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उत्तर प्रदेश /हरिमंगल
उ.प्र. में अब पूर्व और वर्तमान नौकरशाहों को भी राजनीति रास आ रही है। अतीत में दो-चार नौकरशाहों की पसंद बनी राजनीति में अब इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। अन्य सेवाओं से इतर केवल प्रशासनिक एवं पुलिस सेवा के दो दर्जन से अधिक सेवानिवृत्त अधिकारी विभिन्न राजनीतिक दलों में राजनीतिक पारी खेलने को तैयार हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो स्वयं किसी कारण से सीधे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ पा रहे हैं तो वे अपने बेटे, बेटी, बहू या पत्नी को सक्रिय राजनीति में ला रहे हैं। इसी के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि अब तक जिन नौकरशाहों ने राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया था उनमें से अधिकांश वह ख्याति अर्जित नहीं कर पाए जिसकी अपेक्षा करके वह राजनीति में गए थे।
महत्वपूर्ण पदों पर रहकर अपनी अलग पहचान बनाने वाले नौकरशाहों को राजनीति क्यों रास आ रही है, यह अब बहस का मुद्दा बन गया है। कोई इसे समाज सेवा की इच्छा बता रहा है तो कोई राजनीति की चकाचौंध में जीने की ललक, लेकिन विभिन्न दलों के प्रमुख कहते हैं कि ऐसे लोगों के राजनीति में आने से विकास कार्यों को गति मिलेगी। कारण जो भी हों, लेकिन विधानसभा चुनावों की घोषणा होते ही सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने अपने पूर्व संबंधों का फायदा उठाते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों का दामन थामना शुरू कर दिया। जिन्हें प्रमुख राष्ट्रीय दलों में जगह नहीं मिली, उन्होंने नये बने क्षेत्रीय दलों का दामन थामा। इसका लाभ यह हुआ कि नौकरशाहों को इन छोटे दलों में महत्वपूर्ण पद या फिर सीधे विधानसभा का टिकट मिल गया और नई बनी पार्टी को एक बड़ा नाम, जिसकी कि उसे फिलहाल बहुत आवश्यकता है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में “पीस पार्टी” एक नया नाम है, लेकिन पूर्व नौकरशाहों को शामिल करने के मामले में आज यह पार्टी सबसे आगे है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाक्टर अयूब ने नौकरशाहों की चाहत को भांपते हुए अपने दल में उनके प्रवेश का द्वार खोल दिया और दर्जन भर पूर्व वरिष्ठ अधिकारी “पीस पार्टी” में शामिल हो गये। प्रदेश में अनेक विभागों में प्रमुख सचिव रहे एस.पी. आर्य (आई.ए.एस.), आई.ए.एस. रमा शंकर सिंह, प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक यशपाल, पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी आर.पी.सिंह एवं बृजेन्द्र सिंह उन चर्चित लोगों में से हैं जो “पीस पार्टी” में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। इनमें से रमा शंकर सिंह को तो पीस पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया गया है।
राष्ट्रीय लोकदल में भी पूर्व नौकरशाहों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आई.ए.एस. तथा पी.सी.एस. एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके आर.पी.शुक्ला रालोद के राष्ट्रीय महासचिव हैं तो प्रांतीय सेवा के पूर्व अधिकारी तथा पी.सी.एस. एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष बाबा हरदेव सिंह रालोद के प्रदेश अध्यक्ष हैं और आगरा के एत्मादपुर विधानसभा क्षेत्र से पार्टी के प्रत्याशी भी। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी मारकंडेय सिंह, एस.एन.दुबे तथा पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी महेन्द्र सिंह यादव, पूर्व निदेशक (होम्योपैथी चिकित्सा) डा.बी.एन.सिंह आदि रालोद का चुनाव संचालन एवं प्रचार का काम संभाल रहे हैं।
