साहित्यिकी
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साहित्यिकी
डा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय”
कठपुतली को नाच नचाते देखा है,
लिखे पराये बोल बुलाते देखा है।
ढूंढे मिल ही जाते मिट्टी के माधो,
मनमर्जी की चाल चलाते देखा है।
द्वार पड़े श्वानों को मिलते ही टुकड़े
पीछे-पीछे पूंछ हिलाते देखा है।
सूखे की शंका होते ही भैरव को,
बिठा गुडलिये गांव घुमाते देखा है।
होता है धृतराष्ट्र राष्ट्र का जब शासक,
घटकों तक को पाप कमाते देखा है।
छिड़ते ही काला धन लाने की चर्चा
सूत्रधार को आंख चुराते देखा है।
काल से टकराते हुए
ज्ञान की आग में “मैं और मेरापन” ही जलता है, दूसरा कोई उपाय नहीं। महाभारत के दोनों प्रमुख पक्ष-धृतराष्ट्र और अर्जुन की समस्या “मैं और मेरापन” है। हिन्दी के शिखर पुरुष रामचन्द्र शुक्ल ने “सच और झूठ” के बारे में बड़ी सुन्दर टिप्पणी की है कि झूठ निजी होता है और सत्य सार्वजनिक। धृतराष्ट्र पक्ष के अपने तर्क हैं और अर्जुन के अपने। दोनों के तर्क निजी हैं। तर्क निजी होते भी हैं। दर्शन और विज्ञान सत्य तक ले जाते हैं। गीता इसी सत्य का दर्शन-दिग्दर्शन है। गीता के चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्राचीन ज्ञान परम्परा की जानकारी दी और कहा कि यह ज्ञान सूर्य से मनु और इक्ष्वाकु आदि से होता हुआ सर्वव्यापी था लेकिन काल के प्रभाव में यह ज्ञान नष्ट हो गया। श्री कृष्ण ने वही ज्ञान अर्जुन को दिया।
गीता का ज्ञान हजारों वर्ष पुराना है। आदि शंकराचार्य ने इसे नए काल में परिभाषित किया था। पर शंकराचार्य का भाष्य पुराना हो गया। तब तिलक, गांधी, डा. राधाकृष्णन् आदि अनेक अनुभवी विद्वानों ने इसे फिर से ताजगी दी। भक्ति वेदान्त ट्रस्ट ने इसके भक्ति रस को विश्वव्यापी बनाया। गीता प्रेस गोरखपुर ने गीता के प्रचार-प्रसार पर ऐतिहासिक काम किया। उसने आदि शंकराचार्य के संस्कृत भाष्य का भी हिन्दी अनुवाद कराया। अलग से भी गीता का अनुवाद हुआ।
इसी श्रृंखला में श्री हृदयनारायण दीक्षित की पुस्तक “भगवद्गीता” नये सम्वाद का अवसर देती है। श्री दीक्षित ने गीता से स्वयं सम्वाद किया है। वे वाद-विवाद और सम्वाद की संसदीय प्रज्ञा से युक्त मनीषी हैं। गीता पर यह “एक और पुस्तक” नहीं अपितु गीता पर यह एक नई पुस्तक है। लेखक दृष्टिकोण में तटस्थ रहे हैं। उन्होंने गीता तत्वों को लेकर ऋग्वेद और उपनिषद् साहित्य खंगाला है। गूढ़ को सरल बनाना और सामान्य बोलचाल की भाषा में लिखना उनका कौशल है। उनके इस कौशल से सम्पूर्ण हिन्दी जगत का परिचय है।
लोकहित प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में अनेक बातें नई हैं। उदाहरणार्थ – गीता के प्रमुख विषयों का अलग से चयन और उन पर 9 महत्वपूर्ण निबंध हैं। पहले उनका आनंद है इसके बाद गीता की अन्तर्यात्रा है। “विषाद और प्रसाद” व ज्ञान-अध्यात्म वाले अध्याय बार-बार पठनीय हैं। पुनर्जन्म वाले अध्याय में नई बात यह है कि अनेक वैदिक विद्वान ऋग्वैदिक काल में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं मानते। श्री दीक्षित ने ऋग्वेद में भी पुनर्जन्म के सूत्र-मंत्र खोजे हैं और तथ्यों, सूक्तों व मंत्रों की क्रम संख्या का उल्लेख भी किया है। योग गीता का केन्द्रीय तत्व है। इस पुस्तक में योग को भी ऋग्वेद में देखा गया है। फिर पतंजलि के योग सूत्रों का उल्लेख करते हुए गीता के योग विज्ञान का विवेचन किया गया है।
कुछ यूरोपीय विद्वान गीता पर भाववाद के आरोप लगाते रहे हैं। श्री दीक्षित के विवेचन में गजब का संसारवाद और वैज्ञानिक भौतिकवाद है। श्रीमद्भगवद्गीता का उद्गम महाभारत की रणभूमि है। आज भी भारत में महाभारत चल रहा है। पहले सिर्फ एक धृतराष्ट्र था, अब हजारों धृतराष्ट्र हैं, हजारों युवा-अर्जुन विषादग्रस्त हैं, लेकिन श्रीकृष्ण जैसी प्रबोधिनी प्रज्ञा का अभाव है; इसलिए काल के प्रभाव से टकराते हुए गीता को नये सिरे से गाना जरूरी था। लेखक ने यही काम कर दिखाया है। गीता पर उनकी टिप्पणी भी रोचक है, “गीता अर्जुन और श्रीकृष्ण की बातचीत ही है, श्रीकृष्ण की लिखी किताब नहीं।” “गीता विश्वदर्शन का सारभूत ज्ञान अभिलेख है।”
