की प्रेरणा और शक्ति देते हैं।
बैरागी=संन्यासी। वह जो आग पर नहीं राख पर अपनी रोटी पकाता है।
उदर=वह स्थान जिसमें आदमी नौ महीने नहीं, जिंदगी भर रहता है।
मुझे अहसास होने लगा= सत्य उतना ही नहीं जितना तुम जानते हो… अपने दर्शन को विस्तार दो इतना….सत्य उतना ही नहीं जितना कि तुम पहचानते हो। क्या यह विधा सामान्य पाठकों के लिए नहीं? क्योंकि दूरदर्शन और असंख्य चैनलों में डूबा आज का व्यक्ति पढ़ने की बात ही नहीं करता। अखबार क्यों पढ़े जब चैनलों पर सजी-सजाई खबरें मिलती हैं-मनोरंजन के नाम पर फूहड़ से धारावाहिक, संगीत के नाम पर हुडदंग… कहानी उपन्यास और कविताओं में रमने वाले गिने-चुने। ऐसा है उषा…. समाज में धार्मिक लोगों की संख्या कम नहीं, कोई भजन कीर्तन करता है तो कोई जप-जाग। गिने-चुने लोग पढ़ें तो भी ठीक, पोस्टकार्ड पर उनकी प्रतिक्रियाएं मुझे पुरस्कारों से कम नहीं लगतीं। मेरी चाहत मंच की नहीं, थोड़ी देर के लिए जो बहलाएं वे तालियां भी मुझे नहीं चाहिए।
हर बीरबल को अकबर नहीं मिलता क्या यह व्यथा है आपकी… मैंने साहस बटोरते हुए पूछा….
ह्यआरंभिक समय संघर्षमय था अनेक बाधाएं, अनेक संकट थे जिन्हें मैं पार कर चुका। समूचे भारतवर्ष में मेरा लेखन प्रकाशित होने लगा किन्तु कई बार सुप्रसिद्ध संपादकों, प्रकाशकों… प्रांतवाद… कई बार व्यक्तिगत उलझनों की आग से बाहर निकल पाया। झुलसाा भी किन्तु कलम का संघर्ष जारी रहा…. बस एक बात की चुभन हमेशा रहती है कि कला साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति, भाषावाद, प्रांतवाद पनप रहा है और सच कहूं उषा, मेरी टांगें खींचने वाले ही अधिक थे। ह्यपर, आपकी और अमिताभ बच्चन की टांगेंे उतनी ही लंबी हैं जितने खींचने वाले बौने…ह्ण मैं अपने आप में खुश। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी आपके सहपाठी थे?
ह्यहां, कक्षा नौवीं से बी.ए. तक हम साथ पढ़े कहते हैं न होनहार बीरवान के होत चीकने पात-शत शत प्रतिशत लागू। हर वक्त चुनावों में मशगूल.. कॉलेज का जनरल सेक्रेटरी पद हो या कुछ और पर वर्तनी पर अधिक ध्यान-ह्ण
ह्यआजकल आप क्या लिख रहे हैं?ह्ण मेरा प्रश्न। व्यंग्य रहित निबंध और आत्मकथा, और हां बराक ओबामा दि राइजिंग सन….. अपनी ही कल्पना का, उनके राजनीतिक जीवन से संबंध नहीं… मेरी आत्मकथा का शीर्षक है ह्यबिखरे पन्नेह्ण वैसे तो मैं खुश और समाधानी हूं दो लड़के, बहुएं, पोता-पोती और एक लड़की- सुखी परिवार किन्तु मेरा शैक्षणिक जीवन बिखरा हुआ था, पहले इतिहास में एम.ए. किया, फिर हिन्दी में, उसके बाद लॉ (एल.एल.बी.) और पीएच.डी।
ह्यबिखरे पन्नेह्ण में कुल 120 अध्याय होंगे जिनमें 60 व्यक्तिगत जीवन पर आधारित और 60 वैचारिक स्तर पर आधारित-
ह्यव्यंग्य विधा-अध्ययन की विधा बने और इस विधा को भी ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले… ऐसा हमें लगता है! गुरुवर आपको?ह्ण मेरे प्रश्न का उन्होंने विस्तार से उत्तर दिया-