समाजवादी पार्टी ने पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी शशि कांत शर्मा को पार्टी में शामिल किया है। सपा के शासनकाल में प्रदेश के मुख्य सचिव रहे अखंड प्रताप सिंह की बेटी जूही सिंह को लखनऊ (पूर्व) से तथा उ.प्र. संवर्ग के वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी जय शंकर मिश्र के बेटे अभिषेक मिश्र को लखनऊ (उत्तर) से पार्टी का टिकट दिया गया है।
कांग्रेस पार्टी में पूर्व आई.ए.एस. रामकृष्ण त्रिपाठी को प्रवेश मिला है और पूर्व आयकर आयुक्त राम समुझ को गोरखपुर के खजनी विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया गया है। बसपा में पूर्व आई.ए.एस. हीरा लाल पासी शामिल हुए हैं और पूर्व अपर मुख्य अधिकारी बलराम को देवरिया के सलेमपुर से टिकट दिया गया है। प्रदेश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने की तथाकथित होड़ में शामिल अनेक ऐसे पूर्व नौकरशाह हैं जो माहौल का आकलन कर रहे हैं और जल्दी ही किसी न किसी दल के सदस्य बन जाएंगे।
हालांकि राजनीति में पूर्व नौकरशाहों को सफलता कम ही मिलती है। इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी पी.एल.पूनिया ही इस समय एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें कांग्रेस अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर दलितों की सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर रही है। अन्यथा किसी पूर्व नौकरशाह के पार्टी में शामिल होने पर कुछ दिन तक तो पार्टी तथा मीडिया में खासा प्रचार होता है लेकिन उसके बाद उनकी ख्याति धीरे-धीरे कम होती जाती है और एक दिन वह गुमनामी में खो जाता है। प्रदेश की राजनीति में कभी सितारे बनकर शामिल हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी राय सिंह, देवी दयाल, हरीश चन्द्र, चन्द्रपाल, ओम पाठक जैसे अनेक लोग आज राजनीतिक पार्टियों के सिर्फ साधारण सदस्य बनकर रह गये हैं। राजनीति में इन्हें उतनी ख्याति नहीं मिली जितना कि इन्हें प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर रहकर मिली थी। द
कर्मचारियों ने गठित की अपनी पार्टी
प्रदेश की राजनीति में एक ओर जहां पूर्व नौकरशाह विभिन्न राजनीतिक दलों में अपना स्थान खोज रहे हैं वहीं दूसरी ओर कर्मचारियों ने विभिन्न राजनीतिक दलों की परिक्रमा करने की बजाय अपना ही एक दल ही बना लिया है और उसके बैनर तले चुनाव लड़ने वालों की सूची भी जारी करना शुरू कर दी है। राजनीतिक दलों की तर्ज पर कर्मचारियों द्वारा बनायी गई पार्टी का नाम है “लोक कर्मचारी मोर्चा।” इस पार्टी में केन्द्रीय व राज्य कर्मचारियों के साथ-साथ शिक्षक, बैंक कर्मचारी, अभियंता तथा अधिवक्ता आदि शामिल हैं। लोक कर्मचारी मोर्चा के बैनर पर चुनाव लड़ने वाले 7 प्रत्याशियों की एक सूची भी जारी की जा चुकी है। इन प्रत्याशियों में चार लखनऊ में तथा एक-एक प्रत्याशी रामपुर, सोनभद्र तथा देवरिया के हैं।
उड़ीसा /पंचानन अग्रवाल
पिपिली बलात्कार काण्ड
उड़ीसा के कृषि मंत्री को देना ही पड़ा त्यागपत्र
उड़ीसा के बहुचर्चित पिपिली बलात्कार काण्ड में आखिरकार प्रदेश के कृषि मंत्री प्रदीप महारथी को त्यागपत्र देना ही पड़ा। हालांकि मानवता को शर्मसार कर देने वाली इस घटना के लिए इतना भर नाकाफी है। न्याय तो तब होगा जब प्रदीप महारथी सहित बलात्कार करने वाले अपराधियों को हमेशा- हमेशा के लिए सलाखों के पीछे धकेल दिया जाए।
