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पूर्वोत्तर भारत में असम सबसे बड़ा राज्य है और उल्फा यहां का सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन। इसका स्वयंभू सैन्य प्रमुख परेश बरुआ चीन, म्यांमार व बंगलादेश में घूमता रहता है और घातक हथियारों और मादक पदार्थ की तस्करी से धन कमाता है। माओवादियों के साथ मिलकर पूर्वोत्तर भारत के सभी आतंकवादी संगठनों को मदद भी पहुंचाता है। पूरे असम में उल्फा मार-काट व आतंक से धन उगाही करता है। कहीं उल्फा वाले आग लगा देते हैं, कहीं अपहरण करते हैं तो कहीं हत्या और रेल गाड़ियों में बम विस्फोट कर दर्जनों निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या कर देते हैं। परिणामत: असम से प्रतिभा पलायन के साथ उद्योग-धन्धों, कल-कारखानों और चाय बागानों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। दर्जनों आतंकवादी संगठनों की आड़ में अनगिनत अपराधियों ने असम को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इस्लामी आतंवादियों, ईसाई आतंकवादियों और माओवादियो की भी उल्फा मदद करता है और बदले में उनसे धन बसूलता है।
असम में रहने वाले सभी वर्गों के लोगों की सुरक्षा, शान्ति के साथ ही प्राकृतिक संसाधन खतरे में पड़ गए हैं। सुख-शान्ति से रहने का असमिया समाज का मानवाधिकार इन आतंकवादियों-अलगाववादियों ने छीन लिया है। कुछ क्षेत्रों मे दिन डूबते ही लोगों का घर से निकलना भी दूभर हो गया है, वहां आतंकवादियों की काली छाया छायी रहती है। किन्तु कथित मानवाधिकारवादी संगठनों व उनके प्रमुखों को यह दिखाई नहीं देता है। जब आतंकवादियों को नियंत्रित करने के लिए सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल या असम रायफल्स के जवानों को सख्ती करने के आदेश दिए जाते हैं तब इन मानवाधिकारवादियों का अमानवीय आचरण उभरकर सामने आता है। ये आतंकवादियों को संरक्षण देने तथा सुरक्षा बलों, सेना व सरकार को बदनाम करने की मुहिम चला देते हैं।
मणिपुर के दर्दनाक हालात
इस समय पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर के हालात सबसे ज्यादा खराब हैं। यूनाईटेड नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट (यू.एन.एल.एफ.) पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी.एल.ए.), प्रीपाक, कांग्लीपाक कम्युनिस्ट पार्टी (के.सी.पी.), के.वाई.के.एल. आदि दर्जन भर से अधिक आतंकवादी संगठनों के साथ चर्च व ईसाई, नागा आतंकवादी संगठन, इस्लामी आतंकवादी संगठन तथा माओवादी- इन सबका यहां एक साझा संगठन बनता नजर आता है। इन सबके बीच समन्वय बैठाने में चर्च, इस्लामी संगठन व माओवादी नेता अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। वे जहां, जैसी आवश्यकता होती है-स्वयं को कभी ईसाई बताते हैं, कभी मुसलमान बताते हैं तो कभी कम्युनिस्ट बताते हैं, इसलिए इनके अलग-अलग अनेक नाम हैं। परेश बरुआ के भी तीन-चार मुस्लिम नाम हैं। यही कारण है कि जहां-जहां मणिपुरी आतंकवादी सक्रिय हैं वहां-वहां तीव्र गति से मतांतरण हो रहा है। गांव-गांव में चर्च बनते जा रहे हैं, साथ ही मस्जिदों व मदरसों का जाल फैलता जा रहा है। जहां-जहां चर्च व मिशनरी स्कूल, मस्जिद व मदरसों का जाल है, वहीं माओवादियों का भी संगठन तंत्र खड़ा होता नजर आ रहा है।
हिन्दुओं के विरुद्ध सब एक
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ईसाई, मुसलमान व कम्युनिस्ट परस्पर शत्रु हैं, किन्तु मणिपुर व असम में ये तीनों परस्पर सहयोगी बनकर मणिपुर के मैतेई हिन्दुओं तथा असम के सभी वर्गो के हिन्दुओं को प्रताड़ित कर रहे हैं। समाज का जो कोई व्यक्ति इनके खिलाफ बोलने का साहस करता है, उसको ये आतंकवादी सदा के लिए शान्त कर देते हैं। सुख-शांति से रहने, स्वतंत्र विचार प्रकट करने तथा प्रदेश व देश के किसी भी कोने में विचरण करने के संवैधानिक मौलिक मानवाधिकार को मणिपुर में इन आतंकवादियों ने छीन लिया है। गत दो वर्षों में एक सौ हिन्दीभाषियों