लोकहित प्रकाशन के प्रति अनुग्रह है। प्रकाशक ने ऐसी महत्वपूर्ण और 236 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य सिर्फ 100 रुपये ही रखा है। विश्वास है कि पुस्तक खूब पढ़ी जायेगी। इस पुस्तक में एक बार नहीं, बारम्बार पढ़ने का आकर्षण है। पहली बार यूं ही कि क्या नया है? दूसरी बार गीता की अन्त: गुहा में प्रवेश की जिज्ञासा के साथ और तीसरी बार आनंद रस की प्राप्ति के लिए।
द डा. विपिन पाण्डेय
पुस्तक का नाम -भगवद्गीता
लेखक – हृदय नारायण दीक्षित
प्रकाशक – लोकहित प्रकाशन
राजेन्द्र नगर, लखनऊ
मूल्य – 100 रु. पृष्ठ-236
विराम चिह्नों से भाषा में सुगमता
अत्यंत क्लिष्ट तथ्य और सिद्धांत को सरल भाषा में सोदाहरण समझाकर सुप्रसिद्ध लेखक और अनेक पुस्तकों के रचयिता डा. प्रेम भारती ने अद्भुत अवदान दिया है। “विराम चिह्न: प्रकार एवं प्रयोग” एक छात्रोपयोगी और संग्रहणीय पुस्तक है। काफी कुछ इसकी भूमिका में है। वस्तुत: विराम चिह्न एक प्रकार का शब्दानुशासन होता है। इसके प्रयोग से भाषा अधिक सुगम होती है, जबकि गलत प्रयोग से अर्थ काफी कुछ बदल जाता है।
पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक को तीन खण्डों में बांटा गया है- विराम चिह्न, विरामेतर चिह्न तथा हल सहित परिशिष्ट। विचारों एवं भावों की स्पष्टता के लिए विराम चिह्न का सार्थक महत्व है। वाक्य की पूर्णता को प्रकट करने के लिए अर्थात् एक वाक्य को दूसरे वाक्य से अलग करने के लिए पूर्ण विराम का प्रयोग किया जाता है। इसमें असावधानी करने पर अनर्थ की आशंका रहती है।
पूर्ण विराम (।) और अद्र्धविराम (;) का अनेक स्थानों पर गलत प्रयोग होता है। दो से अधिक उप वाक्यों को परस्पर जोड़ने में इसका प्रयोग होता है। जैसे पतंग उड़ा लो; फिर चलेंगे। एक और उदाहरण, “मैं मनुष्य में मनुष्यता देखना चाहता हूं। उसे देवता बनाकर पूजने की मेरी इच्छा नहीं है।” इस वाक्य में पूर्णविराम नहीं, अद्र्धविराम का प्रयोग उचित है। इसी प्रकार अल्प विराम (,), उप विराम (:), ऊध्र्व विराम (“), प्रश्नवाचक चिह्न (?) विस्मयादिबोधक चिह्न (!) निर्देशक चिह्न (-), सामाजिक चिह्न (—), अवतरण चिह्न (“”””) आदि को स्पष्ट करने के लिए अवधारणा व उदाहरण द्वारा भली-भांति समझाया गया है।
खण्ड दो में विरामेतर चिह्न को सोदाहरण स्पष्ट किया गया है। संकेतक चिह्न(), समतासूचक चिह्न(उ), व्युत्पादक चिह्न (ऊ), कोष्ठक () चिह्न आदि की कई संदर्भों में चर्चा की गई है। प्रतिहंस-पदचिह्न (ध्) के बारे में बताया गया कि लेखन में यदि कोई पद या वाक्यांश भूलवश छूट जाता है तो छूटे हुए अंश को पंक्ति के नीचे लिखा जाता है तथा त्रुटि वाले स्थान पर प्रतिहंस पदचिह्न (ध्) लगाया जाता है। यथा: राम मोहन, सुरेश ध् श्याम घर चले गए। यहां “और” हंसपद या त्रुटिपरक चिह्न (ट्ट) में छूटे हुए स्थल में लगाकर छूटा हुआ अंश लिखा जाता है।
खण्ड-तीन परिशिष्ट है, जिसमें अभ्यास के लिए प्रश्न और उत्तर हैं। यह अभ्यास की दृष्टि से काफी अच्छा है। अगले अध्याय में स्व-मूल्यांकन, पारिभाषिक शब्दावली है जहां अभ्यास के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। पुस्तक की विशेषता यह है कि यह सिद्धांत, परिभाषा को स्मरण कराने के साथ प्रयोग, त्रुटि, हल, सुधार और स्वाध्याय की ओर भी अभिप्रेरित करती है। बिना व्याकरण जाने-समझे हिन्दी को अत्यंत सरल समझकर ढेर सारी गलतियों के साथ कुछ भी लिखते समय झूठे दर्प को ओढ़े काम करने की रोजमर्रा की आदत ने गलत को सही ठहरा दिया है। इसे पढ़ने और मनन करने के बाद कई त्रुटियां स्वत: समाप्त हो सकती हैं। यह पुस्तक सरल और सुबोध है। द डा. अंजनी कुमार झा
पुस्तक का नाम – विराम चिह्न
प्रकार एवं प्रयोग
समीक्षा – डा. प्रेम भारती
प्रकाशक – देववाणी प्रकाशन
331/126 ए, कीटगंज,इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य – 200 रु. पृष्ठ-105 सम्पर्क – (0) 94153660939
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