कन्या को 'नकोशी' के दायरे से निकालें
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11 मई, 2000 को जन्मी थी दुनिया की एक अरबवीं बच्ची 'आस्था'। शुभचिन्तकों, नेताओं और मीडियाकर्मियों का हुजूम इकट्ठा हुआ। सभी ने कौतुल-भरी दृष्टि से देखा। मंत्रियों ने उसकी शिक्षा-दीक्षा और परवरिश को लेकर जितने हो सकते थे उतने वादे किए। पत्रकारों की कलम और कैमरों ने अपना जलवा दिखाया। बाढ़ आई और उतर गई। फिर वही 'ढाक के तीन पात'। आस्था मात्र एक आंकड़ा बनकर रह गई।
अब फिलीपीन्स (मनीला) में डेनिका ने सात अरबवीं बच्ची के रूप में आंखें खोलीं और भारत में (लखनऊ) में इसकी प्रतीक मान्यता पाई 'नर्गिस' ने। पत्र-पत्रिकाएं और तमाम चैनल 'नर्गिस' के नाम की गूंज सुनाते रहे। खासकर ऐसे माहौल में जब कन्या भ्रूण हत्या के मामले दिल दहला रहे हैं। हर साल पांच लाख बच्चियां गर्भ में मारी जा रही हैं। नर्गिस, चूंकि कन्या है उसके गौरव को पूर्वोक्त पृष्ठभूमि में अंकित किया जा रहा है।
लड़कियों के जन्म पर जश्न मनाने वाले चिराग लेकर ढूंढने से नहीं मिलते, उस देश में जहां पर 'यत्र नार्मीस्तु पूजयन्ते' का उद्घोष हुआ। कितनी नैसर्गिक विडम्बना है कि पुरुष, स्त्री (मां) की कोख से जन्म लेता है, पर कालान्तर में इसी के घर में कन्या जन्म लेती है तो वह आनन्दित नहीं हो पाता। पुत्र को 'कुलदीपक', घर का चिराग, और तारनहार कहा जाता है। मरते समय मुंह में गंगाजल डालने वाला! मुखाग्नि देने वाला पुत्र न हुआ अल्लादीन का चिराग हो गया, कन्या न हुई 'मजबूरी' हो गई जिसे सिर्फ ढोना है।
इसी मानसिकता के तहत महाराष्ट्र के कई इलाकों में तीसरी, चौथी कन्या को माता-पिता 'नकुशा' नाम से संबोधित करते हैं। नकुशा, 'नकोशी' का अपभ्रंश है।' 'नकोशी' का अर्थ है अप्रिय, अवांछित, अनचाही। विगत दिनों महाराष्ट्र सरकार ने 'सतारा' जिले में 280 नकुशाओं के नाम बदले। पुणे की हवेली तहसील के 'नरेह' गांव में एक महिला सरपंच ने भव्य सार्वजनिक आयोजन में अपना नकुशा नाम बदल डाला। इसी आयोजन में 25 लड़कियों ने अपना नाम नकुशा होने की जानकारी दी। 'पुणे' महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी है। वहीं पर लड़कियों के अस्तित्व की ऐसी अवमानना कि वे सारी उम्र, माता-पिता द्वारा उपेक्षित और अनचाही होने की मानसिक यातना भोगती रहें। तिल-तिल जलकर, अपमान का दंश झेलती रहें। हैरान कर देने वाली बात है यह। बेशक नाम बदलने से मानसिकता नहीं बदलती पर कुछ करने से ही कुछ होता है। यह बात उतनी ही सच है कि बीज बोया ही नहीं जाए तो वृक्ष की अपेक्षा कैसी? एक संवेदनात्मक शुरुआत है यह।
प्रेरणा का यह सफर उम्मीद जगाता है। नरहे गांव की सरपंच को आन्दोलित किया किसी महिला चिकित्सक ने। उन्हीं का संगठन एक रचनात्मक अभियान चलाता है। शादी में वर-वधू जब 'सात-फेरे' लेते हैं उन्हें एक और आठवां फेरा लेने को कहा जाता है इस संकल्प के साथ कि वे बच्ची के जन्म का हृदय से स्वागत करेंगे।
कन्या भ्रूण हत्या के मामले में महाराष्ट्र भी आगे है। पुणे में छह साल से कम उम्र के बच्चों में 1000 लड़कों पर 886 लड़कियां हैं। यह डरावनी स्थिति है। मराठवाड़ा के 'बीड' जिले में 1000 लड़कों पर 800 लड़कियां हैं। कभी यहीं से खबर आती है कि एक नाले में 9 कन्या भ्रूण मिले। जलगांव से भी अशुभ समाचार मिलते हैं इसी सन्दर्भ में।
महाराष्ट्र सरकार पोर्टेबल सोनोग्राफी मशीनों पर पाबंदी लगाए या सोनोग्राफी केन्द्रों में कैमरे लगाए, इस कुप्रवृत्ति का समूल नाश तब तक असंभव है जब तक हम स्वयं अन्दरूनी नैतिक बाध्यता के अधीन नहीं हो जाते।
देश में हर साल 65000 स्त्रियां तो प्रसव के दौरान ही मर जाती हैं। अगर हम देशव्यापी आंकड़ों पर गौर करें तो चौंकाने वाला दृश्य उपस्थित होता है। 2011 के आकलन में 1000 लड़कों पर 914 लड़कियां पाई गईं हैं। क्या हम अब भी नहीं चेतेंगे। इस दृष्टि से श्रीलंका, नेपाल, और बंगलादेश के हालत हमसे अच्छे हैं। ब्राजील, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा हैं। क्या ऋषियों की वाणी भुला चुके भारत को अब इनसे सबक लेना होगा?
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