की हत्या कर दी गई है। सैकड़ों स्थानीय मणिपुरी लोगों व मैतेई लोगों की हत्या इन आतंकवादियों ने कर दी है। मणिपुर का पूरा उद्योग-धंधा, कृषि व कल-कारखानांे को इन विदेश पोषित उग्रवादियों ने नष्ट कर दिया है। यहां से गैरमणिपुरियों के साथ-साथ स्थानीय मणिपुरियों का प्रतिभा पलायन हो रहा है। हजारों की संख्या में मणिपुरी छात्र-छात्राएं पढ़ने तथा रोजगार की तलाश में दक्षिण भारत में केरल, पश्चिम में राजस्थान व उत्तर में कश्मीर तक जा रहे हैं। यहां जो स्थान रिक्त हो रहे हैं वहां चर्च, मिशनरी स्कूल, मस्जिद, मदरसा तथा माओवादी संगठनों की इकाई गठित होती जा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ही क्षेत्र में ये तीनों शक्तियां कार्यरत हैं किन्तु परस्पर शत्रु होते हुए भी इन्हें लड़ते-झगड़ते कभी नहीं देखा जाता। किन्तु इन तीनों को हिन्दुओं पर हमले करते हुए देखा जा सकता है।
मानवाधिकारवादियों का पाखण्ड
मानवाधिकारवादियों को आतंकवादियों द्वारा मणिपुरी समाज के मानव अधिकारों के हनन की सच्चाई दिखाई नहीं देती। विवश होकर जब केन्द्र सरकार या राज्य सरकार गस्त बढ़ाने के लिये सेना व सुरक्षा बलों को तैनात करती है तो विदेश पोषित कई मानवाधिकारवादी तो बरसाती मेढक की तरह बाहर निकल आते हैं और सेना व सरकार को बदनाम करने के लिए झूठे आरोप लगाते हैं, दुष्प्रचार करते हैं और आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं। ऐसा करना इन तथाकथित मानवाधिकारवादियांे का पेशा बन गया है। ऐसा करने के कारण उनको विदेश से बहुत धन मिलता है।
नागालैण्ड में यद्यपि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खापलांग) का सेना व केन्द्र सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौता हुआ है, जिसके अनुसार नागालैण्ड के भीतर निर्धारित शिविरों में ही उनको रहना है, शस्त्र लेकर बाहर निकलना मना है, किन्तु नागा ईसाई आतंकवादी अवैध शस्त्र लेकर, चारों तरफ हिंसा, अपहरण तथा धन उगाही कर रहे हैं। मणिपुर व अरुणाचल प्रदेश में भी उन्होंने अपने अवैध शिविर बनाये हुए हैं। बैप्टिस्ट व कैथोलिक चर्च दोनों ही उनकी मदद कर रहे हैं। चर्च आतंकवादियों की शरण स्थली है तो ईसाई मिशनरियों का घर अवैध हथियारों के छिपाने का अड्डा बन गया है। सेना ने कई नागा ईसाई मिशनरियों के घर से हथियारों का जखीरा पकड़ा है। नागा ईसाइ मिशनरी जासूसी तो करते ही हैं, लड़कियों की देह व्यापार के लिए बेचने, मादक द्रव्यों व हथियारों का अवैध व्यापार भी करते पकड़े जा रहे हैं। नागालैण्ड की सरकार इनको संरक्षण प्रदान करती है। इसलिए ईस्टर्न नागा पीपुल्स आर्गनाइजेशन (ई.एन.पी.ओ) ने मोन, ट्वेनसाड़, लांग्ड्लेंग किफिरे-इन चारों जिलों के कोन्याक, चाड़, फोम, यिमचुंगर खेमुंगन, साड़तम आदि छ: नागा जनजातियों के लिए नागालैण्ड से अलग सीमान्त नागा राज्य की मांग की गई है।
सुरक्षा बलों को बदनाम करने का षड्यंत्र
मिजोरम में रियांग व चकमा लोगों को उनके जल-जमीन व धर्म से मिजो ईसाइयों द्वारा बेदखल किया जा रहा है। एशियन कमीशन फॉर ह्यूमनराइट्स के निदेशक सुहास चकमा हैं। चकमा व रियांग हिन्दुओं के मानवाधिकार के पक्ष में बोलते हुए इनको कभी नहीं देखा-सुना गया। बताया जाता है कि सुहास चकमा ईसाई बनकर चर्च के लिए काम करता है और सेना को बदनाम करने की मुहिम में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। अरुणाचल प्रदेश की चांगलांग व तिरप जिले में एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खापलांग) के हथियारबंद आतंकवादियों ने वहां के लोगों की नींद हराम कर दी है। बन्दूक की नोक पर उनको ईसाई बनने के लिए विवश किया जा रहा है। सुहास चकमा तथा उनके सहयोगी मानवाधिकारवादियों को यह दिखाई नहीं देता है क्या? मेघालय में गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी (जी.एन.एल.ए.) का आतंक चरम सीमा पर है, मानवाधिकारवादी कहां हैं? जी.एन.एल.ए. का अत्याचार व आतंक इनको क्यों नहीं दिखाई देता?