ह्यव्यंग्य लेखन की प्राचीन परम्परा है संस्कृत काव्याचायोंर्ह्ण से लें तो आज तक । मध्यकाल में हिन्दी कवियों ने ह्यव्यंगह्ण,ह्य व्यंग्यह्ण, ह्यविदूषहीह्ण, ह्यविडम्बनाह्ण ह्यव्यंग्यी वचनह्ण जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। ह्यआधुनिक काल में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेन्द्र कोहली, लतीफ घोंघी, प्रेम जनमेजय, ज्ञान चतुर्वेदी इन जैसे व्यंग्य लेखकों ने अत्यंत प्रभावी लेखन किया है किन्तु आज भी इस विधा को वह स्थान नहीं मिला जो अपेक्षित है, विगत कई वर्षों से समीक्षकों ने भी केवल ह्यकाव्यह्ण विधा पर लक्ष्य केंन्द्रित किया हुआ है, यहां तक कि अमृतलाल नागर जैसे महान गद्यकार उपन्यासकार का लेखन भी उपेक्षित है उन्हें कहां ह्यज्ञानपीठह्ण मिला?
ह्यअर्थात इस व्यंग्य विधा की ओर पाठक और शासन समीक्षक की दृष्टि है ही नहीं?ह्ण मेरा सीधा सवाल….। ह्यदेखो, जब तक व्यंग्य-विधाह्ण के रूप में विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं होता-तब तक विद्यार्थी, पाठक, समीक्षक आदि का ध्यान आकर्षित कहां होगा? खैर, मैं अत्यंत समाधानी हूं। मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि व्यंग्य विस्तार में नहीं, अर्थ के सूक्ष्म घनत्व में है। लेखनी है…. थोड़े, समझे… पर्याप्त है। मैंने जाना कि गुरुवर के लेख, कहानियां, उपन्यास, ह्यटुकड़े, मुखड़े सूक्तियांह्ण जनसामान्य की बुद्धि को सुन्न करने वाली हैं, एक-एक शब्द वाक्य-घृणा, क्रोध और विरोध के रूप में आग उड़ेल रहा है…. इस अग्नि में ज्वाला या स्फोट नहीं है, तो मानवीय मूल्यों का आधार-आस्था और निष्ठा का प्रकाश।
एक ह्यटुकड़ाह्ण प्रस्तुत करना चाहूंगी-गुरुवर कहते हैं, ह्य वे जब वोट मांगने आते हैं तो बड़ी मधुर मुरली बजाते हैं। गाय की सेवा की बात करते हैं। वोट ले जाने पर ह्यराधाह्ण में डूब जाते हैं और मान लो शिकायत लेकर कोई उनसे कुछ कहने आते हैं तो उनके हाथ में गीता पकड़ा देते हैं…. निष्काम सेवा भाव का संदेश देते हैं….
मेरी बेचैनी बढ़ रही थी कि व्यंग्य लेखन है या कटु-सत्य? क्योंकि वे कहते हैं…. ह्ययथार्थताह्ण या बौद्धिकता के कारण व्यंग्य में बोझिलता का खतरा बना रहता है। विसंगतियों, विरोधाभास, सांकेतिकता, लाक्षणिकता का…. पर संस्कार के साथ व्यंग्य में भी मन रमता है। व्यंग्य की बोझिलता जिस-तिस के संस्कार पर निर्भर करती है। और आज सामान्य आदमी भी चौकस है….
उस रात मुझे देर तक नींद नहीं आई… सरोवर जितना सुंदर था उतना ही गहन…. गूढ़ अनाकलनीय…. उसे फिर पढ़ना है…. पुन:-पुन: समझने की कोशिश करनी है…. इसलिए सरोवर तीरे रोज-रोज आना है…. मोती चुगने आना है… सरोवर को ह्यपद्मह्ण पुरस्कार से सजाना है।
ल्ल प्रस्तुति : डॉ. उषा शास्त्री
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