उल्लेखनीय है कि पुरी जिले के पिपिली गांव में रहने वाली वंचित समाज की एक नाबालिग लड़की से गांव के ही कुछ दबंग लोगों ने 18 नवम्बर, 2011 को सामूहिक बलात्कार किया। चूकि बलात्कारी लोग प्रदेश के कृषि मंत्री प्रदीप महारथी के समर्थक थे, इसलिए पुलिस ने पीड़िता का मामला दर्ज नहीं किया और उसे भगा दिया। पीड़िता अपने साथ हुए बलात्कार की शिकायत करने के लिए अपने परिजनों के साथ उच्चाधिकारियों का दरवाजा खटखटाने लगी, इससे नाराज होकर अपराधियों ने उसके साथ दूसरी बार निर्ममतापूर्वक बलात्कार किया, जिससे उस नाबालिग की हालत बहुत बिगड़ गई। आखिरकार राज्य के महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप के बाद पीड़िता को भुवनेश्वर के कैपिटल अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसे आई.सी.यू (सघन निरीक्षण कक्ष) में रखा गया है। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए पीड़िता को सुरक्षा देने के साथ ही उसकी चिकित्सा के लिए अलग से चिकित्सकों का एक दल गठित करने के निर्देश दिए हैं। इस मामले में भारी दबाव के बाद 15 जनवरी को पुलिस ने आरोपियों को पकड़ने का अभियान शुरू किया और आखिरकार प्रदीप महारथी को भी त्यागपत्र देने के लिए बाध्य होना पड़ा। द
प.बंगाल /बासुदेब पाल
सत्ता बदली, पर हालात नहीं बदले
पश्चिम बंगाल में सोनिया कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की गठबंधन सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से राज्य की कानून-व्यवस्था की हालत अधिक खस्ता है। कई जगहों पर छात्र संगठनों के नेताओं और राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा कालेज के प्रधान-अध्यापकों, विभागाध्यक्षों का अपमान किया गया, उनसे मारपीट की गई एवं उनका घेराव किया गया। इस विषय पर राज्य के राज्यपाल एम.के. नारायणन ने काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इसी के साथ राज्यभर में चोरी, डकैती, महिलाओं के साथ अभद्रता, जगह-जगह पर दो गुटों के बीच मारपीट, दंगा-फसाद की घटनाएं भी बढ़ने लगी हैं। स्वयं राज्यपाल ने राजभवन में राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर इस विषय पर रपट मांगी और इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए क्या-क्या कदम उठाए जा रहे हैं, इसकी भी जानकारी मांगी। राज्य के गृह सचिव ज्ञानदत्त गौतम, पुलिस महानिदेशक नपराजित मुखोपाध्याय, कोलकाता के पुलिस अधीक्षक रणजीत कुमार पचनन्दा ने राजभवन जाकर राज्यपाल से मुलाकात की। इन उच्चाधिकारियों ने राज्यपाल को बताया कि कानून-व्यवस्था की स्थिति को नियंत्रित रखने के लिए सरकार हर प्रकार की कार्रवाई कर रही है।
आंकड़े बताते हैं कि गत वर्ष मई में, जब प्रदेश की विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे, तब गिरफ्तारी के 20 हजार से भी कम मामले लंबित थे। पिछले सात महीने में, नई सरकार के कार्यकाल में इनमें 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई और ये बढ़कर 30 हजार हो गये। यह आंकड़ा राज्य के गृह विभाग ने 1 जनवरी को जारी किया। इस रपट में पाया गया कि इन अपराधों में दंगा करने वाले, चोरी-डकैती, छीन-झपट, हत्या और हत्या की कोशिश एवं महिलाओं के खिलाफ अपराध शामिल हैं। राज्य में संगीन अपराधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अपराधी पुलिस के सामने खुलेआम घूम रहे हैं। जिनकी गिरफ्तारी के निर्देश दिए गए हैं, वे अगर बेरोकटोक घूम रहे हों तो यह समझा जा सकता है कि पुलिस निष्क्रिय है।