अभी-अभी 24 मई, 2012 को जेनेवा में राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद् का तेरहवां सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में स्लोवाकिया, स्विट्जरलैंड तथा फ्रांस ने भारत के इस क्षेत्र से सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम (1958) को हटाने की मांग की। बताया जाता है कि इस सम्मेलन में स्लोवाकिया का वह राजनयिक भी था जो 14 से 16 मई, 2012 को यूरोपीय देशों के 8 राजनायिकों के दल में था, जो गृह मंत्रालय की आपत्ति के बावजूद नागालैण्ड आया था। डा. डी. राय लाइफंगबम राष्ट्र संघ सिविल सोसाइटी कोएलिशन आन ह्यूमनराइट्स का संयोजक है और मणिपुर चैप्टर का भी प्रमुख है। उसने सेना व भारत सरकार को राष्ट्र संघ मंे बदनाम करने में गोरे ईसाई राजनयिकों की मदद की। मानवाधिकारवादियों के इस प्रकार के अमानवीय आचरण के कारण पूर्वोत्तर भारत के प्राय: सभी राज्यों मंे आतंकवादियों के हौसले बुलन्द हैं और सेना को बदनाम करने की मुहिम चल पड़ी है। इस मुहिम में कुछ भाड़े के पत्रकार व स्तंभ लेखक भी शामिल हो गए हैं। केन्द्र सरकार असहाय की भांति सिर्फ देख रही है, मानो उसके दिलो-दिमाग को लकवा मार गया है। इस कारण पूर्वोत्तर राज्यों में अमरीका, यूरोपीय संगठन के ईसाई देशों व चीन पोषित आतंकवादी संगठनों की गतिविधियों में तेजी आ रही है और सेना को बदनाम करने की मुहिम जारी है। इस मुहिम का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना आवश्यक है। पाखण्डी मानवाधिकारवादियों के दुष्प्रचार की ओर ध्यान न देते हुए भारत सरकार को चाहिए कि वह पूरे पूर्वोत्तर भारत में कठोर सैन्य कार्रवाई करे ताकि भारत का यह भू-भाग भारत में ही रहे और यहां के लोग सुख-शान्ति से रहकर अपने मानवाधिकारों की रक्षा कर सकें।
मानवाधिकारवादियों को आतंकवादियों द्वारा मणिपुरी समाज के मानव अधिकारों के हनन की सच्चाई दिखाई नहीं देती। विवश होकर जब केन्द्र सरकार या राज्य सरकार गश्त बढ़ाने के लिये सेना व सुरक्षा बलों को तैनात करती है तो विदेश पोषित कई मानवाधिकारवादी तो बरसाती मेढक की तरह बाहर निकल आते हैं और सेना व सरकार को बदनाम करने के लिए झूठे आरोप लगाते हैं, दुष्प्रचार करते हैं और आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं। ऐसा करना इन तथाकथित मानवाधिकारवादियांे का पेशा बन गया है। ऐसा करने के कारण उनको विदेश से बहुत धन मिलता है।
मानवाधिकारवादियों का
अमानवीय चेहरा
जगदम्बा मल्ल
पूर्वोत्तर भारत में असम सबसे बड़ा राज्य है और उल्फा यहां का सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन। इसका स्वयंभू सैन्य प्रमुख परेश बरुआ चीन, म्यांमार व बंगलादेश में घूमता रहता है और घातक हथियारों और मादक पदार्थ की तस्करी से धन कमाता है। माओवादियों के साथ मिलकर पूर्वोत्तर भारत के सभी आतंकवादी संगठनों को मदद भी पहुंचाता है। पूरे असम में उल्फा मार-काट व आतंक से धन उगाही करता है। कहीं उल्फा वाले आग लगा देते हैं, कहीं अपहरण करते हैं तो कहीं हत्या और रेल गाड़ियों में बम विस्फोट कर दर्जनों निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या कर देते हैं। परिणामत: असम से प्रतिभा पलायन के साथ उद्योग-धन्धों, कल-कारखानों और चाय बागानों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। दर्जनों आतंकवादी संगठनों की आड़ में अनगिनत अपराधियों ने असम को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इस्लामी आतंवादियों, ईसाई आतंकवादियों और माओवादियो की भी उल्फा मदद करता है और बदले में उनसे धन बसूलता है।
असम में रहने वाले सभी वर्गों के लोगों की सुरक्षा, शान्ति के साथ ही प्राकृतिक संसाधन खतरे में पड़ गए हैं। सुख-शान्ति से रहने का असमिया समाज का मानवाधिकार इन आतंकवादियों-अलगाववादियों ने छीन लिया है। कुछ क्षेत्रों मे दिन डूबते ही लोगों का घर से निकलना भी दूभर हो गया है, वहां आतंकवादियों की काली छाया छायी रहती है। किन्तु कथित मानवाधिकारवादी संगठनों व उनके प्रमुखों को यह दिखाई नहीं देता है। जब आतंकवादियों को नियंत्रित करने के लिए सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल या असम रायफल्स के जवानों को सख्ती करने के आदेश दिए जाते हैं तब इन मानवाधिकारवादियों का अमानवीय आचरण उभरकर सामने आता है। ये आतंकवादियों को संरक्षण देने तथा सुरक्षा बलों, सेना व सरकार को बदनाम करने की मुहिम चला देते हैं।
मणिपुर के दर्दनाक हालात
इस समय पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर के हालात सबसे ज्यादा खराब हैं। यूनाईटेड नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट (यू.एन.एल.एफ.) पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी.एल.ए.), प्रीपाक, कांग्लीपाक कम्युनिस्ट पार्टी (के.सी.पी.), के.वाई.के.एल. आदि दर्जन भर से अधिक आतंकवादी संगठनों के साथ चर्च व ईसाई, नागा आतंकवादी संगठन, इस्लामी आतंकवादी संगठन तथा माओवादी- इन सबका यहां एक साझा संगठन बनता नजर आता है। इन सबके बीच समन्वय बैठाने में चर्च, इस्लामी संगठन व माओवादी नेता अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। वे जहां, जैसी आवश्यकता होती है-स्वयं को कभी ईसाई बताते हैं, कभी मुसलमान बताते हैं तो कभी कम्युनिस्ट बताते हैं, इसलिए इनके अलग-अलग अनेक नाम हैं। परेश बरुआ के भी तीन-चार मुस्लिम नाम हैं। यही कारण है कि जहां-जहां मणिपुरी आतंकवादी सक्रिय हैं वहां-वहां तीव्र गति से मतांतरण हो रहा है। गांव-गांव में चर्च बनते जा रहे हैं, साथ ही मस्जिदों व मदरसों का जाल फैलता जा रहा है। जहां-जहां चर्च व मिशनरी स्कूल, मस्जिद व मदरसों का जाल है, वहीं माओवादियों का भी संगठन तंत्र खड़ा होता नजर आ रहा है।
हिन्दुओं के विरुद्ध सब एक
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ईसाई, मुसलमान व कम्युनिस्ट परस्पर शत्रु हैं, किन्तु मणिपुर व असम में ये तीनों परस्पर सहयोगी बनकर मणिपुर के मैतेई हिन्दुओं तथा असम के सभी वर्गो के हिन्दुओं को प्रताड़ित कर रहे हैं। समाज का जो कोई व्यक्ति इनके खिलाफ बोलने का साहस करता है, उसको ये आतंकवादी सदा के लिए शान्त कर देते हैं। सुख-शांति से रहने, स्वतंत्र विचार प्रकट करने तथा प्रदेश व देश के किसी भी कोने में विचरण करने के संवैधानिक मौलिक मानवाधिकार को मणिपुर में इन आतंकवादियों ने छीन लिया है। गत दो वर्षों में एक सौ हिन्दीभाषियों की हत्या कर दी गई