किसी भी राज्य में चुनाव के पहले चुनाव आयोग जिनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट हैं, उन्हें गिरफ्तार करने का निर्देश देता है। इस विषय पर मुख्य सचिव समर घोष ने कहा कि जिनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट हैं, उन सबको गिरफ्तार करने को कहा गया है तथा हर सप्ताह रपट देने को कहा गया है। इससे कानून- व्यवस्था की स्थिति में सुधार होगा। इस दौरान 26 दिसम्बर से 1 जनवरी के बीच नये सिरे से 3090 अपराधियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किये गये। यानी और इतनी बड़ी संख्या में आरोपी पुलिस की पकड़ से बाहर जा चुके हैं। जिन लोगों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किए गए हैं, उनमें इन अपराधों की श्रेणी में गिरफ्तारी वारंट जारी हुए हैं- 291- दंगा-फसाद करने के लिए, 315- चोरी-डकैती व राहजनी के मामले में, 263- महिलाओं के विरुद्ध अपराध, 161- हत्या या हत्या के प्रयास का अपराध। अन्य छोटे-बड़े आरोपों के लिए भी 2060 लोगों के खिलाफ पुलिस ने रपट दर्ज की है। गृह विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि 3090 लोगों में से 1030 लोगों ने संगीन अपराध किया है। नई सरकार आने के बाद पुलिस की पकड़ के बाहर जो 29,744 आरोपी घूम रहे हैं, उनमें से 16,512 गंभीर अपराध में आरोपी हैं।द
जोरों पर है जाली नोटों का धंधा
जाली नोटों के पकड़े जाने के मामले में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है। यहां दो बातों पर कोई संदेह नहीं है- पहला, यह सारे जाली नोट बंगलादेश से लाए या भेजे गए। दूसरा, जो पकड़ा गया वह तो एक अंश मात्र है। कोलकाता पुलिस द्वारा गत वर्ष 94 लाख रु. की नकली मुद्रा पकड़ी गई थी। 2011 में यह बढ़कर 1 करोड़ 18 लाख रुपए हो गई है। दूसरी ओर राज्य पुलिस द्वारा पकड़े गए जाली नोटों का परिमाण लगभग 2 करोड़ रु. है। राज्य पुलिस द्वारा पकड़े गये जाली नोटों का अधिकांश भाग बंगलादेश से सटे मालदा जिले में पकड़ा गया। रिजर्व बैंक ने अपनी रपट में कहा है कि, “जाली नोट पकड़ने को मामले में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है।” कोलकाता पुलिस द्वारा बताया गया है कि जाली नोटों का धंधा करने वाले ऐसे 16 गिरोहों को पकड़ा गया, 26 लोगों को गिरफ्तार किया गया। पकड़े गये लोगों में से अधिकांश मालदा जिले के कलियाचक एवं वैष्णवनगर थाना के रहने वाले हैं। कुछ मुर्शिदाबाद जिले के भी हैं। कोलकाता में इन्हें जाली नोटों का धंधा करते समय रंगे हाथों पकड़ा गया। सभी जाली नोट 1000 और 500 रुपए के थे।
पुलिस की विशेष शाखा को जाली नोटों के मामले में छानबीन करते समय कुछ इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों का भी पता चला। कोलकाता पुलिस से मिली जानकारी के आधार पर दिल्ली पुलिस ने बिहार, दिल्ली और चेन्नै से इंडियन मुजाहिदीन के सात गुर्गों को गिरफ्तार किया। पूछताछ में उन्होंने देश में तीन जगहों पर बम विस्फोट करने की बातें कबूल कीं। द
जम्मू-कश्मीर/ विशेष प्रतिनिधि
फिर अब्दुल्ला विलाप
कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा
नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष तथा केन्द्रीय मंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला ने एक बार फिर से कहा है कि पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है। अगर वे सत्ता में होते तो वे कश्मीरी पंडितों को कभी घाटी से जाने न देते। कहते हैं कि लोग समय के साथ बहुत कुछ भूल जाते हैं। अधिकतर राजनेता इसी सोच के साथ जनता को मूर्ख समझते हैं। डा. फारुख अब्दुल्ला का व्यवहार भी बहुत कुछ ऐसा ही है। कश्मीर का घटनाक्रम लगभग 22 वर्ष पुराना है पर सबको याद है कि सितम्बर, 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीका लाल टपलू की उनके घर के सामने हत्या कर दी गई, कई अन्य स्थानों पर हमले हुए अलगाववादी हड़ताल तथा प्रदर्शन करने लगे, इसके साथ ही वहां से अल्पसंख्यक हिन्दुओं का सामूहिक पलायन आरम्भ हुआ। उस समय राज्य में कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस की गठबंधन सरकार थी और डा. फारुख अब्दुल्ला ही उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। जब अब्दुल्ला सरकार के नियंत्रण से सब कुछ बाहर हो चुका था, अधिकांश कश्मीरी पंडित (हिन्दू) तथा अन्य अल्पसंख्यक घाटी से अपने प्राण बचाकर जम्मू पहुंच चुके थे, तब 20 जनवरी, 1990 को अचानक डा. फारुख अब्दुल्ला ने न केवल त्यागपत्र दे दिया अपितु पहले दिल्ली आए और फिर घाटी को जलता छोड़ अपनी ससुराल लंदन चले गए।
घाटी के हिन्दूविहीन होने के बाद 1996 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो अलगाववादियों के साथ ही नेशनल कांफ्रेंस ने भी उसका बहिष्कार कर दिया। फिर जनता दल के नेता तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा ने डा. फारुख अब्दुल्ला के साथ वार्ता की और अक्तूबर, 1996 के विधानसभा चुनाव में शामिल होकर डा. फारुख अब्दुल्ला पुन: जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद दिसम्बर, 1996 में डा. फारुख अब्दुल्ला ने फिर कहा कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है। आने वाले दो वर्षों के भीतर उनकी सरकार सभी विस्थापितों का पुनर्वास करा देगी और जम्मू-कश्मीर में दो वर्षों के बाद कोई भी विस्थापित या शरणार्थी नहीं रह जाएगा। किन्तु इस घोषणा के पश्चात पूरे 6वर्ष तक नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार रही तथा डा. फारुख अब्दुल्ला ही मुख्यमंत्री रहे, पर विस्थापितों का पुनर्वास तो दूर, बड़ी संख्या में नए शरणार्थी पंजीकृत हुए, जिनमें न केवल हिन्दू-सिख शामिल थे अपितु इनमें लगभग 3000 कश्मीरी मुसलमान परिवारों का भी पंजीकरण हुआ। जम्मू में इन पंजीकृत विस्थापित परिवारों की संख्या इन 6 वर्षों में 27000 से बढ़कर लगभग 32000 हो गई। जम्मू के अतिरिक्त हजारों परिवार दिल्ली, चण्डीगढ़ आदि स्थानों पर पंजीकृत हुए।
यह विडम्बना ही कि गत तीन वर्षों से जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस-नेशनल कान्फ्रेंस की गठबंधन सरकार चल रही है। इसका नेतृत्व डा. फारुख अब्दुल्ला के पुत्र उमर अब्दुल्ला के हाथों में है। किन्तु इन तीन वर्षों में किसी भी परिवार का पुनर्वास होना तो दूर, जम्मू में पंजीकृत कश्मीरी विस्थापित परिवारों की संख्या 32000 से बढ़कर 38000 से अधिक हो गई है। इसी बीच केन्द्र सरकार की ओर से इन विस्थापित परिवारों को नकद रूप से दी जानी वाली सहायता का वार्षिक खर्च भी 65 करोड़ से बढ़कर 90 करोड़ रुपए से अधिक हो गया है। कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास की कोई ठोस योजना भी नहीं है। पर अब्दुल्ला नाटकीय विलाप करते रहते हैं कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है। द
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