है। सैकड़ों स्थानीय मणिपुरी लोगों व मैतेई लोगों की हत्या इन आतंकवादियों ने कर दी है। मणिपुर का पूरा उद्योग-धंधा, कृषि व कल-कारखानांे को इन विदेश पोषित उग्रवादियों ने नष्ट कर दिया है। यहां से गैरमणिपुरियों के साथ-साथ स्थानीय मणिपुरियों का प्रतिभा पलायन हो रहा है। हजारों की संख्या में मणिपुरी छात्र-छात्राएं पढ़ने तथा रोजगार की तलाश में दक्षिण भारत में केरल, पश्चिम में राजस्थान व उत्तर में कश्मीर तक जा रहे हैं। यहां जो स्थान रिक्त हो रहे हैं वहां चर्च, मिशनरी स्कूल, मस्जिद, मदरसा तथा माओवादी संगठनों की इकाई गठित होती जा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ही क्षेत्र में ये तीनों शक्तियां कार्यरत हैं किन्तु परस्पर शत्रु होते हुए भी इन्हें लड़ते-झगड़ते कभी नहीं देखा जाता। किन्तु इन तीनों को हिन्दुओं पर हमले करते हुए देखा जा सकता है।
मानवाधिकारवादियों का पाखण्ड
मानवाधिकारवादियों को आतंकवादियों द्वारा मणिपुरी समाज के मानव अधिकारों के हनन की सच्चाई दिखाई नहीं देती। विवश होकर जब केन्द्र सरकार या राज्य सरकार गस्त बढ़ाने के लिये सेना व सुरक्षा बलों को तैनात करती है तो विदेश पोषित कई मानवाधिकारवादी तो बरसाती मेढक की तरह बाहर निकल आते हैं और सेना व सरकार को बदनाम करने के लिए झूठे आरोप लगाते हैं, दुष्प्रचार करते हैं और आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं। ऐसा करना इन तथाकथित मानवाधिकारवादियांे का पेशा बन गया है। ऐसा करने के कारण उनको विदेश से बहुत धन मिलता है।
नागालैण्ड में यद्यपि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खापलांग) का सेना व केन्द्र सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौता हुआ है, जिसके अनुसार नागालैण्ड के भीतर निर्धारित शिविरों में ही उनको रहना है, शस्त्र लेकर बाहर निकलना मना है, किन्तु नागा ईसाई आतंकवादी अवैध शस्त्र लेकर, चारों तरफ हिंसा, अपहरण तथा धन उगाही कर रहे हैं। मणिपुर व अरुणाचल प्रदेश में भी उन्होंने अपने अवैध शिविर बनाये हुए हैं। बैप्टिस्ट व कैथोलिक चर्च दोनों ही उनकी मदद कर रहे हैं। चर्च आतंकवादियों की शरण स्थली है तो ईसाई मिशनरियों का घर अवैध हथियारों के छिपाने का अड्डा बन गया है। सेना ने कई नागा ईसाई मिशनरियों के घर से हथियारों का जखीरा पकड़ा है। नागा ईसाइ मिशनरी जासूसी तो करते ही हैं, लड़कियों की देह व्यापार के लिए बेचने, मादक द्रव्यों व हथियारों का अवैध व्यापार भी करते पकड़े जा रहे हैं। नागालैण्ड की सरकार इनको संरक्षण प्रदान करती है। इसलिए ईस्टर्न नागा पीपुल्स आर्गनाइजेशन (ई.एन.पी.ओ) ने मोन, ट्वेनसाड़, लांग्ड्लेंग किफिरे-इन चारों जिलों के कोन्याक, चाड़, फोम, यिमचुंगर खेमुंगन, साड़तम आदि छ: नागा जनजातियों के लिए नागालैण्ड से अलग सीमान्त नागा राज्य की मांग की गई है।
सुरक्षा बलों को बदनाम करने का षड्यंत्र
मिजोरम में रियांग व चकमा लोगों को उनके जल-जमीन व धर्म से मिजो ईसाइयों द्वारा बेदखल किया जा रहा है। एशियन कमीशन फॉर ह्यूमनराइट्स के निदेशक सुहास चकमा हैं। चकमा व रियांग हिन्दुओं के मानवाधिकार के पक्ष में बोलते हुए इनको कभी नहीं देखा-सुना गया। बताया जाता है कि सुहास चकमा ईसाई बनकर चर्च के लिए काम करता है और सेना को बदनाम करने की मुहिम में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। अरुणाचल प्रदेश की चांगलांग व तिरप जिले में एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खापलांग) के हथियारबंद आतंकवादियों ने वहां के लोगों की नींद हराम कर दी है। बन्दूक की नोक पर उनको ईसाई बनने के लिए विवश किया जा रहा है। सुहास चकमा तथा उनके सहयोगी मानवाधिकारवादियों को यह दिखाई नहीं देता है क्या? मेघालय में गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी (जी.एन.एल.ए.) का आतंक चरम सीमा पर है, मानवाधिकारवादी कहां हैं? जी.एन.एल.ए. का अत्याचार व आतंक इनको क्यों नहीं दिखाई देता?
अभी-अभी 24 मई, 2012 को जेनेवा में राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद् का तेरहवां सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में स्लोवाकिया, स्विट्जरलैंड तथा फ्रांस ने भारत के इस क्षेत्र से सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम (1958) को हटाने की मांग की। बताया जाता है कि इस सम्मेलन में स्लोवाकिया का वह राजनयिक भी था जो 14 से 16 मई, 2012 को यूरोपीय देशों के 8 राजनायिकों के दल में था, जो गृह मंत्रालय की आपत्ति के बावजूद नागालैण्ड आया था। डा. डी. राय लाइफंगबम राष्ट्र संघ सिविल सोसाइटी कोएलिशन आन ह्यूमनराइट्स का संयोजक है और मणिपुर चैप्टर का भी प्रमुख है। उसने सेना व भारत सरकार को राष्ट्र संघ मंे बदनाम करने में गोरे ईसाई राजनयिकों की मदद की। मानवाधिकारवादियों के इस प्रकार के अमानवीय आचरण के कारण पूर्वोत्तर भारत के प्राय: सभी राज्यों मंे आतंकवादियों के हौसले बुलन्द हैं और सेना को बदनाम करने की मुहिम चल पड़ी है। इस मुहिम में कुछ भाड़े के पत्रकार व स्तंभ लेखक भी शामिल हो गए हैं। केन्द्र सरकार असहाय की भांति सिर्फ देख रही है, मानो उसके दिलो-दिमाग को लकवा मार गया है। इस कारण पूर्वोत्तर राज्यों में अमरीका, यूरोपीय संगठन के ईसाई देशों व चीन पोषित आतंकवादी संगठनों की गतिविधियों में तेजी आ रही है और सेना को बदनाम करने की मुहिम जारी है। इस मुहिम का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना आवश्यक है। पाखण्डी मानवाधिकारवादियों के दुष्प्रचार की ओर ध्यान न देते हुए भारत सरकार को चाहिए कि वह पूरे पूर्वोत्तर भारत में कठोर सैन्य कार्रवाई करे ताकि भारत का यह भू-भाग भारत में ही रहे और यहां के लोग सुख-शान्ति से रहकर अपने मानवाधिकारों की रक्षा कर सकें।
मानवाधिकारवादियों को आतंकवादियों द्वारा मणिपुरी समाज के मानव अधिकारों के हनन की सच्चाई दिखाई नहीं देती। विवश होकर जब केन्द्र सरकार या राज्य सरकार गश्त बढ़ाने के लिये सेना व सुरक्षा बलों को तैनात करती है तो विदेश पोषित कई मानवाधिकारवादी तो बरसाती मेढक की तरह बाहर निकल आते हैं और सेना व सरकार को बदनाम करने के लिए झूठे आरोप लगाते हैं, दुष्प्रचार करते हैं और आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं। ऐसा करना इन तथाकथित मानवाधिकारवादियांे का पेशा बन गया है। ऐसा करने के कारण उनको विदेश से बहुत धन मिलता है।
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